ओलीवाद नहीं, नेपालीवाद चाहिए : अजय कुमार झा
हिमालिनी मार्च २०२१ अंक | नेपाली जनता ने स्वदेशी राष्ट्रवादी महेन्द्रवाद और समाजवादी वी ।पी । वाद ‘समाजवाद के प्रति वीपी का मोह भारत के जयप्रकाश नारायण जी से निकटता का ही प्रमाण है । विश्व में कम्युनिस्टों के बोलवाला के कारण समाजवाद शब्द के उच्चारण से ही कम्युनिस्ट होने की उपाधि मिल जाति थी । इस हालत में अपने को कम्युनिस्ट से अलग प्रमाणित करने के लिए राजनीतिक विद्वान लोग समाजवाद में ‘प्रजातान्त्रिक’ विशेषण जोड़कर बोला करते थे । स्वयं वी पी कोइराला भी प्रजातान्त्रिक समाजवाद का नारा देते हुए कहते थे कि, साम्यवाद में प्रजातंत्र जोड़ देने से वह समाजवाद बन जाता है, और समाजवाद से प्रजातंत्र को हटा दिया जाय तो वह साम्यवाद हो जाता है ।’ के कड़वे स्वाद के साथ अच्छी तरह से अनुभव करने के वाद २०४६ के जन आंदोलन से स्थापित लोकतंत्र में तात्कालिक जनप्रिय राजा वीरेंद्र के सौम्यता और देश के लिए अपनी प्राण न्योछावर करनेवाले लौह पुरुष गणेश मान सिंह (नेपाली राजनीतिक इतिहास में प्रधानमंत्री के पद को सहजता से अस्वीकार करने वाले प्रथम महानायक) के उदारवाद के साथ साथ कृष्ण प्रसाद भट्टराई, ‘जिन्हें भारत ने डा ।
जैसे महान पदवी से सम्मानित किया’ के व्यावहारिक राजनीतिक आदर्श के कारण एक सुमधुर स्वर्ण युग की कल्पना में रमने ही वाले थे कि’ अपनी ही सरकार और अपनी ही प्रधानमंत्री को हराने वाले आत्मघाती गिरिजा प्रवृत्ति ने राजनीति और सत्ता दोनों को दबोच लिया’ जिससे नेपाल में द्रुतगति से निर्माण हो रहे प्लेटो के ‘आइडियल स्टेट’ के परिकल्पना को भस्मीभूत करते हुए महा भस्मासुर प्रवृत्ति माओवाद को पनपने के लिए सुअवसर प्रदान कर दिया । यही वह घड़ी थी जब नेपाल विदेशियों के निर्देशन पर अपनों के साथ खूनी संघर्ष में रमकर खुकुरी वीर के पदवी को कम्प्यूटर युग में भी बरकरार रख, अपने ही हाथों अपनी भविष्य को झूठे क्रान्ति के अग्नि में भस्म कर डाला ।
इस माओवादी महायज्ञ के अग्नि में १७ हजार नेपाली युवाओं की ही बलि नहीं दी गई बल्कि इसी कालखंड में एक सभ्य, सुशिक्षित, सौम्य तथा जनता के अराध्य राजा वीरेंद्र सहित पूरे वंश को नष्ट कर दिया गया, जिसका परिणाम आज आम नेपाली जनता को भुगतना पड़ रहा है । उस समय अमानवीय भस्मासुरों को अपनी ही संतानों के बीच महाभारत रचाकर शान्ति नोबेल पुरस्कार पाना था, तो किसी को राजगद्दी पर आसीन होकर अपने पिता के साथ किए अपमान का बदला लेना था । ज्ञातव्य हो; ‘राजा के द्वारा शासन प्रशासन के क्रम में अवरोध पैदा करने पर बहुतों को दण्डित किया गया था । देश निकाला भी किया था ।’ वैसे आज इन महाराजाओं के शासनकाल में विरोध करने पर सीधे माथे में ही गोली मार दी जाती है । इन्हे इसका भी ध्यान रखना चाहिए था ।
नेपाल के प्रचण्ड पथ जो २१ हजार नेपाली युवाओं के लाश पर तथा लाखों नेपालियों के भावनाओं को कुचलकर निर्माण किया गया है; माओवाद के आदर्श को तो नहीं अपना सका लेकिन उद्दंडता और क्षुद्र मनमौजी संस्कार को नेपाली राजनीति में अवश्य स्थापित कर दिया । राजनीतिक संस्कार को हद से नीचे धकेल दिया गया है । आज के राजनीति का आदर्श ही झूठ बोलना, झूठा वादा और समझौता करना, राष्ट्रीयता और स्वधर्म को बेचकर भी सत्ता हासिल करना हो गया है ।
