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बीमार राजनीति को अब युवाओं को सौंपना होगा : कैलाश महतो

कैलाश महतो, हिमालिनी, अंक अगस्त 2020 । समाचार सूत्रों के अनुसार संसोधित नेपाल के संविधान में समेटे गये कालापानी, लिपुलेक और लिम्पियादुरा भूभाग को समेट कर तैयार किया गया नेपाल के नये नक्शे को प्रमाणीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में नेपाल द्वारा दिये गये निवेदन को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अस्वीकार कर दिया है । जैसा कि स्यामुअल जोन्सन ने कहा है कि राष्ट्रवाद आततायी पागलों का अस्त्र होता है, वह नेपाल ने प्रमाणित कर दिखाया है ।
राष्ट्रवाद खुद में एक प्रश्न है । उसमें भी घोर राष्ट्रवाद खस शासकों का अत्याचार करने का अपराधपूर्ण साधन है । जब शासकों में कुशासन और आर्थिक व्याभिचार का नशा चढता है तो वह राष्ट्रवाद को अपना हथियार बना लेता है । वैसे राष्ट्रवाद होता ही नहीं है । अगर राष्ट्रवाद है भी तो वह प्रत्यक्ष रूप से जनता से सम्बन्ध रखता है । जनता से बडा कोई राष्ट्र नहीं होता । राष्ट्र के बिना कोई देश भी नहीं हो सकता । जनता ही राष्ट्र है, और देश जनता के आवश्यकता के लिए बनता है । जो देश जनता की आवश्यकताएँ पूरा नहीं कर पाता, वह कतई सफल देश नहीं हो सकता ।

सन् १९४९ से सन् १९५५ तक नेपाल देश के रूप‌ में मान्यता पाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में लगातार निवेदन देता रहा । मगर संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अहम् सवाल ‘नेपाल के अन्दर कोई विवादित भूमि तो नहीं है ? उसका प्रमाण लाए’ प्रश्न का ठोस जबाव नेपाल द्वारा न दिये जाने के कारण वह देश का मान्यता पाने में असमर्थ होता रहा । दूसरा सबसे बड़ा कारण यह रहा कि नेपाल अपना राजनीतिक नक्शा भी संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने पेश करने में असमर्थ रहा । आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ में नेपाल का राजनीतिक नक्शा उपलब्ध नहीं है, भले ही उसने लिखित रूप में नक्शा का जिक्र किया है जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ सन् १९५५ दिसम्बर १४ तक भी नहीं मान रहा था । मगर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के पहल और व्यक्तिगत जुगाड पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने नेपाल को एक सार्वभौम देश का मान्यता प्रदान कर दिया ।

भारत की एक छोटी सी गलती और भावनात्मक दोस्ताने के कारण मधेश नेपाल‌ का उपनिवेश बन गया और भारत के लिए मधेश नेपाल मामले में प्रयोग का केवल एक साधन बन गया । भारत ने जब–जब चाहा, मधेश कार्ड को प्रयोग करके खश शासकों से अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता रहा । भारत आज भी मधेश को प्रयोग ही करने में अपनी सफलता मानता है जबकि मधेश दास और गुलाम बनकर खून का आंसू रोता रहा है । मधेश भारत के नाम पर ही दुत्कारित, प्रताडि़त, अवहेलित, शोषित और अतिक्रमित है । मधेशी न तो नेपाली बन पा रहा है, न वह भारतीय सहयोग पा रहा है ।

