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सत्ता समीकरण, महामारी और सीमा विवाद में उलझी नेपाल की राजनीति : जे पी गुप्ता

यदि चीन का सरोकार भारत के साथ बना रहता है, तो लिपुलेक क्षेत्र में मौजूदा स्थिति वही रहेगी


हिमालिनी  अंक मई २०२० ,सन २०१५ में, भारत और चीन कालापानी–लिपुलेक क्षेत्र में भौतिक बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए एक द्विपक्षीय समझौते पर पहुंच गए । चूंकि यह अप्रत्याशित था, नेपाल ने विरोध किया । नेपाल का विचार था कि भारत और चीन नेपाल के क्षेत्र पर बनने वाले ऐसे ढांचे पर कैसे सहमत हो सकते हैं ? परंपरागत रूप से और स्वाभाविक रूप से, नेपाल के विरोध का उद्देश्य केवल भारत था । चीन ने कुछ नहीं कहा, चीन को बोलने की कोई मांग भी नहीं उठी ।

सन २०१९ में भारत द्वारा जम्मू, कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद जारी किए गए नक्शे का भी नेपाल ने भी विरोध किया । चीन ने इस मुद्दे पर पाकिस्तान की स्थिति का समर्थन किया और लद्दाख की बात की । नेपाल की मांगों के बारे में कुछ नहीं कहा । भारत ने नेपाल की मांग को तथ्यहीन बताया और खारिज कर दिया । वर्तमान संदर्भ में, भारत सरकार द्वारा निर्मित धार्चुला होते हुए तिब्बत के मानसरोवर जाने वाले रास्ते का नेपाल ने तुरंत विरोध किया ।

भारत द्वारा निर्मित सड़क का गंतव्य चीन का तिब्बत है । एक मायने में, इस सड़क का निर्माण भारत और चीन के बीच सन २०१५ में भौतिक बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए हुए समझौते का अगला कदम है । हालांकि, यह उल्लेखनीय है कि चीन ने अभी तक कुछ भी नहीं कहा है । नेपाल का विरोध पारंपरिक रूप से और स्वाभाविक रूप से भारतीय पक्ष पर लक्षित है । यह सही है । लेकिन, केवल आधा ही सही है । इस संबंध में, यदि चीन का सरोकार भारत के साथ बना रहता है, तो लिपुलेक क्षेत्र में मौजूदा स्थिति वही रहेगी । अगर चीन भारत से अलग सोचता है, तो नेपाल ताकत हासिल करेगा । यह एक तथ्य है । इसे समझते हुए, हमें नेपाल के कूटनीतिक प्रयासों में विविधता लाने की आवश्यकता है । शायद, एक ओर शांति कूटनीति का विचार और दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीयकरण हमारे राष्ट्रीय हित को मजबूत न कर सके ।

नेपाल–भारत के बीच सीमा विवाद का यह मसला कोरोना महामारी के भयावहता को कम प्राथमिकता पर धकेल दिया है । अभी राष्ट्रीय÷अंतराष्ट्रीय कई घटनाक्रम के बीच देश कोरोना महामारी से ग्रसित है, जहां लोग चाहते हैं कि राज्य स्वास्थ्य और सुरक्षा की अच्छी व्यवस्था करके देश और इस महामारी से लोगों को बचाए । मैं गांवों को देखता हूं, कि वहां के लोग पार्टी लाइन से ऊपर उठ चुके हैं और सरकार से अच्छा काम करने की उम्मीद करते हैं । हालाँकि, सरकार के कार्यों को संतोषजनक नहीं माना गया है । मीडिया ने इस बीच अनियमितताओं के बारे में खुलासा किया । हालांकि, लोग अब भी समझते हैं कि सरकार संरक्षकता के लिए जिम्मेदार निकाय है । यही कारण है कि जनता को अभी भी सरकार से बहुत उम्मीदें हैं । इसी बीच, अचानक, सत्ता समीकरण के खेल और जिस तरह से कोरोना की समस्या के बीच सत्ता परिवर्तन की खबर आई थी, उसने लोगों में दहशत पैदा कर दी है । विपक्षी दल सरकार बदलने की उम्मीद रखते थे, लेकिन इस बार यह उचित नहीं था । सरकार का पूरा ध्यान कोरोना महामारी से निपटने पर केंद्रित होना चाहिए ।

