आखिर भारतीय सेना कालापानी में कैसे स्थापित हुई और नेपाल क्यों चुप रहा ?: कैलाश महतो
कैलाश महतो, नवलपरासी,नेपाल | हमें हमारे पहला से उच्च श्रेणियों के शैक्षिक संस्थानों तक में नेपाल का कुल क्षेत्रफल १,४७,१८१ वर्ग किलोमिटर होने की बात पढायी/सिखायी गयी थी । नेपाली इतिहास में हमने यह भी पढा है कि गोरखा सैनिकों ने कालापानी का युद्ध बहादुरी के साथ लडा था जिसकी चर्चा इतिहास के पन्नों पर बडे गर्व के साथ अंकित किया गया है । लडाई तो गोरखा ने सारे उतराखण्ड, सिक्किम, विजयपुर और दार्जिलिङ तक किया था, मगर वे भू-भाग नेपाल के नहीं हैं । वैसे ही कालापानी में लडे गये युद्ध से यह प्रमाणित नहीं होता कि कालापानी, लिपुलेक और लिम्पियाधुरा नेपाल के ही जमीनें हैं । अगर “हाँ” है तो नेपाल के नक्शा में वे भू-भाग भी होकर स्कूलों और यूनिवर्सिटियों में यह पढाया जाता कि नेपाल का क्षेत्रफल १,४७,४९१ वर्ग किलोमिटर है । कालापानी विवाद के बाद बनाये गये नेपाल के नये नक्शे के अनुसार हमारे जैसे लाखों विद्यार्थियों ने भी पहले पढा/सुना/देखा होता ।
देशभक्ति अपरिहार्य है । हरेक नागरिक में अटूट देशप्रेम होनी चाहिए । मगर देशभक्ति में जब अन्धभक्ति सीमा लांघती है तो वहाँ दुर्घटनायें जन्म लेती हैं । यह हर क्षेत्र में लागू होता है – वह चाहे व्यक्तिभक्ति हो, समाजभक्ति हो, परिवारभक्ति हो, धर्मभक्ति हो, विचारभक्ति हो या फिर देशक्ति ही क्यों न हो । हिटलर का राष्ट्रद्रोह और अन्धदेशभक्ति ने हिटलर अपने और जर्मनी के विकसित रुप के साथ ही हिटलरभक्तों के भी नामों निशान को अल्पायु में ही मिटाने की इतिहास सबके सामने है । महाभारत में कौरवों की अन्धदेशभक्ति ने उन्हें देश तो दिलाया नहीं, कौरवों ने अपने साथ अपने सारे साथी सहयोगी , शाखा सन्तान व सैनिकों की स्वाहा कर दिया ।
नेपाल के दावा अनुसार गत नवम्बर में भारत ने कालापानी को अपने नक्शे में शामिल करने की जहाँतक बात है तो इस से भारत के मंसे को समझना होगा । वह भारत के लिए सामरिक ढंग से काफी संवेदनशील भू-भाग है जिसे वह किसी भी कीमत पर छोडने को राजी नहीं होगा । दूसरी बात यह कि जिस कालापानी को नेपाल ने अपने नये नक्शे में शामिल किया है, उसे किस आधार पर मान्यता मिलेगा, यह संदेहात्मक प्रश्न है । साठ सत्तर सालों से नेपाल ने कालापानी को लेकर विरोध के अलावा और कुछ किया भी नहीं है । अपने नक्शे में उस क्षेत्र को तब शामिल करता है जब भारत आजसे पहले ही सन् १९५२ से ही कब्जा करके बैठा है । उसने उस क्षेत्र को सन् १९९९ से सडक निर्माण में प्रयोग किया और सन् २०१९ के अन्त में अपने नक्शे में पुन: दर्शाया । फिर अभी ८ मई को उसने उस सडक का उद्घाटन किया है । प्रमाण के रुप में भी भारत नेपाल से आगे दिख रहा है । क्योंकि आज से तकरीबन १५५ वर्ष पूर्व सन् १८६५ में ही भारत के एक भू-विश्लेषक के अनुसार कालापानी सहित का भारतीय नक्शा तत्कालीन भारत प्रस्तुत कर चुका था ।
