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अन्ध आधुनिकता और महाविनास : अजयकुमार झा

अजयकुमार झा, जलेश्वर । आज विश्व मानवता को प्रलयाग्नि में भस्मीभूत करने को आतुर कोरोना भायरस को निमंत्रण करनेबाला हम तथाकथित आधुनिक प्रवृत्ति के पृष्ठपोषक मूढ़ मानव ही हैं। इस आधुनिकता ने नए मनुष्य को इस कदर अपनी जमीन से दूर कर दिया कि वो कटि-पतंग की तरह आसमान तो छूते नजर आए परन्तु जड़ से उखड़
गए। आज का यह भयानक महामारी के साथ सामूहिक मृत्यु का जो तांडव दिखाई दे रहा है, यह उसीका प्रमाण है।
औद्योगिक क्रान्ति, विश्व बाजारीकरण, संवेदनहीन साम्यवादी विचारधारा अदि इसके प्रमुख घटक है। अपनी उत्पादन को विश्व बाजार में प्रभावकारी रूपसे फैलाने तथा विश्व अर्थतन्त्र पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिए आज मानवता इस हद तक गिर गई है कि मानवीय समुदाय को मृत्यु के भठ्ठी में झोंक कर अपनी उत्पादित वस्तु खरीदने के लिए मजबूर कर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करने में अपना बड़प्पन मानती है। अर्थात, आज मानवीय जीबन से बढ़कर धन मूल्यवान हो गया है। पैसों के लिए सामूहिक नर संहार का कोई मूल्य नहीं रह गया है।
आधुनिक मानवता को इस कदर दिशाहीन हवाई यान में कैद कर दिया गया है कि, वो, न तत्काल इस समस्या से बाहर निकल सकता है ना ही कोई बचाव का उपाय खोज सकता है। जबतक समाधान खोजा जाएगा तबतक इस प्रकार के अनेक मानव निर्मित भायरस हमारे बीच नए नए समस्या को लेकर उपस्थित होते रहेंगे। हमें इन षडयंत्रकारियों के आगे दैहिक, आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रूपसे पूर्णतः शरणागत होना पड़ेगा, जहाँ हमारा अस्तित्व नस्तानावुद कर दिया जाएगा। हम प्याज के परत की तरह उघरते उघरते एक दिन सदा के लिए खो जाएंगे।
हमें हमारे पूर्वजों द्वारा प्राप्त स्वर्ण भूमि में कृषि नहीं करना है, क्युकी यह तो गवारों का काम है! हमें तो पर्यटक व्यवसाय को बढ़ावा देकर अपनी संस्कृति और संस्कार को बेचना है। घर वैठे पैसा कमाने के लोभ में बहु बेटियों को बिदेसी के हाथों का खिलौना बनाना है। वैसे साम्यवाद में सब चलता है।
अतः अब हमें हमारे पूर्वजों के द्वारा प्रदत्त कृषिलगायत के परंपरागत कार्य को वैज्ञानिक रूपसे व्यवस्थापन कर पुर्नरुपेण आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाना होगा। जिबनोपयोगी आवश्यकता पर केन्द्रित होना होगा। समग्र राष्ट्र को लक्षित कर “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” महामंत्र के साथ योजना निर्माण और कार्यान्वयन करना होगा। आपसी संघर्ष और षडयंत्र को भुलाकर एक सौहार्दपूर्ण सामाजिक वातावरण को सृजित करना होगा। अन्यथा विदेशियों के हाथों समग्र विनास के लिए प्रतीक्षा ही विकल्प है।
आज संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंग और उनके पदाधिकारी चीन के विरुद्ध इस महामारी को फैलाने को लेकर चुप्पी साधकर बैठे हैं। यह चीन की आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य शक्ति का भय या कोई और लालच हो सकता है। माओवादी के जनांदोलन विरुद्ध बोलने वाले आज इतने बड़े नरसंहार पर शांत क्यूूं हैं ? आज सम्पूर्ण विश्व में चीन के विरुद्ध मात्र अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ही हैं जो खुलकर बोल पाने का साहस दिखा पा रहे हैं। उधर चीन अमेरिका पर वायरस फैलाने का आरोप मढ़ रहा है। सच्चाई हम सबसे पड़े है। उनके लिए हम कुवाँ के मेढक से ज्यादा नहीं हैं। परन्तु अमेरिका का स्पष्ट कहना है कि सैन्य अभ्यास के दौरान चीन द्वारा उसके सैनिकों को संक्रमित कर यह वायरस अमेरिका भेजा गया है।
सत्य जो भी हो, इतना तो पक्का है कि ए दोनों देस आर्थिक, व्यापारिक और सामरिक रूपसे विश्व का महाशक्ति है। एक समाजवाद के पोषक तो दूसरा साम्यवाद रक्षक। अब इन दोनों के योजना में मानवता अपने को कहाँ सुरक्षित पाती है यह तो आम नागरिक को ही निर्णय लेने होंगे। यदि इनदोनो के टकराव से मानवता को खतरा महसूस होगा तो, तीसरा खेमा तैयार नहीं होगा, ए नहीं कहा जा सकता। हर हाल में मानव को संरक्षित करना होगा। यही विकास का अर्थ है और यही सर्वोत्तम मानव धर्म भी।

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