सत्ता के खेल को जनता ने इस समय बहुत ही अस्वाभाविक रूप में लिया है । आज, कुछ अपवादों के बावजूद, नेपाल एकमात्र ऐसा देश है, जहां एक पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार एक आरामदायक बहुमत के साथ अपने स्वयं के कारणों से संकट में है । ऐसी स्थिति अब दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है । यदि देश, सरकार के परिवर्तन की ओर बढ़ता है, तो कोरोना नियंत्रण की स्थिति दूसरी प्राथमिकता बन जाएगी और प्राथमिकता स्वयं विकृत हो जाएगी । जिससे स्थिति और खराब हो जाएंगी । हालांकि अभी के लिए ये टल गई है लेकिन समस्या खत्म नहीं हुई है । इसे स्थगित कर दिया गया है । धुआं निकल रहा है, जब भी आग लग सकती है ।

इन घटनाक्रम दो–तीन आयाम हो सकते हैं । दुनिया भर में आपदाओं के दौरान, या जब महामारी होती है, या जब अन्य देशों के साथ आतंकवाद या अन्य मुद्दों पर युद्ध होता है, तब सरकारी कार्यवाही ‘सर्वस्वीकार्य’ होती है । उस समय, आम जनता सरकार के साथ अन्य स्थितियों की तरह अनुसंधान नहीं करती क्योंकि सब कुछ इमरजेंसी लेबल पर होता है । यदि आपको हथियार खरीदना है, तो आपको आपातकालीन कानून का उपयोग करना होगा, यदि आपको दवा खरीदना है, तो आपको आपातकालीन कानून का उपयोग करना होगा, यही पर अन्य आवश्यक चीजों को खरीदने के लिए आपातकालीन कानून का उपयोग करते हैं । उस में, राजनीतिक दलों को अधिक पैसा बनाने के लिए नेताओं को बड़े सौदे मिलते हैं यदि वे इस समय सत्ता में आते हैं और एक आयाम है कि इसमें कमीशन लिया जा सकता है ।
एक और आयाम यह है कि अगर सरकार लोगों की उम्मीदों के अनुसार वितरण नहीं कर सकती है । स्वाभाविक रूप से, विपक्षी दल और उनकी अपनी पार्टी के विपक्ष भी उस अवसर का उपयोग करते हैं । ऐसी स्थिति में, सरकार की कमियाँ ही उसकी कमजोरियों को उजागर करती हैं ताकि आम जनता को लगे कि यह सरकार संकट के समय में भी कुछ नहीं कर सकती । नेपाल के मामले में, सरकार बदलने के कई कारण रहे हैं, लेकिन अब अप्राकृतिक कारण सामने आए हैं ।

नेकपा को पता है कि मधेशी दल संविधान में संशोधन के लिए गंभीर नहीं हैं

हाल में मधेशी पार्टियों के टूटने की अटकले लग रही थी लेकिन मधेशी लोग चाहते हैं कि मधेशी पार्टियां एकजुट हों और एक पार्टी बना लें । लेकिन मुख्य रूप से मुख्यधारा की मधेशी पार्टी ने इस वास्तविकता को कभी नहीं समझा । लोग पार्टी एकीकरण चाहते हैं, इसलिए वे उस लाइन पर आगे नहीं बढ़े । पिछले चुनाव के समय उन्होंने यह मुद्दा तब उठाया जब यह थ्रेस होल्ड (३ प्रतिशत) पर आ गया । फिर भी, वे व्यक्तिगत हितों के कारण नहीं मिल सके, केवल पूर्वी मधेश में चुनाव में गठबंधन किया । यह लोगों के डर की वजह से नहीं था, बल्कि इस दहलीज के कारण उन्होंने चुनावी गठबंधन बनाया कि अगर अब हमें साथ नहीं मिला, तो हम खत्म हो जाएंगे ।