नेपाल का दावा कि “भारत ने गत वर्ष नवम्बर में कालापानी को भारत के नक्शा में रखा है” को मान लिया जाय तो वह भूखण्ड भारत का न होने की बात आती है । तो फिर सवाल यह भी सामने आता है कि वह भू-भाग नेपाल के पूर्व नक्शा में भी तो नहीं है जिसका क्षेत्रफल १,४७,१८१ वर्ग किलोमीटर है । इस आधार पर तो कालापानी, लिपुलेक और लिम्पियाधुरा लिबरल्याड, आइसल्याण्ड और अण्टार्कटिक महादेश के भूखण्ड जैसा ही बिना किसी मानवीय शासन पकड के बाहर रहा है जबकि किसी समय बेलायत द्वारा किसी युद्ध में प्रयोग में रहे आइसल्याण्ड, और लिबरल्याण्ड पर भी मानवीय शासन ने कुछ समय पहले पकड बना लिया है । जहाँतक कालापानी का सवाल है तो वहाँ भारत की मौजुदगी सन् १९५२ से ही है । सन् १९६२ में तो वहाँ से चीन के साथ युद्ध तक लड चुका है ।
इतिहास यह भी कहता है कि वि.स. २००७ में प्रजातन्त्र स्थापना के बाद मोहन शमशेर और बिपी कोइराला के बीच छिडे जंग से मोहन शमशेर जब राजिनामा दिए तो प्रधानमन्त्री बने मातृका प्रसाद कोइराला के अनुरोध पर भारतीय सेना नेपाल में सेना पुनर्गठन और प्रशिक्षण के लिए आई । कुछ समय के लिए आई सेना नेपाल में १८ वर्षतक १८ सैनिक क्याम्प बनाकर रही । उसी क्रम में सन् १९५२ में भारत ने नेपाल से बिना पूछे या नेपाल के जानकारी बिना ही कालापानी में अपनी सेना बैठाई । पर नेपाल के तरफ से किसी प्रकार का विरोध नहीं हुआ । सवाल यह उठता है कि जिस प्रधानमन्त्री मातृकाप्रसाद कोइराला के चाहत से भारतीय सेना नेपाल में आने की हिम्मत की, वहीं कालापानी में वो बिना बुलाये किस हैसियत से स्थापित हो गई ।
नेपाल क्यों चुप रहा ?
२०७७ जेठ ६ गते का “रातोपाटी” के समाचार “अतिक्रमित भूमि फिर्ता ल्याएरै छाड्ने प्रधानमन्त्रीको घोषणा, संविधानको अनुसूची ३ संशोधन गरिने” शीर्षक तले के समाचार के अनुच्छेद ४ में “उन (प्रधानमन्त्री) ले २०१८ सालसम्म कालापानी देखि लिम्पियाधुरा सम्म जनगणना गर्ने, तिरो तिर्ने काम भइरहेको जिकिर …..” से यह पता चलता है कि विवादित कालापानी लगायत के भूखण्डों के लोगों ने नेपाल सरकार को आजतक न कोई कर अदा किया है न सरकार ने वहाँ जनगणना की है । क्या यह इस सन्देह को मजबूत नहीं करता कि आखिर नेपाली कालापानी में नेपाल सरकार ने यह सब क्यों नहीं किया । नेपाल का यह दावा कि कालापानी भारत का नहीं है और भारत के पूर्व नक्शा में समेत न होने की बातों मान लें तो वह भूखण्ड दोनों देशों में से किसी का नहीं है । अब जब विवाद बढ चुका है तो बेहतर यही होगा कि नेपाल और भारत दोनों देश बैठकर आपसी सहमति पर इस मामले को सुलझायें । नहीं तो नयाँ नक्शा नेपाल के लिए मुसीबत बन सकता है ।