वर्तमान प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने यहीं अपनी राजनीतिक दृषटिकोण में परिवर्तन लाया है । माओवाद के तूफानी राजनीतिक प्रचार प्रसार और झूठे वायदे को सत्य प्रमाणित करने के झूठे तरीके को उसी के भाषा में प्रयोग कर आज राजनीति भिखारी के रूप में लाकर खड़ा कर दिया है । मधेसी विरोधी राष्ट्रीयता ने नेपाल के पहाड़ी और हिमालय क्षेत्र में ओलिवाद के शक्तिशाली शस्त्र और शास्त्र के रूप में पिछले चुनाव में काम किया । इस उग्र राष्ट्रवाद के आंधी में माओवादी, कांग्रेस लगायत के अन्य सभी पार्टियों की जड़े भी हिल गई । लेकिन इसी के प्रतिक्रिया में मधेशवाद भी जीवंत हो उठा, और मधेसी पार्टियों को बड़ी सहजता से कांग्रेस कम्युनिस्ट को जड़ से उखाड़ फेकते हुए अद्वितीय विजय प्राप्त हुआ ।
मधेसियों के विजय के पीछे ओली के दूरगामी राजनीतिक दृष्टिकोण ही काम कर रहा था । जैसे नेपाल में हिन्दुओं की संख्या को कम दिखाने के लिए हिन्दू धर्म के भीतर छुपे प्रकृति पूजक, आर्य, सनातन आदि को अलग धर्म के रूप में घोषित कर बांटकर हिन्दुओं के समग्र जनसंख्या को कम दिखाने का षड़यंत्र होता आया है । इसी तरह कांग्रेस के गढ़ रहे मधेश को उससे छीनने के लिए मधेश विरोध आंधी को निर्माण कर कांग्रेसियों को मधेसी के विरुद्ध पहाड़ में बोलने पर मजबूर कर दिया तो इधर मधेसियों के भीतर पहाडि़यों के प्रति घृणा के बीज बो कर कांग्रेसी को उसका शिकार बना दिया गया । यही वह ओलीवाद है जिसे आजतक कांग्रेसियों और मधेसियों ने समझने का प्रयास तक नहीं किया है ।
इस विषय को गंभीरता से लेने पर यह राष्ट्रद्रोही कदम ही जान पड़ेगा । राजनीति का हर निर्णय राष्ट्र और जनता के दूरगामी हित मे ही होना चाहिए, जबकि नेपाली नेताओं ने (आदरणीय गणेश मान सिंह और कृष्ण प्रसाद भट्टराई) जी को छोड़कर आजतक जो भी निर्णय किया है वह सब के सब व्यक्ति लाभ तथा पार्टी के वर्चस्व के लिए किया है । नेपाली कांग्रेस में गिरिजावाद ने जो राजनीतिक संस्कार को नीचे गिराया वह संस्कार करीब–करीब सभी पार्टी और केंद्रीय नेतृत्व में कूट–कूटकर भरा हुआ है, जो नेपाली राष्ट्रीयता के लिए महाघातक है । यही वह वायरस है जिसने नेपालियों को भ्रष्ट होने के लिए मजबूर किया है ।
पैसा में अदभुत शक्ति का दर्शन करने वाले हमारे मूढ़ सत्ताधारियों को देश लूटने मे ही गौरव और महानता दिखाई देता है । उन्हें पैसों से मंत्री पद को खरीदना है । सचिव पद को पाना है, और पदासीन होने के वाद ब्याज सहित असुल करना है, इसके लिए उन्हें देश को ही क्यों न बेचना पड़े । अपने अस्तित्व को ही क्यों न बेचना पड़े । वो सबकुछ बेच सकते हैं, क्योंकि उनको संरक्षण करने के लिए देश के सर्वोच्च शक्ति तैयार है । यहीं से उन्हें वह मनोबल प्राप्त होता है, जिससे वो सोना को पीतल बना देते हैं, भ्रष्ट को मंत्री पद का उपहार देकर समाज में छाती तानकर चलने का साहस बना देते हैं । मित्रों ये हैं हमारे भविष्य निर्माता, देश निर्माता, नेपाल को सिंगापुर बनानेवाले महामानव । खैर, हमें क्या लेनादेना, हम तो मानसिक रूप से खुश हैं क्योंकि “ओली ने मधेसी के मरने पर दो चार आम पेड़ से झड़ जाय तो क्या फर्क पड़ता है अरे ! ये तो मक्खियों की पंक्ति है । आदमी का थोड़े ही है ।”