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इधर नेपाल ने जो बहादुरी दिखाने का प्रपंच रचा है, वह बिल्कुल खोखला प्रतीत हो रहा है । जिस शानो शौकत के साथ पुराने नेपाल के नक्शे के साथ कालापानी, लिपुलेक और लिम्पियाधुरा सहित का नक्शा संयुक्त राष्ट्र संघ में पेश किया था, वह अस्वीकृत हो गया है । वह तो लज्जा और हार की बात है ही, साथ में इस बात को इंकार नहीं किया का सकता कि संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्तर्राष्ट्रीय अदालत द्वारा समेत मुद्दा जीतने के बाद भी यह जरूरी नहीं कि भूमि को वापस कर ही लिया जा सकता है । फिलिपींस की भूमि एक ताजा उदाहरण है जिसे अन्तर्राष्ट्रीय अदालत के फैसले के बावजूद चीन उसके भूमियों को स्वतंत्र करने को राजी नहीं है । इस अवस्था में नेपाल का अब भूमीय रूप‌ से तो फंसने के आसार तो है ही, अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक द्वन्द्व समेत का शिकार होना तय है जिसका खामियाजा देश के समान्य जनता को भुगतना निश्चित प्रायः है । मधेश उसका पहला शिकार होगा ।

एक तरफ नेपाल अपने आन्तरिक राजनीतिक द्वन्द्व में बेहाल है, वहीं दूसरी तरफ सरकारी सत्तायी अन्तरद्वन्द के मकर जाल में हायलकायल है । अब देखना यह है कि नेपाल आन्तरिक लफड़ों से लेकर बाहरी रस्साकस्सियों से निजात कैसे पाता है । जी न्यूज की मानें तो परराष्ट्र मन्त्री प्रदीप ज्ञवाली ने कहा है कि भारतमुखी होने का नेपाल ने परिणाम देख लिया है । अब नेपाल इस पर भी गम्भीर होने की सोच में है ।
जो विषय वस्तु अन्वेषकों का होना चाहिए, उस पर देश के प्रधानमंत्री जैसे लोग द्वारा अनर्गल वक्क्तव्यबाजी होना दुर्भाग्य की बात है । पर्सा जिला के किसी अयोध्या में राम का जन्म होने, राम और सीता दोनों नेपाली होने, त्रेता युग में टेक्नोलाजी के विकास बिना ही जनकपुर की खबर अयोध्या पहुँचने की बात असंभव होने, हजार किलोमीटर के इर्दगिर्द का रास्ता पार करना नामुमकिन होने जैसी बात जब एक प्रधानमंत्री करें तो उन्हें इस बात पर संदेह क्यों नहीं होता कि तकरीबन ३, २०० किलोमीटर की दूरी पार करके भृकुटी तिब्बत कैसे पहुँची, तिलौराकोट से पैदल चलकर सिद्धार्थ गौतम गया, श्रावस्ती, बनारस, अयोध्या, फिर पिता के देहान्त पर कपिलवस्तु कैसे पहुँचे ? केदारनाथ से काठमाण्डौ, कैलाश मानसरोवर आदि स्थानों पर भगवान शंकर कैसे पहुँचे ? हस्तिनापुर और कुरु से पाण्डव मोरंग के विराट राज्य और किचकबद्ध जैसे स्थानों पर कैसे पहुँचे ? मगध सम्राट अशोक अपने राज्य से लुम्बिनी और काठमाण्डौ कैसे पहुँचे ? हजारों मिल दूर से भारत पर आक्रमण करने सिकन्दर, डच, पोर्चुगल, इटालियन, फ्रेन्च आदि लोग कैसे उस जमाने में पहुँचे जिस जमाने में जंगलों की कतारें थी । राह बने नहीं थे । आज के साधन थे नहीं ? टेक्नोलाजी थी नहीं । जहाँतक उस समय में आज के जैसे टेक्नोलाजी न होने की बात है, तो प्रधानमंत्री जी को यह जानकारी रखनी चाहिए कि उस समय के ऋषि मुनियों ने अपने ग्रन्थों में जिन यन्त्रों का सूत्र लिखा है, आज का सम्पूर्ण टेक्नोलाजी उन्हीं सूत्रों पर आधारित हैं ।

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मैं किसी देवी देवता के पक्ष या विपक्ष में नहीं हो सकता । सवाल वहाँ भी हैं और किये जा सकते हैं । मगर जब बात दूरी तय करने की है तो राम से भी ज्यादा दूरी तय भृकुटी और अरनिको जैसे हस्तियों ने की थीं । वहाँ प्रधानमंत्री जी क्या कहेंगे ?

