*मैं और मेरी परछाईं* : मंजू उपाध्याय
*मैं और मेरी परछाईं*
एक दिन मैं,एक कोने में बैठी,
अपने आप से बातें कर रही थी।
तभी मैनें कुछ आहट सुनी,
मैनें पूछा , कौन है ।
उसने पूछा , तुम कौन हो,
मैनें कहा एक ‘ मां ‘ हूं।
फिर वही आवाज आयी,
तुम्हारी अपनी पहचान क्या है ?
तूने कभी सोचा है ।
ये तुम्हारी पहचान सिर्फ एक नाम है,
जो तुम्हें किसी और से मिला है ।
और वो (परछाई) जाने लगी,
मैनें पूछा ,अब बता भी दो,
तुम कौन हो , कहां से आयी हो ?
वह बोली,मैं तुम्हारी परछाईं हूं,
तुम्हारी तुमसे से पहचान कराने आयी हूं।
उठो,और स्वयं अपनी पहचान बनो,
दुनिया को दिखाओ ।
तुम्हारी भी है अपनी पहचान,
तुम भी बदल सकती हो जहान।
तुम किसी के नाम की क्यों रहो मोहताज ?
तुम्हारे सर पर भी सज सकता है ताज ।

शोधार्थी , हिंदी विभाग ,
मुंबई विश्वविद्यालय
मुंबई , 400098

वाहह्ह्ह …
अत्यंत सुन्दर अभिव्यक्ति है आपकी आदरणीया मन्जु जी।👏👏👏👏👏
धन्यवाद जी
बहुत बहुत धन्यवाद जी
उठो,और स्वयं अपनी पहचान बनो,
दुनिया को दिखाओ… – बहुत अच्छी पंक्तियां। बधाई हो मंजू जी
सुमन जी आपका बहुत बहुत आभार