गिरिशचन्द्र लाल : जिनके एक निर्णय से नेपाल में संघीयता सुरक्षित हो पायी
‘प्रजातन्त्र आज भी नहीं है’
कानूनी क्षेत्र में चिर–परिचित नाम है– गिरिशचन्द्र लाल । आप सर्वोच्च अदालत के पूर्व न्यायाधीश हैं । आप का जन्म सन् १९५१ जनवरी में महोत्तरी जिला जलेश्वर नगरपालिका स्थित सुगा गांव में हुआ है । स्व. उदित नारायण लाल और भुवनेश्वरी देवी के आप जेष्ठ सुपुत्र हैं । आप सिर्फ एक सफल वकील और न्यायाधीश ही नहीं हैं, प्रजातान्त्रिक विचारधारा के राजनीतिक चिन्तक भी हैं और लोकतान्त्रिक संघर्ष में सहभागी होने के कारण जेल का अनुभव भी आप को प्राप्त है । लेकिन आप कभी भी सक्रिय राजनीति में नहीं रहे और ना ही रहना चाहते हैं । सर्वोच्च अदालत में न्यायाधीश के रूप में रहते वक्त आप ने एक ऐसा महत्वपूर्ण निर्णय किया, जिसके चलते आज नेपाल में संघीय लोकतान्त्रिक गणतन्त्रतामक शासन व्यवस्था सुरक्षित है और इसको संस्थागत किया जा रहा है । हिमालिनी ‘जीवन–सन्दर्भ’ के विशेष कॉलम में प्रस्तुत है– पूर्व न्यायाधीश गिरिशचन्द्र लाल जी का जीवन अनुभव उनकी ही जुबानी–
बाल्यकाल और शिक्षा
मेरा बचपन सुगा गांव में ही बीता है । लेकिन स्कूली शिक्षा जनकपुर स्थित सरस्वती हाई स्कूल से हुई । क्योंकि मेरे पिता स्व. उदितनारायण लाल जी एक सरकारी कर्मचारी थे, वह जनकपुर में रहते थे । स्कूल जीवन खतम होने के बाद मैं कॉलेज पढ़ने के लिए मधुबनी (भारत) चला गया । मधुबनी स्थित आरके कॉलेज से मेंने आईएससी पास किया । उसके बाद मुजफ्फरपुर के एलएस कॉलेज से बीएससी (म्याथमेटिक्स में ऑनर्स) किया और काठमांडू स्थित त्रिभुवन विश्वविद्यालय से सन् १९७४ में मैंने बीएल (कानून) की परीक्षा पास की । जब काठमांडू में कानून की पढ़ाई कर रहा था, उस समय मैं भीमसेन स्थान स्थित परोपकार स्कूल में विज्ञान शिक्षक के रूप में कार्यरत था । साथ में गणित विषय को भी पढ़ाता था । मैंने ४ साल तक परोपकार स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया । रात्रि कक्षा (शाम के समय में) कॉलेज जाता था ।
वकालत की शुरूआत
उस समय कानून के क्षेत्र में चिर–परिचत कृष्णप्रसाद भण्डारी, गणेशराज शर्मा, मुकुन्द रेग्मी जैसे व्यक्तित्व मेरे गुरु थे । मुख्य रूप में मेरे गुरु रामराजा प्रसाद सिंह जी थे, जिनके साथ मैं वकालत करता था । मैंने वि.सं. २०३४ साल में काठमांडू से वकालत शुरू किया है । महेन्द्रनारायण निधि, महेश्वरप्रसाद सिंह जैसे नेताओं का आग्रह मानते हुए बाद में मैं जनकपुर चला गया । जनकपुर मेरे लिए अनुकूल भी रहा, क्योंकि मेरी स्कूली शिक्षा जनकपुर में ही हुई थी और वहां से गांव भी नजदीक था ।
वकालत के ही सिलसिले में धनुषा, महोत्तरी और काठमांडू आना–जाना होता रहता था । लेकिन अधिकांश समय (वकालत पीरियड) मैं जनकपुर में ही रहा । वकालत के ही दौरान वि.सं. २०४८ साल में मेरी नियुक्ति पुनरावेदन अदालत विराटनगर में हुई । उसके बाद वि.सं. २०५१ साल में नेपालगंज, हेटौडा, पोखरा, ललितपुर होते हुए मैं वि.सं. २०६२ में मुख्य न्यायाधीश होकर दिपायल पुनरावेदन अदालत में पहुँच गया । फिर मुख्यन्यायाधीश के ही रूप में हेटौडा आया और उसके बाद वि.सं. २०६५ साल में सर्वोच्च अदालत में मुझे न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति मिली थी ।
न्याय क्षेत्र का विरोधाभास
जब मैं वकालत कर रहा था, उस पेशा के प्रति मैं संतुष्ट था । उस समय मैं अपनी बात को स्पष्ट रूप से रख सकता था, किसी तरह के प्रतिबंध की अनुभूति नहीं होती थी । वकालत का सैद्धान्तिक आधार है– अपने पक्ष को न्याय दिलाना । मेरा उद्देश्य भी यही रहता था । न्यायिक क्षेत्र में एक गजब का संयोग होता है कि यहां दो पक्ष होते हैं और दोनों पक्ष को न्याय दिलाने का प्रयास अपने–अपने पक्षधर वकीलो की ओर से होता है । यह व्यवसायिक धर्म भी है । हां, सामान्यतः दोनों पक्ष को समान रूप में उनकी चाहत अनुसार न्याय मिलने की सम्भावना नहीं होती । वकालत के समय मेरा प्रयास रहता था कि मुझे झूठ बोलना ना पड़े, लेकिन यह बड़ी मुश्किल बात है ।