पार्टी वाले नेता कार्यकर्ता और उनके प्रधानमंत्री चाहे जितना भी बकें, मगर सत्य यही है कि देश में केपी ओली के नेतृत्व में हत्या, बलात्कार, लूट खसोट, भ्रष्टाचार, अनियमितता, घुसखोरी, दमन, अत्याचार, अपहरण, राजनीतिक व्यभिचार, आर्थिक घोटाले, मानव बेच विखन, कोरोना अत्याचार, कोरोना भ्रष्टाचार और शाब्दिक उटपटाङ्गी हरकतों से केपी ओली और उनकी सरकार तो जनआक्रोश का शिकार होने ही वाले थे, आने वाले समय में नेकपा का भविष्य और अस्तित्व दोनों संकट के घेरे में थे । नेकपा पार्टी पंक्ति ही गंभीर परिस्थिति में फंसे हुए थे । मगर कालापानी क्षेत्रों से कैलाश मानसरोवर जाने वाली सड़क का उद्घाटन भारत ने क्या कर दिया, केपी ओली और उनके सरकार विरुद्ध में हो रहे सारा आन्दोलन कालापानी से जुड़कर गायब हो गयीं और राष्ट्रवाद का नारा ओली जी के नाम से जोड़कर उन्हें राष्ट्रवाद का जामा पहना दिया गया । नेपाली जनता अब ओली जी को फिर से अपना हीरो मानने की गंभीर भूल कर रही हैं ।
सत्ता के कारण उत्पन्न झगड़े चाहे जैसे भी हों, राजनीतिक उहापोह और चरित्र नेपाल के सारे पार्टियों का एक जैसा ही है । नेपाल का एक भी राजनीतिक दल में राष्ट्रीय चरित्र नहीं दिख रहा है । मधेश आधारित राजनीतिक दलों पर क्षेत्रीय दल होने के आरोप लगाने वाले नेपाली काँग्रेस, नेकपा, राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टियों से लेकर राणाकाल, पंचायत काल, संवैधानिक राजतंत्र काल या फिर गणतांत्रिक लोकतंत्र की काल ही क्यों न हो, सब में क्षेत्रीयता, नश्लीय चिन्तन और वंशीय कार्यशैलियां रही हैं । अगर वे राष्ट्रिय होते तो क्षेत्र, नश्ल और वंश के अधार पर राज्य संचालन नहीं करते ।

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एक तरफ खस पार्टियाँ राष्ट्रीय मार्ग को अवलम्वन करने में जहाँ असफल और नियतखोर रही हैं, वहीं मधेश के नामपर राजनीतिक रोटियां सेकने‌ वाले पार्टियाँ आज राष्ट्रीय होने का दिवा स्वप्न देख रही हैं । राष्ट्रीय पार्टी बनने के कारणों को अगर शल्य चिकित्सा के आधार पर परखा जाय तो नतीजा सामने यही आता है कि नेपाल के सारे खस पार्टियों के साथ ही राष्ट्रीय पार्टी बनने के गलियारों से देश में उनके द्वारा किये भ्रष्टाचार, अनियमितता और जनद्रोह वाले काले कारनामों पर सफेद चादर ओढने से ज्यादा और कुछ भी नहीं हो सकता ।
देश के नव युवाओं को अब निश्चित और निश्चल होकर इस आन्दोलन पर जोर देना जरूरी है कि अब राज्य सत्ता के आगोश में रहे सारे नेता और नेतृत्व राज्य सत्ता और शासनावस्था से पूर्णतः विदा लेकर राज्य का सारा जिम्मेवारी नये युवाओं में प्रत्यार्पण करें । ऐसा नहीं होता है तो युवाओं को अब नेताओं को राज्य व्यवस्था से हटाना होगा, उनकी सारी सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण करने और उन्हें देश निकाला करने का क्रान्तिकारी आन्दोलन करना होगा । ‘देश छोडो या राजनीति रोको ।’

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