इसके बाद के दिनों में, एक ‘अंडर करंट’ की बात हुई, जैसे राष्ट्रपति बनाने की बात चली थी । जहां तक मधेशी पार्टियों का सवाल है, अगर प्रत्यक्ष राष्ट्रपति चुनाव होता है, तो हमें कांग्रेस या नेकपा का मतदाता होना पड़ेगा, इसलिए हमें साथ आना होगा । उस कारण से, राजेंद्र महतो ने एकता का मुद्दा उठाया । एक और बात सामने आई, मौजूदा चुनाव में थ्रेस होल्ड ५ प्रतिशत की सीमा बनी हुई है । उस समय भी, ५ प्रतिशत की बात थी, लेकिन कांग्रेस, तत्कालीनमाओवादी केन्द्र और एमाले ने ३ प्रतिशत की सहमति दी थी । सभी तीनों दलों ने इस बात पर सहमति जताई कि इसे बाद में पांच प्रतिशत कर दिया जाना चाहिए ।

मधेशी लोगों ने कई ऐसे सवाल तैयार किए हैं जिनका जवाब आने वाले चुनावों में देना पड़ेगा

मधेशी पार्टियों ने एकता का एहसास कराने के बारे में बात करना शुरू कर दिया कि अगर पांच प्रतिशत सीमा को बनाए रखा जाता है, तो हम खत्म हो जाएंगे । लेकिन उपेंद्रजी का सेटलमेन्ट क्या होगा, अशोक रायजी का सेटलमेन्ट क्या होगा, बाबूराम जी का सेटलमेन्ट क्या होगा, राजपा नेपाल के अध्यक्ष मंडल के नेताओं का सेटलमेन्ट कैसे होगा, किसका झंडा मान्य होगा, किसका चुनाव चिन्ह मान्य होगा ? इन बातो में उलझ कर एकता की बात आगे नहीं बढ़ रही थी ।

यदि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने पार्टी विभाजन कानून में संशोधन के लिए अध्यादेश पारित नहीं किया होता तो उनकी पार्टियों के बीच एकीकरण का मुद्दा किसी भी परिस्थिति में आगे नहीं बढ़ता । वे एकता के पक्ष में नहीं थे । प्रधानमंत्री ओली के अध्यादेश लाने के बाद, यह हमारी पार्टी को समाप्त कर देगा, इसलिए वे मिलने को मजबूर हुए है । लेकिन अभी तक एकता केवल कॉस्मेटिक एकता है । अब तक, एकता भौतिक नहीं हुई है । केवल एकता करने पर सहमति हुई है वह भी बाध्यतावश । इस अर्थ में कि एकता होनी चाहिए, यह एकता स्वाभाविक है, लेकिन जिन परिस्थितियों में यह हुआ, जिस इरादे से वे एकजुट हुए, वह स्वाभाविक नहीं है । वह अप्राकृतिक है । वे मजबूरी की परिधि में एक हो गए हैं । हालांकि, एकता के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है ।

जहां तक मैं देख सकता हूं, इसके दो लक्ष्य थे । एक तो मधेशवादी पार्टी निशाने पर थी जिसमे समाजवादी पार्टी को विभाजित करने के प्रयासों की पुष्टि होती है । जिसका लक्ष्य मधेशी पार्टी को नेकपा में विलय करना था और संसद में वर्तमान स्थिति से बेहतर स्थिति हासिल करना था । दूसरा लक्ष्य दो नंबर प्रदेश की सरकार को बदलना था । प्रचंड ने बार–बार यह मुद्दा भी उठाया था कि नेकपा की सात में से छह राज्यों में सरकार है और दो नंबर प्रदेश में भी सरकार कुछ समय बाद बनेगी । ओली ने भी इस मुद्दे को कई बार उठाया था ।