20 मई 2020 के “The Kathmandu Post” में प्रकाशित “The Situation is such that even if Nepal gets its land back, many might want to hold Indian citizenship.” शीर्षक के समाचार अनुसार दार्चुला जिलाबासी नेपाल सरकार से उस अपनत्व का अनुभव नहीं करता है जो वे भारतीय सरकार व पक्ष से करते हैं । हालात यहाँ तक है कि जिला के गब्र्यांग इलाके के लोगों को भारतीय सरकार प्रति किलो भा.रु. 2 से 3 तक के दामों पर रासन उपलब्ध कराती है, वहीं स्थानीय सरकार के तरफ से नेपाल ने.रु. 110/- से 130/- प्रति किलो के मूल्य पर उपलब्ध कराता है । खाद्य सामग्री से लेकर हर आपद विपद में भारतीय सरकार, भारतीय सेना व भारतीय जनता से उन्हें सहयोग मिलता है । इस बात का जिक्र ब्यास गाँवपालिका के वार्ड नं 1 के जन निर्वाचित जनप्रतिनिधि अशोक सिंह बोहरा तक ने किया है । काठमाडौं पोष्ट के अनुसार कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेक के जनता के सामने अगर निर्णय करने की स्थिति आई तो ज्यादातर लोग भारतीय नागरिक होने के पक्ष में जानेतक की नौवत आ सकती है ।
भारत के तरफ से कालापानी, लिपुलेक और लिम्पियाधुरा पर जो प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं, वह भी गंभीर प्रकृति के हैं । भारतीय थल सेना के चीफ एक तरफ नेपाल किसी के इशारे पर चलने का आशंका जाहिर करते हैं, वहीं जी न्यूज, और उसके सम्वाददाता सिद्धान्त, एबीपी न्यूज जैसे जिम्मेबार च्यानलों का कहना है कि नक्शा जारी कर देने से कोई फर्क नहीं पडता । उनका कहना है कि कालापानी, लिपुलेक और लिम्पियाधुरा भारत का है और भारत का ही रहेगा ।
वैसे ही नेपाल प्रहरी से अवकाश प्राप्त दार्चुला के छाँगरु में जन्मे दान सिंह बोहरा जैसे अनुभवी प्रहरी अधिकारी समेत का कहना है कि दार्चुला के कालापानी लगायत के लोगों के भलाई व सुरक्षा के लिए तुलनात्मक रुप में नेपाल सरकार कुछ भी नहीं करती । देखें “द काठमाडू पोष्ट” के कुछ भागों को नीचे :
According to locals, Indian security forces in the area extend help when necessary to the local population, dropping foodstuff by helicopters and airlifting patients in need of medical attention.
We rely completely on India for transportation and supplies,” Bohara said, who worries that any drastic reaction from India will imperil their existence.
“The Indian government shows that it’s always there for the villagers. It never lets its citizens go hungry,” said Dan Singh Bohara, a former Deputy Inspector General of the Nepal Police who was born and raised in Chhangru. “In comparison, there is nothing the Nepali government does for its citizens.”
Gabryang has easy access to daily essentials at a subsidised rate provided by the Indian government. According to Bohara, the Indian government provides rice at INR 2 to 5 (Rs 3.5 to 8) per kg in Gabryang while Chhangru locals pay Rs 110 to 130 for a kilo of rice. There is a marked difference in the prices of essentials like sugar, salt and oil too.