दूसरी बात, मैं प्रजातान्त्रिक विचारधारा को मानता हूँ । उस समय देश में राजा के द्वारा लादी गई पंचायती व्यवस्था के विरुद्ध आन्दोलन चल रहा था । आन्दोलनकारी से मेरी भेटवार्ता होती रहती थी, वे लोग मुझे कहते थे कि आप की वकालत से हम लोगों को सहयोग प्राप्त हो रहा है । जिसके चलते पंचायत समर्थक और प्रशासक के कई लोग मुझसे जलते थे । कभी–कभी द्वन्द्व की स्थिति भी हो जाती थी । जो भी हो, अपने और परिवारजन के भरणपोषण के लिए हमारी पारिवारिक खेती–किसानी और मेरा वकालत पेशा ही मुख्य आधार रहा है । साथ में मेरी वकालत प्रजातान्त्रिक आन्दोलन की सहयोगी भूमिका में भी रही है । इसी कारण एक बार मुझे जेल भी जाना पड़ा है ।
वि.सं. २०३६ साल की बात है । देश में जनमत संग्रह हो रहा था । बहुदल की ओर से मैं काउन्टिङ में था । साथ में मेरे छोटे भाई वृषेशचन्द्रलाल सहित अन्य लोग भी थे । हमारे जिले में बहुत कम मतान्तर से बहुदल पक्षधर को पराजित होना पड़ा । सच कहे तो नियोजित रूप में बहुदल पक्षधर को हराया गया था । जब मैं मतगणनास्थल से बाहर निकल रहा था तो मुझे कहा गया कि आप को प्रमुख जिला अधिकारी (सीडिओ) साहेब बुला रहे हैं । लेकिन कुछ ही देर पहले मैं सीडिओ साहेब से मिला था, उस समय उन्होंने कुछ भी नहीं कहा था । तब भी मैं और मेरे भाई वृषेशचन्द्र को पुलिस कार्यालय ले गया । वहां मेरे तीसरे भाई रतीश (तत्कालीन समय में विद्यार्थी) पहले से मौजुद थे । लेकिन हम लोगों से सीडिओ मिलने के लिए नहीं आए, अन्य जुनियर पुलिस अफिसर आकर कहा– आप लोगों को अब जलेश्वर स्थित जेल में कुछ दिनों के लिए रहना पड़ेगा । हम लोगों के विरुद्ध कोई भी स्पष्ट आरोप नहीं था, नहीं गिरफ्तारी के लिए जारी पुर्जी (आर्डर) ही था । कहा गया कि सार्वजनिक सुरक्षा ऐन अन्तर्गत गिरफ्तार किया गया है । लगभग दो महीने के बाद मुझे छोड़ दिया, लेकिन अन्य दो भाई को मेरे साथ नहीं छोड़ा गया । कुछ दिनों के बाद उन लोगों को भी छोड़ दिया ।
प्रजातन्त्र के लिए काम करनेवाले नेपाली कांग्रेस तथा नेविसंघ से संबंधी व्यक्तित्व जब जेल जाते थे, तब उन लोगों को जेल के भीतर ज्यादा से ज्यादा सुविधाए हो या जल्द से जल्द जेल से छुटाया जाए, ऐसी मेरी मानसिकता होती थी । मैंने कई बार एक प्रजातन्त्रवादी विचारधारा से संबंधित वकिल रहने के नाते उन लोगों को अदालत द्वारा छुड़ाने में सहयोग किया है । बहुत सारे केस में मैं सफल भी हो जाता था ।
कुछ घटनाएं
मिति याद नहीं है, एक बार मेरे भाई वृषेशचन्द्र, ललन सिंह, नरेन्द्र झा, बजरंग नेपाली को तत्कालीन प्रशासन ने गिरफ्तार किया और जेल में रख दिया । कहा गया कि इन लोगों ने सार्वजनिक अपराध किया है । लेकिन सार्वजनिक अपराध की कोई घटना नहीं हुई थी । बाद में जनकपुर अंचल अदालत में बन्दी प्रत्यक्षीकरण का मुद्दा दर्ता किया गया । दाबी के अनुसार सार्वजनिक अपराध प्रमाणित नहीं हो सका । वे लोग छूट गए । ऐसी बहुत सारी घटनाएं हैं, जहां हम लोग सफल हो जाते थे । हमारे वकालत के कारण भी तत्कालीन प्रशासन किसी को गिरफ्तार करने से हिचकता था । उन लोगों को लगता था कि गिरफ्तार करने से क्या होगा ! वकील लोग आकर जेल से मुक्त कर देते हैं ! विशेषतः मेरा नाम लेकर प्रशासनिक व्यक्ति कहते थे कि किसी को गिरफ्तार करने से पहले सोचना जरुरी है । जो गिरफ्तार हो जाते थे, उन लोगों को बाहर से भी सहयोग मिलता था । विशेषतः खाना–नाश्ता की व्यवस्था, मसहरी तथा कपड़ों की व्यवस्था कर देना आम बात होती थी । बाहर इसका प्रचार–प्रसार भी खूब हो जाता था, तत्कालीन पत्र–पत्रिकाओं में भी समाचार आता था । इस तरह की और भी कई कहानियाँ हैं ।