यही राजनीतिक महाग्रंथ की महावाणी थी जिससे उत्साहित होकर मधेसी विरोधी शक्तियों ने दिल खोल कर ओली के पक्ष में मतदान किया था, और इसी के अहम से चूर होकर प्रचण्ड को बंदर की तरह नचा रहा है । शायद प्रचण्ड ने अभी भी इस तत्व की गहराई से समझने की आवश्यकता को महसूस नहीं किया हो ।
वर्तमान नेपाल के अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक ओली पथ के समर्थक देखे जा रहे हैं । प्रचण्ड का लड्डू भी उनको तीता लग रहा है । निष्पक्षता के खोल ओढ़े ऐसे अनेकों विश्लेषक के भीतर मधेसी विरोधी नेपाली राष्ट्रवाद के उग्ररूप को विस्फोट होते सहजता से देखा जा सकता है । हमारी संस्कृति, सभ्यता और धर्मग्रन्थों ने हमें महिलाओं को देवी के रूप में पूजना सिखाया है । भूख के लिए अन्नपूर्ण, ज्ञान के लिए सरस्वती, धन वैभव हेतु लक्ष्मी और शक्ति के लिए दुर्गा को आह्वान करने की हमारी अद्वितीय परम्परा रही है । परन्तु आज हम कागज के देवी को तो पूजते हैं लेकिन जीवंत बेटियो को गर्भ में ही नष्ट कर देते हैं ।
गर्भ से बच गई तो निर्मला की तरह बलात्कार कर मार दिया जाता है, और ओली सरकार उल्टे पीडि़त पक्ष को ही प्रताडि़त करती है । वी पी कोइराला के बाद सबसे अधिक शक्तिशाली प्रधानमंत्री के रूप में जनता ने ओली को ही चुना है । लेकिन जनता के एक भी वादा को पूरा नहीं किया है, लेकिन पुनः वोट मांगने जनता के द्वार पर दस्तक देने पहुंच गए । लाखों नागरिक ओली के समर्थन और विरोध में सड़क पर उतर गए, चक्का जाम किया गया, बंद हड़ताल की गई, सर्वोच्च अदालत को प्रभावित करने का खेल खेला गया । दोनों पक्षों के वकील और राजनीतिक विशलेषक एड़ीचोटी एक कर दलीलें देते रहे, सर्वोच्च ने संविधान को आधार मानकर सरकार के विपक्ष में फैसला सुनाया, लड्डू वितरण किया गया, विजय जुलूस के साथ सिंदूर यात्रा निकाला गया, फिर आंखे ऊपर उठी तो देखा कि प्रधानमंत्री के कुर्सी पर अभी भी ओली ही विराजमान है । मायूसी निश्चित थी । प्र म ओली की गर्जना आज भी जारी है, और जनता द्वारा तालियों के गड़गड़ाहट से स्वागत भी जारी है । इस बीच जो खो गया है वह है, चुनाव के समय जनता के साथ किए गए वादे और इस तीन वर्ष में किए हजारों गलतियां, भ्रष्टाचार, बलात्कार, हिंसा, देश वेचूआ निर्णय, कालापानी और लिम्पियाधुरा, नेपाल के नक्सा आदि आदि ।
वास्तव में यह सारा खेल जनता के मन मस्तिष्क में बैठे उन वादों और अपनी असफल कार्यकाल तथा राष्ट्राघती निर्णय को भुलाने के लिए ही रचा गया है । जिसमे नेकपा सफल होता दिख रहा है । इस खेल में भारी असफलता जिसको हाथ लगनेवाली है, वह है जसपा; बाबूराम के चपेटे में आकर उसने उस आंदोलन में सहभागिता दिखाया जिसका विरोध करके वो लोग सांसद बने थे । उन मधेसी शहीदों को अपमानित किया जिन्होंने संविधान संशोधन के लिए अपनी प्राण न्योछावर कर दी । उन सारी मुद्दों को दरकिनार कर सत्ता के गलियारों में खुद को स्थापित करने का प्रयास किया; तात्कालिक सफलता असफलता अपनी जगह है, लेकिन दूरगामी असफलता निश्चित होता दिख रहा है ।
स्वयं ओली १४ वर्ष तक जेल काट चुके हैं ।