समाचारों को सत्य मानें तो नेपाल द्वारा प्रकाशित नेपाल के नये नक्शे पर सहमति जनाने बाली बलिउड नेपाली अभिनेत्री मनिषा कोइराला के ट्वीट पर भारत के आम लोगों के तरफ से आ रहे प्रतिकारात्मक प्रतिक्रिया और भारत सरकार द्वारा भारत में काम करने बाले नेपाली लोग समेत को बाहर निकालने की खबर है । वैसे ही जिस १९५० के सन्धी के धारा ८ के जिक्र के साथ भारत के ६०,००० वर्ग किलोमिटर नेपाल के होने के दावे हैं, उसी के अनुसार तत्कालिन इष्ट इन्डियन कम्पनी और नेपाल सरकार बीच सम्पन्न सारे सम्झौतें निरस्त हो जाते हैं और कम्पनी सरकार के द्वारा मधेशी जनता के मर्जी बगैर नेपाल को दिए गये मधेश की पूर्वी और पश्चिमी दोनों भूमि स्वत: स्वतन्त्र होने का आधार बनता है । इन हालातों पर नेपाल अगर गौर नहीं करता है तो देशभक्ति की काठमाडौं आधारित आन्दोलन से लेने के देने पडने की संभावना मजबूत दिखती है । क्योंकि देशभक्ति कोई मेडिकल दवा नहीं जिसे मुँह या सिरिंजों के माध्यम से शरीर के एक भाग में प्रयोग करने से शरीर के किसी भी भाग का रोग खत्म हो जाये । दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि नक्शा बना देने भर से अगर भूमि प्राप्त हो जाता है तो कालापानी ही क्यों, भारत के शासकीय क्षेत्र दिल्ली को भी नेपाल के नक्शा में समेटा जा सकता है जिसका उल्लेख सामाजिक सञ्जाल फेसबुक पर भी आ चुका है ।
“The Kathmandu Post” के समाचार में ही उल्लेखित दो अंग्रेजी शब्द “Reassrted” और “Reclaimed” का प्रयोग भारत के तरफ से कालापानी पर होना अधिक गंभीर स्थिति को संकेत करता है । नेपाल के देशभक्त लोग ताबडतोड भारत से युद्ध करने तक की बात जहाँ करते सुना जा रहा है, वहीं भारत बोलता कम और सुन/देख ज्यादा रहा है । नेपाली विभिन्न समाचार सूत्रों के अनुसार कभी चीन तो कभी रुस द्वारा नेपाल को लडाकू विमान, हथियार व अन्य सहयोग करने की बातों को मीडियाबाजी करना किसी भी मायने में न तो देशभक्ति है कि, न बहादुरी । इससे नेपाल यही प्रमाणित करता है कि वह कभी भारत, कभी चीन, कभी कोरिया, कभी अमेरिका तो कभी रुस के बल पर जीने का रोग पाल रखा है जो साम्राज्यवाद को सहर्ष स्वीकारने बाला उनके औपनिवेशिक मुल्क है ।
सामाजिक सञ्जाल के समाचारों को सही माना जाय तो नेपाल के प्रधानमन्त्री द्वारा यह कहा जाना अधिक संकटपूर्ण बात है कि विवादित कालापानी को भारत को भाडे में दिया जा सकता है । क्या कोई देश अपने भूमि को दूसरे किसी देश का स्वार्थ और अभिष्ट को पूरा करने के लिए भाडे में दे सकता है ? दे भी तो किस प्रयोजन से ? क्या कालापानी को लीज पर देने से नेपाल की गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, व्यापार व व्यवसाय लगायत की समस्यायें समाधान हो सकती हैं ? दे भी तो किस आधार पर ? पहले तो उसे अन्तर्राष्ट्रीय भू-राजनीतिक रुप से नेपाली बनाना होगा ।