वि.सं. २०३५ की बात है । मानव अधिकार दिवस के सन्दर्भ में हम लोगों ने एक गोष्ठी आयोजन किया । मैं बार एशोसियन का प्रेसिडेन्ट था । इसी हैसियत से मैंने प्रमुख जिला अधिकारी, अञ्चालाधीश, न्यायाधीश जैसे उच्च पदस्थ अधिकारियों को आमन्त्रित किया था । कुछ न्यायाधीश आए थे, लेकिन कुछ लोग नहीं भी आए । लेकिन उन लोगों ने मौखिक रूप में कार्यक्रम करने के लिए स्वीकृति दी थी । वे लोग इसलिए नहीं आए थे कि उस कार्यक्रम में मानव अधिकार और प्रजातन्त्र के पक्ष में वकालत होने वाला है । उन लोगों को लगता था कि मानव अधिकार और प्रजातन्त्र के पक्ष में वकालत करना पंचायत के विरुद्ध है, राजा का विरोध करना है । लेकिन हम लोग कोई भी गैर–कानूनी काम नहीं करते थे और कहते थे– हमारे लिए संवैधानिक राजतन्त्र स्वीकार्य है । लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों की मानसिकता ही परिस्थिति को असहज बनाने के लिए काफी हो जाती थी । और हमारे कुछ साथियों को गिरफ्तार कर देते थे । मैं छुड़ाने का प्रयास करता था, बहुत सारे छूट भी जाते थे । ऐसी परिस्थिति पंचायत के और प्रशासनिक अधिकारियों के लिए भारी पड़ जाती थी ।
प्रजातन्त्र आज भी नहीं है
मैं कानून का विद्यार्थी रहा हूँ, पूरा जीवन वकालत पेशा और न्यायपालिका में गुजर गया । मेरा पेशागत धर्म भी प्रजातन्त्र और मानव अधिकार के लिए रहा । लेकिन आज भी नेपाल में पूर्ण प्रजातन्त्र की अनुभूति नहीं हो रही है । पंचायतकाल में हो या प्रजातान्त्रिक कालखण्ड, प्रजातन्त्र और मानव अधिकार के लिए संघर्ष जारी है । उदाहरण के लिए आज देश में चुनावी सरकार है । इसको देखकर कह सकते हैं– देश में प्रजातन्त्र है । लेकिन इसी सरकार को देखकर कई लोग कहते हैं– ‘यह सरकार तो संविधान और कानून का पालन नहीं कर रही है । ’ संविधान और कानून का पालन ना करना प्रजातन्त्र कैसे हो सकता है ? मुझे भी लगता है कि यह वास्तविक प्रजातन्त्र नहीं है । क्योंकि आज भी देश के कई नागरिक प्रजातान्त्रिक अधिकार के लिए लड़ रहे हैं, राज्य–संरचना में समावेशी और समानुपातिक सहभागिता की अधिकार मांग रहे हैं, उसके लिए संघर्ष जारी है ।
मैं प्रजातन्त्र एवं लोकतन्त्र का पक्षधर तो हूँ, लेकिन राजनीति में सक्रिय नहीं हूँ । मेरे विचार में सक्रिय राजनीति चुनाव लड़ना है, जुलूस में जाना है अथवा किसी दल का पक्ष लेना है और किसी का विरोध करना है । लेकिन मैं किसी पार्टी या व्यक्ति के पक्ष में नहीं हूँ, अथवा किसी के विरुद्ध में भी नहीं हूँ । मैं चाहता हूं कि जनता अपनी प्रजातान्त्रिक अधिकार निर्वाध रूप में प्रयोग कर सके, प्रत्येक नागरिक के लिए समान अधिकार प्राप्त हो सके, ऐसा वातावरण हो । साथ में दल गठन संबंधी अधिकार, वाक् स्वतन्त्रता, स्वतन्त्र न्यायपालिका, कानूनी राज्य, समतामूलक और समावेशी राज्य व्यवस्था मेरी चाहत है । यह मेरी मान्यताएं हैं, जो मानव अधिकार और प्रजातन्त्र को पक्षपोषण करती है । मैं इसकी वकालत भी करता हूँ । मेरे इसी चरित्र को देखकर कई लोग मुझे कहते हैं कि आप राजनीति करते हैं । लेकिन मैं राजनीति नहीं करता । मेरी मान्यता है कि राज्य के भीतर कोई हिन्दू हो सकते हैं, कोई मुस्लिम हो सकते हैं, कोई ब्राह्मण और कोई दलित हो सकते हैं । मैं चाहता हूँ कि इन सभी को बराबर की मान्यता मिलनी चाहिए, अधिकार मिलना चाहिए । ऐसा कहना और समावेशिता के लिए प्रयासरत रहना सक्रिय राजनीति नहीं है ।
