मधेश का निकास अब क्या ? : कैलाश महतो
कैलाश महतो, पराशी । हमारे गांव घर में आज भी नाच जब होता है तो उसमें एक जोकर, जिसे हमारे भाषा में “हरबोलबा” कहते, का मुख्य भूमिका होता है स्टेज पर रहे मूल पात्रों के साथ चुटकिला सुनाना, हंसी मजाक करना, बदतमिजी करना और बेतुके बात और काम प्रदर्शन कर दर्शकों को हंसाना और आनन्दित करना । नाच के उस हरबोलवा का मुख्य काम ही होता है उटपटांग व्यवहार और बोली बोलकर कभी पात्रों से पिटाई खाना तो कभी अन्य से गाली सुनना । बडी ताज्जुब की बात तब देखने को मिलता है वह हरबोलबा जितने बार मार खाता है, उतने बार बोलता जाता है, “अब मार कर दिखा त ।” वह फिर किसी से मार खाता है । वह फिर कहता है, “बहुत भ गेलौ । अब मार के देखा त !” उसके इसी चरित्र पर दर्शक मजा लेता है ।
देश के राजनीति में मधेशी नेता लोग उसी हरबोलबा के चरित्र में प्रतिष्ठित है । राजनीति के रंग मंचों पर देश के राजनीति के मुख्य पात्रों में जो और जितने भी खस पात्र हैं, वे मधेशी नेताओं को लात मारे या बात या जुत्ते मारे, उन्हें (मधेशी नेताओं) कोई फर्क नहीं पडता । वह हर बार कभी ओली के भेष में, कभी पोखरेलों चेहरों में, कभी खनाल और नेपाल के बोली में तो कभी बीपी और गिरिजा के रुपों में और कभी भीम रावल तो कभी रामशरण महत के लब्जों में गाली, मार और बेइज्जत होते रहते हैं । मगर हर बार मधेशी नेता यही कहते सुनाई देते हैं कि “अबकी बार आर कि पार,” “अभी नहीं तो फिर कभी नहीं” “आजादी से नीचे कम नहीं, सर कट जाये तो भी कोई गम नहीं”, आदि इत्यादि । वे बार बार यह कहते सुनाई देते हैं कि इस बार देखते हैं – मधेशी नेताओं को राज्य कैसे नहीं सुनेगा । नहीं सुना तो आन्दोलन करेंगे, विद्रोह करवायेंगे, मधेश को देश बनायेंगे, अधिकार छिनकर लेंगे, इत्यादि । मगर होता फिर कुछ नहीं ।
सरकार और उसके मुखिया तथा खसों के सारे दल भी यह जानते हैं कि मधेश के इन नेताओं में बस् – एक उत्कण्ठा जीवित है कि वे सत्ता के लिए सौदावाजी कैसे करें । उनके पास जमीर नाम की कोई चीज नहीं है । कुत्तों को मूट्ठे और जूत्ते जो भी मारो, अगर आपके पास कुछ हड्डी भी जूठे हैं तो उसे जब चाहो, बुलाया जा सकता है ।
मधेश के सबसे बडी समस्या उसके युवाओं में है । गत चैत्र २८ गते को जनमत पार्टी के जनकपुर में सम्पन्न महा अधिवेशन के स्टेज पर एक यूवा द्वारा एक हिन्दी फिल्म में नाना पाटेकर द्वारा अभिनित फांसी पर चढाये जानॆ से पहले के अभिनय का मंचन किया गया । मधेश के वह यूवा उस अभिनय को दिखाकर शायद यह सावित करना चाहा होगा कि वह भी नाना पाटेकर के जैसे ही देशभक्ति का प्रमाण पेश करेगा । उसने उस फांसी बाला स्टेज से पहले का फिल्मी घटना को नहीं प्रस्तुत किया जिसमें नाना ने देश के गद्दार राजनीतिक नेताओं का सामूहिक हत्या की थी । वह अभिनय भले ही एक फिल्म का हो, वह यूवा कम से कम नाना के जैसे मधेश या देश के गद्दारों को पहचान भर लिया होता तो बात कुछ और होती । उसने देश और मधेश से ज्यादा अपने भर्च्यूअल गद्दार और फरेबी नेता को ही खुश करने का प्रयास किया । मंच पर अभिनय करने बाले उस यूवा के निरपराध बेवकूफियों को देख कर मंच पर आसीन उसके छली नेता भी दिल में हंसता रहा होगा कि इस २१वीं सदी के शिक्षित मधेशी नौजवान भी जब इतने उल्लू है, तो फिर क्यों जेल नेल और प्रशासनिक लफडों में पडने जायं । वह नेता भी उस यूवक पर अन्दर से तरस खा रहे होंगे ।
मधेश के राजनीति में अभी चार प्रवृतियां मौजूद हैं । पहला है fox प्रवृत्ति, जिसका नेतृत्व डा. सीके राउत करते नजर में हैं । दूसरा crow प्रवृत्ति, और उसका पालन उपेन्द्र यादव जी को करना पड रहा है । तीसरा है – whore प्रवृत्ति के, जिसका भूमिका राजेन्द्र महतो ने स्वीकारा है । और चौथा है surrender प्रवृत्ति, जिसको अन्जाने में मधेशी यूवा दस्ताओं अंगीकार किया है ।