उन्हें कूटनीति के सभी स्थानीय दावपेंच पता है । किसी समय एमाले के लिए भीषण संहारक रहे माओवाद कैसे एमाले से एकता के गठबंधन में बंध गया यह अपने आप में आश्चर्यजनक घटना है । राजनीति में सबकुछ संभव है; ऐसा कहने वाले हजारों मिल जाएंगे, लेकिन जिस प्रचंड ने बाबूराम जैसे अपने बौद्धिक बर्ग को भी लात मार दिया हो, प्राण न्योछावर करने वाले अपनी लड़ाकुओं के सम्पत्ति में भी कमीशन ले लिया हो, विदेशी के निर्देशन पर हजारों स्वदेशी को मारकर गौरव अनुभव किया हो, वादा तोड़ना जिसकी फितरत रही हो, उसके साथ ओली ने जो भी किया है वह बहुत कम है । ओली के पद न छोड़ने का निर्णय और अड़ान वास्तव में दूरदर्शी कदम है । शायद यही कारण है कि नेपाल के अधिकांश बौद्धिक वर्ग प्रम ओली के तात्कालिक समर्थन में दिख रहे हैं ।
प्रजातंत्र और पार्टीतंत्र शब्द का अर्थ और भाव लगभग पर्यायवाची हो गया है । जिस प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार नहीं है वहां किसी भी प्रकार की सुविधा मुहैया कराने की आवश्यकता नहीं, यह पार्टीतंत्र के मौलिक आदर्श है । इस कड़ी मे नेपाल के प्रदेश नंबर दो में मधेसियों की सरकार होने के कारण सरकार को दलित बनाने का हर संभव प्रयास किया जाना, संघीयता के विरुद्ध हवा फैलाना, देश को लूटकर बेरोजगारी बढ़ाना, बेरोजगारी भत्ता के नाम पर भयानक झूठ का प्रचार करना, रोजीरोटी विहीन लोगों के द्वारा किए गए प्रदर्शन के ऊपर निर्दयता पूर्वक लाठी बरसाना, अपनी पार्टीगत कार्यकर्ताओं को छोड़ बाकी आम नागरिक के साथ क्रूरतम तरीके से पेश आना ओली बाद का प्रमाण है । संविधान में संशोधन कर मधेसियों को सम्मानित करने के बजाय संघीयता को ही नष्ट करने का षड़यंत्र रचना गणतंत्र का नहीं राजतंत्र का संकेत करता है । वही ओलीवाद राजतंत्रात्मक शासन शैली के इर्दगिर्द घूमता हुआ दिखाई देना आम बात है । होली वाइन के प्रेमी कब पशुपति नाथ के भक्त बन जाते हैं, यह कम्युनिस्टों के शास्त्र मे हीं खोजना पड़ेगा । हर हाल में सत्ता में रहना और आम नागरिक को गरीबी के दलदल से कभी भी निकलने न देना यही गरीबों के मसीहा कम्युनिस्ट का मूल शासकीय स्वरूप है । बगल में चीन और उत्तर कोरिया के जनता के जीवन स्तर को देख सकते हैं ।
इन सबके बावजूद हम विशुद्ध राष्ट्रवादियों को अपनी मौलिक गरिमा तथा महिमा के रूप में विश्वविख्यात २५०० वर्ष पुराना गौतम बुद्ध के द्वारा प्रदर्शित अष्टांगिक सम्यक् मार्ग को हृदयंगम करते हुए आगे बढ़ने की जरूरत है । सम्यकवाद ही राजनीति का सर्वोत्तम मार्ग है । इसका ज्ञान नेपालियों को न होना उसका दुर्भाग्य तो है ही, साथ ही देश का भी दुर्भाग्य है । अपने ही पूर्वजों के द्वारा स्थापित विश्व प्रसिद्ध अकाट्य जीवन पद्धति को नजरंदाज कर दो कौड़ी के विदेशी विचारक मार्क्स और माओ को पूजना देश के गद्दारी के साथ खुद को भी दो कौड़ी का साबित करना है । हम आम नागरिक को इस विषय पर खुलकर चर्चा करने की जरूरत है । हर किसी के हाथों में हम अपना भविष्य सौपकर खुद को नपुंसक ही साबित किया जा रहा है । अतः अब सोसल मीडिया के माध्यम से ही सही, लेकिन हमे आगे आना ही होगा । घटिया संस्कार से प्रभावित राजनीति को बाहर निकालना होगा । दो कौड़ी के वैदेशिक विचारधारा से प्रभावित तुच्छ नेताओं से देश को मुक्त करना होगा । विवेक और संतुलन ही मानवता को पोषित और संरक्षित कर सकती है, यही हमे गंतव्य तक पहुंचा सकती है और यही हम उच्च कोटि के मानवों के लिए आदर्श बन सकता है ।