मेरे विचार और मान्यता को देखकर ही तत्कालीन राजनीतिज्ञ गणेशमान सिंह, कृष्णप्रसाद भट्टराई, गिरिजाप्रसाद कोइराला जैसे व्यक्तियों ने कहा था कि मुझे सक्रिय राजनीति में आना चाहिए । लेकिन मैंने इन्कार किया और कहा कि मैं प्रजातन्त्रवादी और मानवअधिकारवादी हूँ । इस मान्यता के साथ काम करने लिए राजनीति में जाना जरुरी नहीं है । मैंने कहा कि मैं राजनीतिज्ञ नहीं, न्यायाधीश होना चाहता हूँ । मेरी चाहत अनुसार ही वि.सं. २०४८ साल में मेरी नियुक्ति पुनरावेदन अदालत विराटनगर में न्यायाधीश के रूप में हो गई थी ।
न्याय सम्पादन में प्रश्न
आज न्याय सम्पादन में कई तरह के प्रश्न उठ जाते हैं । उस समय में भी ऐसा होता था । मुद्दा का तथ्य क्या है ? उससे संबंधित कानून क्या कहता है और घटना को प्रमाणित करने के लिए प्रमाण क्या है ? न्याय सम्पादन में यही मूल बात होती है । इसके आधार में ही न्याय सम्पादित होता है । अगर बाहरी प्रचार–प्रसार और लोगों की तत्कालिक चाहत को ध्यान में रखकर मुद्दा को देखा जाता है तो न्याय सम्पादन मुश्किल हो जाता है । मुद्दा में दो पक्ष होना और एक पक्ष को न्याय मिलना स्वाभाविक हो जाता है । लेकिन जब नियोजित रूप में किसी एक पक्ष को जिताने की या हराने की कोशिश होती है, तब न्यायाधिशों से लेकर न्यायालय तक प्रश्न उठ जाता है । कभी–कभार कानून और प्रमाण के आधार पर फैसला होने पर भी गलत प्रचार–बाजी हो जाती है ।
मैं यहां एक घटना स्मरण करना चाहता हूँ, जो विराटनगर पुनरावेदन अदालत में रहते वक्त पहली बार मुझे सामना करना पड़ा था । यह मेरे लिए दुःखद घटना भी है । वकालत पेशा से मैं न्यायाधीश पेशा में प्रवेश किया था । अर्थात् शुरूवाती दिनों में ही था । विराटनगर में रामेश्वर अग्रवाल नाम के एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे । उनके घर में काम करनेवाले एक किशोर ने आत्महत्या कर ली । लोग कहते थे कि यह आत्महत्या नहीं, हत्या है । इसी माहौल में कुछ वकील, पुलिस और पत्रकारों की नीयत भी सही नहीं रही, कई तो उनसे पैसा वसूल करने के लिए लग गए थे । सारे लोग गलत प्रचार–प्रसार के चक्कर में पड़ गए थे । यहां तक कि मैं भी प्रचारों से प्रभावित हो गया था ।
जिला अदालत ने बाहरी प्रचार–प्रसार को देखकर और पत्रकारों से डर कर अग्रवाल के विरुद्ध फैसला किया, उनको जेल भेज दिया गया । लेकिन जब बाद में मुद्दा पुनरावेदन अदालत में मेरे इजलास में आया, तब मैंने उस का अध्ययन किया । अध्ययन करने बाद ही मुझे लगा कि बाहरी प्रचार–प्रसार गलत है । पुलिस अनुसंधान और प्रमाण कहता था कि यह हत्या नहीं, आत्महत्या है । क्योंकि अन्दर से पूरा बंद कर युवक कमरे के भीतर लटक गया था । पुलिस ने दरवाजा तोड़कर शव को बाहर निकाला था । और पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी आत्महत्या को प्रमाणित कर रही थी । लेकिन माहौल ऐसा बन गया कि सारा दोष अग्रवाल जी के ऊपर लगाया जा रहा था । मैंने सोचा कि मुझे न्याय करना है । अर्थात् मैंने निर्णय किया कि कानून और प्रमाण के अनुसार ही फैसला करना है । लेकिन अदालत के अन्दर का माहौल भी ऐसा नहीं था । मेरे से सीनियर न्यायाधीश मेरे विचार के विरुद्ध में थे । वे लोग कहते थे कि अगर आप घटना को आत्महत्या कह कर फैसला करते हैं तो आप बदनाम हो जाएंगे । मैंने सोचा कि अगर न्याय करने से बदनाम हो जाता है तो इसको मैं स्वीकार करुंगा । साथ में यह भी सोचा कि ज्यादा से ज्यादा मुझे न्यायाधीश से हटना होगा । मैंने ठान लिया कि इसके लिए भी मैं तैयार हूँ । मैं अपने सिद्धान्त पर अडिग रहा और अभियुक्त को दोषी नहीं कह सका । लेकिन मेरे से सीनियर न्यायाधीश इसके विरुद्ध होने के कारण मुद्दा ३ न्यायाधिशों के बेञ्च में चला गया । काठमांडू से घटना अनुसंधान के लिए जाँच कमिटी भी विराटनगर पहुँच गई थी । अन्ततः ३ सदस्यीय न्यायाधिशों के बेञ्च से अग्रवाल जी को न्याय मिल गया । बाद में अंतिम फैसला भी मेरे निर्णय के अनुसार ही हुआ और अभियुक्त को निर्दोष करार कर दिया गया ।
