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वट सावित्री व्रत 3 जून सोमवार को, वट सावित्री व्रत कथा

आचार्य राधाकान्त शास्त्री, वट सावित्री व्रत :- 3 जून सोमवार को मनाया जाएगा ।
शास्त्रों के अनुसार इस व्रत का
प्रथम दिन :- नहाय खाय 1 जून शनिवार को कर
द्वितीय दिन :-
बिना नमक बिना तेल का भोजन ( हविस्यन्न) भोजन या अन्य पक्वान्न भोजन, फिर
तृतीय दिन महाव्रत करने का विधान है ।
वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की तेरस से आरंभ कर अमावस्या को मनाया जाता है । जो इस वर्ष यह व्रत 1, 2 जून से प्रारम्भ कर 3 जून को मनाया जाएगा।
खास कर 3 जून को ही सोमवार को सोमवती आमावश्या होने से इसका विशिष्ट एवं अद्भुत महत्व है अतः 3 जून को सुबह वट वृक्ष की पूजन, 108 परिक्रमा कर, कथा का श्रवण कर पूर्ण व्रत करें,
यह व्रत सौभाग्य की कामना एवं संतान की प्राप्ति हेतु फलदायी माना जाता है । वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ । भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक माना गया है । स्कंद पुराण, भविष्योत्तर पुराण तथा निर्णयामृत आदि में इस व्रत के विषय में विस्तार पूर्वक बताया गया है ।
सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को दर्शाता यह व्रत ‘वट’ और ‘सावित्री’ दोनों का विशिष्ट महत्व व्यक्त करता है । पीपल कि भांति वट वृक्ष को भी हिंदु धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है । धर्म ग्रंथों में वट वृक्ष के भीतर ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास माना गया है तथा इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से समस्त इच्छाएं पूर्ण होती हैं ।
इस दिन सत्यवान सावित्री की यमराज सहित पूजा की जाती है । यह व्रत करने से स्त्री का सुहाग अचल रहता है । सावित्री ने इसी व्रत को कर अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से जीत लिया था । इस दिन उपवासक को सुवर्ण या मिट्टी से सावित्री-सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज कि प्रतिमा बनाकर धूप-चन्दन, फल, रोली, केसर से पूजन करना चाहिए । तथा सावित्री-सत्यवान कि कथा सुननी चाहिए ।