समाचारों के अनुसार पाँचथर और इलाम जिले के भारत से सटे सन्तकपुर और आहाल में नेपाली विद्यार्थी द्वारा गाडे गये नेपाली झण्डा को भारतीय एसएसबी ने उखाड कर फेक दिया है । इस हालात में हम भारत से युद्ध लडने की बात करते हैं । हम एक इञ्च भी नेपाली जमीन न छोडने की रट लगाते हैं । मगर एक भी रट को फलदायक नहीं बना पाते हैं । वहीं सीमा, देश, जनता और राष्ट्रीय सम्पदाओं को सुरक्षित करने के लिए वर्गीय और नश्लीय शासन, सेना, प्रशासन और कूटनीतिक भर्ती केन्द्र बनाने बाले ही हर भारतीय अतिक्रमण के समय मधेशी जनता और उसके नेताओं पर छीटें कसते हैं । उन्हें भारत परस्त समझते हैं । जो निकम्मा और कायर है, जिसके कारण देश बार बार अतिक्रमित होता है, वे ही मधेश को नेपाल विरोधी कहता है । शर्म होनी चाहिए ।
इन्द्रेणी टि.वी च्यानल पर ई. दिपेन्द्र कण्डेल द्वारा नेपाल, गोरखाली, कालापानी, भारत और मधेशी युवाओं पर दिया गया अन्तर्वार्ता अति सत्य, समय सान्दर्भिक, देशप्रेम और समस्या समाधान का मूल कुँजी कहा जा सकता है । गोर्खाली बहादुर लोगों से देश की सीमायें सुरक्षित होना होता तो कालापानी तो तपसिल की बात है, सुस्ता, ठोरी, तिलाठी, सन्तकपुर, आहाल, छपकैया जैसे अतिक्रमण नहीं हो पाता । दिपेन्द्र कण्डेल जी ने एक बात बडी वैज्ञानिक की है कि गोर्खाली लोग चाहे जितने भी बहादुर हों, वो मधेश के किसी भी भू-भाग को भारतीय अतिक्रमण से नहीं बचा सकते । मधेश का भू-जानकार मधेशी हैं और अपनी भूमि की रक्षा मधेशी बखूबी कर सकता है । इतना ही नहीं, मधेशी यूवा को अगर देश के किसी सीमा, भू-भाग या सम्पदा को रक्षा करने का अवसर मिले तो देशभक्ति की वास्तविक परिभाषा और परिचय देश को पाने का सौभाग्य प्राप्त होगा ।
देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति दोनों एक नहीं है जो समान्य रुप से समझा जाता है । देश विशेषतः भूमि से सम्बन्धित होता है जबकि राष्ट्र विशेषतः जनता और उसके भावना, संस्कार, परम्परा, रीतिरिवाज, रहनसहन, जीवन पद्धति से सम्बन्धित होता है । नेपाली शासकों का राष्ट्र और राष्ट्रियता एक वर्गीय और नश्लीय होने के कारण मधेशियों को गैर राष्ट्रवादी व अराष्ट्रिय समझा जाना एक कोढ मानसिकता है । इसी कुण्ठित मानसिकता के कारण नेपाल के करोडों मधेशी, जनजाति, आदिवासी, अल्पसंख्यक जैसे लोग देश के मूल धार से अलग थलग पडे हैं और लाखों विदेशी लोग नेपाल के नागरिक बनकर देश की राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति, व्यापार व व्यवसायों को कब्जा करने के कागार पर हैं । मधेशी को सही पहचान और अवसर के साथ राज्य में सम्मानजनक पहुँच और सहभागिता मिले तो मधेशी चेहरे के आधार पर देश में राज कर रहे लाखों विदेशीयों के नागरिकता समेत पर अनुसंधान कर सही नागरिक का पहचान कर विदेशी रंगदारी से नेपाल को छुटकारा दिलाया जा सकता है ।
देश को केवल सीमा अतिक्रमण से नहीं, बल्कि नागरिक, राजनीतिक, सामरिक, आर्थिक, सामाजिक, व्यापारिक, गुण्डागर्दी, तस्करी, उपनिवेश तथा साम्राज्यों से बचाना प्राथमिक आवश्यकता है । अगर हम इन हालातों पर सफलता पाते हैं तो बाँकी सारा तपसिल बन जाता है ।