यह तो एक नमूना केस है । इसतरह के कई केस मैंने न्याय क्षेत्र में देखा हैं । वकील और न्यायाधिशों की नीयत से लेकर घटना संबंधी कमजोर अनुसंधान, अप्रयाप्त तथ्य–प्रमाण और बाहरी प्रचार–प्रसार के कारण कई निर्दोष व्यक्ति को दोषी करार कर दिया जाता है, न्याय सम्पादन प्रभावित हो जाता है ।
पार्टी कार्यकर्ता न्यायाधीश !
आज तो न्यायाधीश पार्टी के कोटा से नियुक्त हो जाते हैं, यूं कहे तो पार्टी कार्यकर्ता को न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति दी जाती है । जो पार्टी कार्यकर्ता हैं, जिसके पास न्यायाधिशों के लिए आवश्यक सामान्य चरित्र भी नहीं है, उसको न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति दी जाती है तो अवश्य ही न्याय सम्पादन प्रभावित हो जाता है । लेकिन मैंने कभी भी नहीं सोचा कि मैं अपनी कलम से अन्याय करुंगा । यही सोच और विचार मैंने सर्वोच्च अदालत तक कायम रखा । सर्वोच्च में रहते वक्त मैं प्रधानन्यायाधीश को कहता था कि अगर आप लोग किसी प्रतिवादी को हराना चाहते हैं तो वैसा केस मेरे इजलास में मत दीजिएगा, मैं कानून के अनुसार करूंगा, जो आप लोगों की इच्छा के विपरित भी हो सकता है । न्यायिक क्षेत्र में न्याय के प्रति ही सभी प्रतिवद्ध होते हैं, मैंने ऐसा नहीं देखा । इसीलिए मुझे ऐसा कहना पड़ा है । कई मुद्दे तो ऐसे भी होते हैं कि जहां सही फैसला करने पर न्यायाधीशों को डर लगता है, बदनामी होने की संभावना रहती है । लेकिन मेरी मानसिकता रहती थी कि मेरे पास ऐसी परिस्थितियों की सामना करने की ताकत है और न्याय के महत्व देनेवाले लोग खास कर अच्छे वकील लोग इसमें मेरा भरपूर साथ भी देते थे । जिसके चलते सारा न्यायिक जीवन (पेशा) मैंने इसी मानसिकता के साथ बिताया । वकालत पेशा का धर्म भी है कि वह अपने पक्ष के लिए तो करता है, लेकिन अदालत में न्यायिक परिपाटी कायम रहे और न्याय होता रहे, यह प्रत्येक वकील की चाहत भी होती है ।
अनुसंधान में कमजोरी
अनुसंधान में कमजोरी होने के कारण नेपाल में न्याय सम्पादन अधिक प्रभावित हो जाता है । अनुसंधान करने का काम न्यायाधीश तथा वकीलों का नहीं है । सामान्यतः पुलिस प्रशासन की यह जिम्मेदारी होती है । लेकिन घटना संबंधी गम्भीरता को देखकर सही तरीके से अनुसंधान ना होने के कारण पीड़ित व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से बंचित हो जाता है अर्थात् जो दोषी नहीं हैं, उसको दोषी करार किया जाता है और दोषी छूट जाते हैं ।
समावेशिता से डर
लोकतन्त्र, मानव अधिकार और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता के संबंध में मीठी–मीठी बात करनेवाले बहुत सारे हैं । लेकिन राज्य से संबंधित अधिकतर व्यक्ति ऐसे हैं, जो समावेशिता की बात सुनना भी नहीं चाहते हैं । विशेषतः आज जो राज्य–सत्ता में हैं, उन लोगों में ऐसी समस्या दिखाई दे रही है । सैद्धान्तिक रूप में तो इस बात को स्वीकार किया जाता है, लेकिन व्यवहार में नहीं । जब संविधान और कानून अनुसार समावेशिता की बात करते हैं, तब राष्ट्रीयता की बात आती है । और कहा जाता है– यह तो राष्ट्रीयता पर खतरा है । आखिर राष्ट्र क्या है ? राष्ट्र एक जाति विशेष का नहीं होता है । सभी जात, भाषा, धर्म और समुदाय का होता है । नेपाल की जो भूमि है, उसमें जन्म लेनेवाले सभी नागरिक नेपाली हैं । लेकिन जब आदिवासी जनजाति, मधेशी जैसे समुदाय समावेशिता की बात करते हैं तो उनकी राष्ट्रीयता पर प्रश्न उठाया जाता है, यह सरासर गलत है । मधेश में जन्म लेनेवाले सारे लोग नेपाली है और नेपाली राष्ट्रीयता के प्रति प्रतिबद्ध भी हैं । मात्र खस समुदाय के लोग नेपाली हैं, ऐसा कहना गलत है ।