वट सावित्री व्रत कथा :-

सावित्री भारतीय संस्कृति में महान ऐतिहासिक चरित्र हुई हैं । सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था । कहते हैं कि भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी । उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए अनेक वर्षों तक तप किया जिससे प्रसन्न हो देवी सावित्री ने प्रकट होकर उन्हें पुत्री का वरदान दिया जिसके फलस्वरूप राजा को पुत्री प्राप्त हुई और उस कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया ।
सावित्री सभी गुणों से संपन्न कन्या थी जिसके लिए योग्य वर न मिलने के कारण सावित्री के पिता दुःखी रहने लगे एक बार उन्होंने पुत्री को स्वयं वर तलाशने भेजा इस खोज में सावित्री एक वन में जा पहुंची जहां उसकी भेंट साल्व देश के राजा द्युमत्सेन से होती है । द्युमत्सेन उसी तपोवन में रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था । सावित्री ने उनके पुत्र सत्यवान को देखकर उन्हें पति के रूप में वरण किया ।
इधर यह बात जब ऋषिराज नारद को ज्ञात हुई तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे- आपकी कन्या ने वर खोजने में भारी भूल कि है । सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा है परन्तु वह अल्पायु है और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी । नारद जी के वचन सुन राजा अश्वपति का चेहरा विवर्ण हो गया । “वृथा न होहिं देव ऋषि बानी” ऎसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया की ऎसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है । इसलिये अन्य कोई वर चुन लो ।
इस पर सावित्री अपने पिता से कहती है कि पिताजी- आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती है, तथा कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है । अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रुप में स्वीकार कर चुकी हूँ । इस बात को सुन दोनों का विधि विधान के साथ पाणिग्रहण संस्कार किया गया और सावित्री अपने ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा में रत हो गई । समय बदला, नारद का वचन सावित्री को दिन -प्रतिदिन अधीर करने लगा । उसने जब जाना कि पति की मृत्यु का दिन नजदीक आ गया है तब तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरु कर दिया । नारद द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया । नित्य की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर लकडी काटने के लिये चला गया तो सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा से अपने पति के साथ जंगल में चलने के लिए तैयार हो गई़ ।
सत्यवान वन में पहुंचकर लकडी काटने के लिये वृ्क्ष पर चढ गया । वृ्क्ष पर चढते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीडा होने लगी । वह व्याकुल हो गया और वृक्ष से नीचे उतर गया । सावित्री अपना भविष्य समझ गई तथा अपनी गोद का सिरहाना बनाकर अपने पति को लिटा लिया । उसी समय दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारुढ यमराज को आते देखा । धर्मराज सत्यवान के जीवन को जब लेकर चल दिए तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पडी । पहले तो यमराज ने उसे देवी-विधान समझाया परन्तु उसकी निष्ठा और पतिपरायणता देख कर उसे वर मांगने के लिये कहा ।
सावित्री बोली – मेरे सास-ससुर वनवासी तथा अंधे है उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें । यमराज ने कहा ऎसा ही होगा और अब तुम लौट जाओ । यमराज की बात सुनकर उसने कहा – भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है । पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है । यह सुनकर उन्होने फिर से उसे एक और वर मांगने के लिये कहा । सावित्री बोली-हमारे ससुर का राज्य छिन गया है, उसे वे पुन: प्राप्त कर सकें, साथ ही धर्मपरायण बने रहें । यमराज ने यह वर देकर कहा की अच्छा अब तुम लौट जाओ परंतु वह न मानी ।
यमराज ने कहा कि पति के प्राणों के अलावा जो भी मांगना है मांग लो और लौट जाओ इस बार सावित्री ने अपने को सत्यवान के सौ पुत्रों की माँ बनने का वरदान मांगा यमराज ने तथास्तु कहा और आगे चल दिये सावित्री फ़िर भी उनके पीछे पीछे चलती रही उसके इस कृत से यमराज नाराज हो जाते हैं । यमराज को क्रोधित होते देख सावित्री उन्हें नमन करते हुए उन्हें कहती है कि आपने मुझे सौ पुत्रों की माँ बनने का आशीर्वाद तो दे दिया लेकिन बिना पति के मैं मां किस प्रकार से बन सकती हूँ इसलिये आप अपने तीसरे वरदान को पूरा करने के लिये अपना कहा पूरा करें ।
सावित्री की पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राण को अपने पाश से मुक्त कर दिया सावित्री सत्यवान के प्राणों लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुंची और सत्यवान जीवित होकर उठ बैठे दोनों हर्षित होकर अपनी राजधानी की ओर चल पडे । वहां पहुंच कर उन्होने देखा की उनके माता-पिता को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई है । इस प्रकार सावित्री-सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहें । वट सावित्री व्रत करने और इस कथा को सुनने से उपवासक के वैवाहिक जीवन या जीवन साथी की आयु पर किसी प्रकार का कोई संकट आया भी हो तो टल जाता है । और जिस प्रकार से सावित्री का अखंड सौभाग्य, राज्य सम्पूर्ण पारिवारिक सुख, एवं उत्तम सन्तान सुख वापस मिल गया उसी प्रकार इस व्रत के करने वाली समस्त स्त्रियों के भी राज्य, सुख सौभाग्य , सन्तान सुख सहित सम्पूर्ण एवं समस्त पारिवारिक सुख प्राप्त होता है, व्रत राज के प्रभाव से आप सबके भी सभी सांसारिक, पारिवारिक सुख सौभाग्य, सन्तान, साम्राज्य सुख की प्राप्ति हो, आचार्य राधाकान्त शास्त्री,

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