दूसरी ओर, इस अध्यादेश को नेकपा के भीतर डेढ़÷ दो महीने से चल रहे आंतरिक खेलों को निशाना बनाने के लिए लाया गया था । उसे बचाने के लिए, प्रधानमंत्री ओली ने मधेशवादी पर उंगली उठाई । अगर संवैधानिक परिषद में मुख्य विपक्षी दल के नेता को हटाने का अध्यादेश इस अध्यादेश से नहीं जुड़ा होता, तो नेपाली कांग्रेस जैसी पार्टी खुश होती कि मधेशी पार्टी अलग हो गई । लेकिन, प्रधानमंत्री ओली ने एक गलती की, उन्होंने संवैधानिक परिषद के अध्यादेश को भी इस अध्यादेश से जोड़ा । सरकार ने विपक्ष को कमजोर करने और मधेशी पार्टी को विभाजित करने के इरादे से अध्यादेश लाया था और देश में तानाशाही मानकर विरोध होने लगा था । मुझे नहीं लगता कि यह पूरे नेकपा की सोच से आया है । अगर ऐसा होता, तो नेकपा ने एक अलग तरीका अपनाया होता । मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री ओली ने अपनी इच्छा के अनुसार यह खेल खेला होगा । पार्टी की पिछली सचिवालय बैठक ने भी पुष्टि की है कि प्रधान मंत्री ने अपनी पार्टी में व्यापक चर्चा के बिना इस अध्यादेश को लाया । उसमें प्रधानमंत्री ओली ने खुद की आलोचना की ।

कई वर्षों से उपेंद्र यादव से मेरी बात नहीं हुई है । उनसे भेटघाट भी नहीं है । वे किसी कार्यक्रम में संयोग से मिलने पर भी बात नहीं करना चाहते । इसलिए, उसके साथ मिलने और बात करने की कोई संभावना नहीं है

सत्ता परिवर्तन के खेल को चीनी राजदूत की अप्राकृतिक सक्रियता से विराम लगा । चीनी राजदूत कुछ दिनों से बहुत सक्रिय थी । पार्टी के सचिवालय की बैठक से एक दिन पहले जिस तरह से चीनी राजदूत ने राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी से लेकर प्रधानमंत्री ओली और पार्टी के शीर्ष नेताओं प्रचंड और माधव कुमार नेपाल तक के नेताओं से मुलाकात की थी, उसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए । पहले चीन नेपाल के घरेलू विवादों में इस तरह सक्रिय नहीं था । उनकी सक्रियता के कारण, नेकपा में होने वाली अप्रत्याशित घटना टल गई । अस्वाभाविक रूप से, इसका कारण यह है कि भारत, जिसकी नेपाल में गहरी रुचि है, प्राकृतिक और अप्राकृतिक तरीके से अधिक से अधिक राजनयिक सक्रियता दिखा रहा है, यहां तक कि छोटी परिस्थितियों में भी । लेकिन चीन से कभी ऐसा नहीं देखा । नेपाल के आंतरिक मामलों या किसी भी पार्टी के बारे में चीन खुला नहीं था ।

जहां तक मैं समझता हूं, अध्यादेश के दौरान, भारतीयों को भी मधेशी दलों को एकजुट करने में गंभीर रुचि थी । वह मधेशी दलों के बीच निश्चित रूप से एकता चाहते थे । मुझे लगता है कि कई शक्ति प्रदेश न.दो की सरकार को गिरने से रोकने के लिए सक्रिय रूप से प्रयास कर रही है । चीन भी चाहता था कि कम्युनिस्ट नेपाल में एक मजबूत ताकत बना रहे । जब एमाले और यूसीपीएन (एम) का विलय हुआ, तो यह व्यापक रूप से अफवाह थी कि यह चीनी हस्तक्षेप के कारण था । चीनी भी उस एकता से खुश लग रहे थे । जब शी जिनपिंग नेपाल के दौरा पर आए थे तब भी इसके संकेत मिले थे । तथ्य यह भी है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सीपीएन (माओवादी) के साथ कुछ काम किया था, इस बात की पुष्टि भी करता है ।

जहाँ तक मधेश के संसदीय और गैर संसदीय दलों में एकता की बात हो रही है । ये अच्छा सुझाव है, बहुत पहले, पिछले मधेस आंदोलन के दौरान, राजेंद्र महतो और महंत ठाकुर जी ने मेरे नेतृत्व के तराई मधेस राष्ट्रीय अभियान के साथ मिलकर आगे बढ़ने की कोशिश की थी । हालाँकि, मैं संसदीय राजनीति में कानूनी रूप से अक्षम हूं । मुझे चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं है लेकिन कुछ दोस्तों ने मुझे साथ लाने की कोशिश की । जिसे उस समय उपेन्द्र यादव ने सपाट रूप से नकार दिया था । उस समय, उन्होंने व्यक्तिगत रूप से यह कहकर मेरा अपमान किया कि जेपी गुप्ता कौन है और जय प्रकाश गुप्ता भी राजनीति में हैं । अब उनके नजर में मुझे नोटिस में लेना, मुझसे सम्पर्क या सुझाव लेने लायक व्यक्ति नहीं रहा ।