दूसरा सच यह भी है कि आज जो जनजाति और मधेशी समुदाय के ऊपर राष्ट्रीयता का प्रश्न करते हैं, उन्हीं लोगों के पूर्वज इस देश से बाहर से आए हैं । नेपाल के मूल आदिवासी तो नगन्य हैं । आज देश के शासन–सत्ता में जो खस समुदाय हैं, वह भारत के विभिन्न क्षेत्र से नेपाल प्रवेश किए हैं, उसका गोत्र, भाषा, रहन–सहन और संस्कार यही प्रमाणित करता है । लेकिन वही लोग आज यहां मधेशी समुदाय की राष्ट्रीयता पर प्रश्न उठाते हैं जबकि मधेशी यहां के मूलवासी हैं । सच तो यही है कि नेपाल में आज ‘मधेश’ के नाम से जिस भू–भाग को जाना जाता है, वह किसी समय नेपाल में नहीं था, लेकिन वहां जो रहते हैं, उनके पूर्वज भी उसी भूमि में रहते थे । बाद में (सन् १८१६ और १८५७ के संधि और सम्झौता अनुसार) अपने भू–भाग के साथ आज के मधेशी भी नेपाली बने हैं । अर्थात् खस समुदाय के पूर्वज अपनी भूमि छोड़कर नेपाल प्रवेश किए थे, और मधेशबासी के पूर्वज अपनी भूमि के साथ नेपाल में आए थे । जिनके पूर्वज उत्तराखण्ड, यूपी, आसाम, कश्मीर जैसे जगहों से नेपाल प्रवेश किए हैं और सत्ता में रह गए हैं, वही लोग आज यहां के भूमिपुत्र की राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहे हैं । यह कैसा न्याय है ? जब हम लोग यह प्रश्न करते हैं तो यहां के कथित ‘राष्ट्रवादी’ घबरा जाते हैं ।
मैंने अपने कार्यकाल में देखा कि जब मधेश की बात आती है, जब समावेशिता की बात आती है, जब समान सहभागिता की बात आती है, तब यहां के शासक वर्ग डरने लगते हैं और भ्रमपूर्ण राष्ट्रीयता की बात करने लगते हैं । न्यायाधीश रहनेवाले लोग भी इसी मानसिकता से ग्रसित हैं । अगर ऐसा मुद्दा आ जाता है तो वे लोग ठीक से नहीं देखते हैं, छोड़ देते हैं । लेकिन मेरे पास जो मुद्दा आया है, उसमें मैंने ईमानदार प्रयास किया है और जनता को अधिकार सम्पन्न बनाने की कोशिश की है ।
एक ऐतिहासिक निर्णय
उदाहरण के लिए वि.सं. २०७२ साल आषाढ़ ४ गते की घटना स्मरण करना चाहता हूँ, जो संघीयता और गणतन्त्र के साथ जुड़ा हुआ विषय भी है । पूर्वराजदूत विजयकान्त कर्ण और लेखिका रीता साह ने तत्कालीन संविधानसभा, प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् कार्यालय आदि को विपक्ष बनाकर सर्वोच्च अदालत में एक रिट निवेदन पंजीकृत किया था । उस समय संविधानसभा के सदस्यगण नया संविधान बना रहे थे । संविधानसभा में चर्चा हो रही थी कि संविधान में संघीयता की बात नहीं करनी है । वे लोग तैयारी कर रहे थे कि देश को संघीय स्वरूप में विभाजन किए बिना ही संविधान को जारी किया जाए । इसके विरुद्ध कर्ण और साह जी ने रिट निवेदन पंजीकृत किया था । रिट मेरे बेञ्च में ही पड़ गया । मेरे सिंगल बेञ्च से आषाढ़ ४ गते अन्तरिम आदेश हुआ, उस को लेकर पूरा देश तरंगित हो गया । बहस होने लगी कि इसतरह अन्तरिम आदेश नहीं करना चाहिए था, अन्तरिम आदेश के कारण संविधान जारी होने से ही रुक गया है । राजनीति करनेवाले लोगों में यहाँ तक बहस होने लगी कि यह तो अनर्थ हो गया, अब न्यायाधीश गिरिशचन्द्र लाल को महाअभियोग लगा कर पद से हटाना होगा । उस समय सुशील कोइराला प्रधानमन्त्री थे । सारे राजनीतिक दलों के बीच अन्तरिम आदेश को लेकर विचार–विमर्श होने लगा । सारे तथ्यों से अवगत होने के बाद और न्यायविदों की सलाह के अनुसार अन्ततः निष्कर्ष निकाला गया कि वह आदेश संवैधानिक है और आदेश में संविधान निर्माण को रोकने के लिए नहीं कहा है ।
मैंने भी अपने आदेश में संविधान जारी होने से रोकने के लिए नहीं कहा था । लेकिन अन्तरिम संविधान में संघीयता (संघीय राज्य की संख्या और सीमांकन संबंधी) जो प्रावधान है, उसको समावेश कर संविधान जारी करने के लिए कहा था । यह आदेश ऐतिहासिक बन गया । जिसके चलते देश में संघीयता सुरक्षित हो पायी । भले ही जारी संविधान के प्रति असंतुष्टियां हैं, लेकिन बाद में आश्विन ३ गते जारी नये संविधान में संघीयता को समावेश किया गया है, जो मेरे उस आदेश का परिणाम है । यह सोचकर और स्मरण कर मुझे कितना सन्तोष होता होगा, यह आप अनुमान कर सकते हैं ।
मैं नेपाल का पक्षधर हूं
मेरे ऊपर कुछ लोग आरोप लगते हैं कि मैं मधेशी हूँ और मधेश कें पक्ष में काम करता हूँ । लेकिन मैं नेपाल का पक्षधर हूँ । नेपाल का भला चाहता हूँ । मैंने जो भी निर्णय किया है, सिर्फ मधेश को देखकर नहीं किया है, नेपाल को देखकर किया है । नेपाल में संघीयता होना चाहिए, राज्य संरचना समावेशी होनी चाहिए, इन सारी बातों में नेपाल का हित है । एक सच यही है कि जनता के प्रति ईमानदार नेता यहां कम हैं । यही नेपाल के लिए मूल समस्या है । विशेषतः यहां के शासक वर्ग समावेशिता से डरते हैं, लेकिन वास्तव में समावेशिता राष्ट्रीय अखण्डता के लिए बहुत जरूरी है ।
‘लाल–आयोग’ का सुझाव देश और जनता के हित में है
वि.सं. २०७२ में हुए मधेश आन्दोलन के संबंध में मेरे नेतृत्व में जो आयोग बना, उसको आज ‘लाल–आयोग’ कहा जाता है । उस समय आन्दोलन के दौरान पूरे मधेश में विभिन्न दुर्घटना हुई थी । बहुत सारे युवा लोग मारे भी गए थे । उक्त घटनाएं संबंध में तथ्यगत अनुसंधान के लिए जो आयोग बना, उसका अध्यक्ष मैं था । आयोग ने जो रिपोर्ट बनाया है, वह अभी तक सार्वजनिक नहीं है और इसके संबंध में समय–समय में बहस भी होती रहती है ।
प्रश्न होता है कि आयोग का रिपोर्ट क्यों सार्वजनिक नहीं हो रहा है ? लेकिन इसके बारे में मुझे ज्यादा बोलना नहीं है, लेकिन इतना बोल सकता हूं कि आयोग ने घटना के संबंध में अध्ययन करने के बाद अपने रिर्पोट के साथ जो सुझाव दिया है, वह देश और जनता के हित में हैं । नेपाल की अखण्डता किस प्रकार कायम रह सकता है, यही बात को दिमाग में रखकर हम लोगों ने सुझाव दिया है । नेपाल में जो भेदभाव है, उसको समाप्त करने के लिए कहा गया है । इसीलिए हम लोगों ने रिपोर्ट में जो सुझाव दिया है, वह नेपाल की राष्ट्रीयता पर खतरा पैदा करनेवाला नहीं है, बल्कि राष्ट्रीयता का सम्वद्र्धन करनेवाला है, अखण्डता को कायम रखनेवाला है । साथ में जो अधिकारी गण जिस तरह घटना में संलग्न थे, उसका नाम और घटना विवरण भी उल्लेख है । दोषी को कानूनी कारवाही के लिए भी कहा गया है । मुझे लगता है कि यही कारण रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई । अगर की जाती है तो देश के हित में ही होगा, ऐसा विश्वास के साथ कहना उचित हीं होगा ।
आध्यात्मिकता से प्रेरित भी हूं
हमारे सामने जो भौतिक जगत है, यही सब कुछ है, ऐसा नहीं है । जीवन और जगत में कम से कम ४ आयाम है । भौतिक, मानसिक, सामाजिक और अध्यात्मिक आयाम हमारे जीवन की असल पहचान है । तब भी अध्यात्म के बारे में बहुत कम ही लोग समझ पाते हैं और मैं भी उसी में से एक हूँ । लेकिन मैं इतना जनता हूँ कि मानव शरीर को जीवित रखने के लिए हो या सुविधायुक्त बनाने के लिए खाद्यान्न, कपड़ा, गाड़ी, घर, सड़क, अस्पताल, वन–जंगल, नदी जैसे जितनी भी भौतिक वस्तु एवं सुविधाएं हैं, वह सब आवश्यक है । इसी तरह परिवार और समाज भी आवश्यक है । हम लोग जिस पृथ्वी पर हैं, अगर इसकी तुलना पूरे ब्रह्माण्ड के साथ करना शुरू करते हैं तो यह एक बिन्दू के बराबर भी नहीं है । सारा ब्रह्माण्ड व्यवस्थित रूप