कई वर्षों से उपेंद्र यादव से मेरी बात नहीं हुई है । उनसे भेटघाट भी नहीं है । वे किसी कार्यक्रम में संयोग से मिलने पर भी बात नहीं करना चाहते । इसलिए, उसके साथ मिलने और बात करने की कोई संभावना नहीं है । लेकिन राजपा नेपाल के नेताओं के साथ बातचीत होती रही है । इसी तरह, समाजवादी पार्टी के अन्य नेताओं के साथ समय–समय पर बातचीत हो जाती है । मुझे उनसे एक ही बात कहनी है कि समय के कसौटी पर खुद को सान्दर्भिक बनाने के लिए एक सामूहिक एजेंडा बनाए, मेरी बात को मानना या नहीं मानना ये उनके ऊपर निर्भर है । मैं ऐसे ही आगे बढूंगा जैसी कोई बात नहीं है । हालाँकि, मेरा ये प्रयास है की धीरे–धीरे मधेशी यह समझेंगे कि ये मधेसी दल कुछ भी नया देने की स्थिति में नहीं हैं । मधेश एजेंडा को आगे बढ़ाने की स्थिति में भी नहीं है । इसलिए यदि कोई सहज स्थिति हुई तो मैं सभ्य समाज और बुद्धिजीवियों के साथ चर्चा करके आगे बढ़ूंगा । अंततः, करना तो राजनीति ही है, और राजनीति का केंद्रबिंदु मधेश ही है ।

मुझे पूरा विश्वास है कि संविधान में तब तक संशोधन नहीं किया जाएगा, जब तक कि वर्तमान मतादेश और वर्तमान संसदीय ढांचा बना रहेगा । या तो मधेशियों को मधेश आंदोलन के माध्यम से सशक्त होना पड़ा या चुनावों के माध्यम से मधेशियों को सशक्त होना पड़ेगा । हम एक शक्ति के रूप में चुनाव से बाहर आने में सक्षम हुए और अगर हम संसद में संविधान के संशोधन के लिए ईमानदारी से काम करते हैं, तो मुझे लगता है कि यह संभव है । लेकिन वर्तमान संसद से संविधान में संशोधन की कोई संभावना नहीं है ।

यह स्पष्ट है कि सत्ताधारी दल और नेपाली कांग्रेस मधेश के एजेंडे में संविधान में संशोधन के बारे में ईमानदार नहीं हैं । लेकिन मधेशी पार्टियों ने संविधान में संशोधन को भीख का कटोरा बना दिया । वे इसके बारे में चिंता करने के बजाय, संविधान में संशोधन के बारे में बात करके, मधेशी लोगों को मात्र दिखाना चाहते है कि हम संविधान में संशोधन करने के पक्ष में हैं ।

और नेकपा को पता है कि मधेशी दल संविधान में संशोधन के लिए गंभीर नहीं हैं । समझ में आ जाता है कि उन्होंने ऐसा केवल सार्वजनिक उपभोग के लिए किया है कांग्रेस ने भी इसे समझा है । इसलिए, वे संविधान के संशोधन के लिए मधेशी पार्टी का समर्थन करने के पक्ष में नहीं थे । अब, मधेशी पार्टी संविधान में संशोधन के मुद्दे को उठाने से कतरा रही है । मधेशी लोगों ने कई ऐसे सवाल तैयार किए हैं जिनका जवाब आने वाले चुनावों में देना पड़ेगा । आगामी चुनाव में, मधेसी पार्टी सिर्फ एक आंदोलनकारी नहीं होगी, उसे सत्तापक्ष के रूप में चुनाव में जाना होगा और लोगों का सामना करना होगा । यही वास्तविकता है, यही यथार्थ है ।



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