में संचालित हो रहा है । उसी ब्रह्माण्ड का एक छोटा–सा हिस्सा है– पृथ्वी । और इसी पृथ्वी का एक बिन्दू हैं हमारा यह संसार, जो हमारे नियन्त्रण में नहीं है, तब भी सब ठीक–ठाक से चल रहा है । व्यवस्थित रूप से संचालित इस संसार को किसने बनाया है ? हमारी भौतिक तथा सामाजिक परिस्थिति भी उसी का एक हिस्सा है । कोई इन्जीनियर तो है, जो इस ब्रम्हाण्ड को संचालन कर रहा है, इसके बारे में मैं नहीं जानता । नाम जो भी दें, लेकिन किसी ना किसी ने तो जरूर बनाया है या बनने दिया है । इसीलिए तो आज हम लोग यहां हैं । जब हम लोग इसके बारे में इसतरह सोचना शुरू कर देते हैं तो मुझे लगता है कि हमारी अध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाती है । उपनिषद् में एक श्लोक है–
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते । ।
सृष्टि और परमात्मा के बीच जो संबंध है, उल्लेखित श्लोक में उसका संकेत है । लेकिन हर किसी की समझ में यह बात नहीं आती । इसके लिए बहुत सारे अध्ययन एवं तपस्या की जरुरत होती है, मैं भी एक सामान्य मानव हूँ, इसीलिए मेरी समझ में भी नहीं है । लेकिन मैं उस परमसत्य परमेश्वर का अस्तित्व स्वीकार करता हूँ ।
आप के पास जो जीवन है, इसको आप अस्वीकार कर सकते हैं क्या ? इसलिए जीवन क्या है ? यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है, इसको कैसे जीना है ? इस बात को समझ लेना जरुरी है । एक समय था– पेड़ को जीवित नहीं समझा जाता था, उसको निर्जीव कहा जाता था । जब जगदीशचन्द्र बसू नाम का वैज्ञानिक आया, उन्होंने पेड़ में जीवन है, ऐसा प्रमाणित किया । आज के दिन लोग पत्थर में जीवन है, ऐसा नहीं मानते हैं । लेकिन अगर कल कोई वैज्ञानिक आकर पत्थर में जीवन प्रमाणित कर देता है तो मैं आश्चर्य माननेवाला नहीं हूँ ।
हां, हर मानव जीवन में सुख और शान्ति चाहता है, लेकिन बहुत कम को मिलता है । सुख और शान्ति प्राप्ति के लिए साधारण सूत्र है– जैसे कि मैं जितना दूसरों के लिए सुख और शान्ति का वातावरण बनाउंगा, उतना ही मेरी सुख और शान्ति बढ़ती जाएगी । अगर मेरा जीवन किसी दूसरों के लिए दुःख का कारण बन जाता है तो मेरी सुख और शान्ति भी छिननेवाली है । ऐसा समझ लेना चाहिए । इसीलिए मेरे खयाल से मानव जीवन पृथ्वी और प्राणी जगत को और भी सुन्दर बनाने के लिए है, यह सोचकर और जानकर जीवन का उपयोग होना चाहिए । – प्रस्तुतिः लिलानाथ गौतम
(हिमालिनी मासिक अप्रील 2021 अंक से)
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Since, every individual is different and deserves the right to live their life independently, coercion does not exist against any individual. It is the responsibility of every responsible citizen of Nepal to work for the best interest our nation and people, irrespective of their cast, ethnicity, religion, sex and political ideology, respectively who are at the dire need of our support. Unlike others, Mr. Girish Chandra Lal is one of the characters who always worked for the best interest of people with sincerity, stability and consistency. He had made great contribution for the stability of democracy with rights of people in the center. Girish Shreeman; your are doing great to the best of your capacity without any prejudice. None of the cast, religion and ethnicity is against another cast, religion and ethnicity, it is just the matter of time that makes the difference. However, we need to awake and work collectively for the best interest of our people in the days ahead.