मधेश के यूवा नाना पाटेकर का अभिनय करता है, भगत और सुखदेव सिंह का उदाहरण देता है । गाँधी की कहानी कहेगा । मगर किसी के रुप रंग में, किसी के पद और भजन मण्डली में, तो किसी के रखैल तक ही सीमित रहने में ही वे अपनी आजादी और शक्ति समझते हैं ।
बडी विचित्र हादसा रहा कि दुर्भाग्यवश जसपा बने पार्टी दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से ही दुर्घटना का शिकार हुआ है । जहाँ से उसकी शुरुवात हुई थी, वहीं पर आकर उसे अन्त होना पडा है । “संसार” का अर्थ ही होता है किसी एक विन्दु से आरम्भ यात्रा पूरा होने के बाद पून: उसी विन्दु पर जाकर स्थिर होना । समग्र में हम यह समझ लें तो काफी होगा कि नेपाल का संसार खस शासकों से शुरु होकर खस लिप्सा में ही अन्त हो जाता है । केपी ओली ने जिस छोटे छोटे समाजवादी और राजपा को नहीं तोड सके, एकीकृत और मजबूत जसपा को बडी आसानी से कई टुकड़ों में तोड दी ।
गौर से विश्लेषण करें तो देख सकते हैं कि बडे बडे विद्याबारिधी धारक, डिग्रीधारी, मधेश के पहलवान, बडे बडे जमीनदार और बडे बडे इज्जतदार क्रान्तिकारी लोगों को एक हाइ स्कूल फेल, उखान तुक्का के शहंशाह और जिद्दी एक ओली ने सबको लाइन में खडे कर दिये । दश वर्ष जंगल में रहकर ही सरकार को उठबैठ कराने बाले, अपने ही पार्टी के बडे बडे राजनीतिक इमारत के सहजादे, बडे बडे अदालत और प्रशासनिक निकाय तथा ओली जी के विरोध में विष उगलने बाले मधेश के महानायकों लगायत तीन देशों मे नामी यूनिवर्सिटियों से आभूषित महायोद्धा महावैज्ञानिक तथा स्वतन्त्र देश के नीतिकारों समेत को देखते ही देखते समुद्र का इतना कडवा खडा पानी पिलाया कि वे सत्ता और सरकार बदलते गये, सहमति पर सहमति करते रहे, धाक धमकी दिखाते रहे, पर उनके कुछ चलने के बजाय बेचारे रण छोड बन गये ।
कुछ लोग अपने कार्यकर्ता और संगठन को बचाने के लिए मुद्दा पर मुद्दा बदलते रहे हैं । आजादी, चुनाव बहिष्कार, सहमति, चुनाव में सहभागिता, मुक्ति, जनमत संग्रह, विकास व समृद्धि, दश लाख नौकरी, जनता राज, सामुदायिक स्वराज, आइ.एल.ओ १६९ का प्रयोग, सारा अधिकार, स्वायत्तता, समानता, समतावाद, मानवाधिकार, लोकतंत्र, प्रभुसत्ता, संघीयता, आत्म निर्णय का अधिकार, पहचान, आत्म सम्मान, आदि के नारों और मुद्दों के सिढियों पर चढ़कर पैसा, सरकार, सत्ता, पद और अवसरों पर शासकों की गुलामी करने की फेहरिस्त कायम रखे हैं । आज भी हालात सुधरने के बजाय बिगडता दिख रहा है ।
मधेश के इतिहास में इससे बडा हास्यास्पद हरकत क्या हो सकता है कि जसपा के एक समूह प्रधानमंत्री को दिन में प्रतिगमनकारी कहता है और रात में उनका दरबार लगाने अपने दूत को भेजते हैं । वहीं दूसरा समूह जो मधेश आन्दोलन के भावना, मर्म, उद्देश्य और आवश्यकता को समझे बिना मधेश को अधिकार, मुक्ति और बन्दियों की रिहाई की दुहाई देने से परहेज नहीं आते । संविधान संशोधन, फिर्ता हुए मद्दों का कानुनी व्यवस्थान, रेशम चौधरी लगायत के नेताओं की रिहाई किये बिना सरकार का गवाह बनने के दुर्घटना से यह बात तय है कि मधेश के मूल मुद्दों की कार्यान्वयन अब उनके द्वारा कतई नहीं किया सकता ।
मधेश के जो मूल और बाइ प्रोडक्ट मुद्दे हैं, उसके समाधान संविधान संशोधन के बिना हो नहीं सकता । इसके लिए उस ओली के पास वो बहुमत नहीं कि वो मधेश मुद्दों को सम्बोधन कर दें । रेशम चौधरी को रिहा करवा ही सकने से पानी मन्त्री अनिल झा ने एक तरफ स्पष्ट ही कर दिया है कि उनको जेल से रिहा कराने का ग्यारेण्टी कोई नहीं ले सकता, तो दूसरी तरफ उपप्रधानमंत्री राजेन्द्र महतो के विरोध में काठमाण्डौ को गरम करने का अभ्यास शुरु हो गया है ।
अब जसपा के सरकारी पक्ष को कहीं इस परिणाम से न गुजडना पड जाये कि न तो वह सरकार के हो पाये, न मधेश के । ओली जी प्लेटिनम के भेष में जसपा को तो गला ही दिये, उसके बाद जिसकी बारी आयेगी, उस महानायक का तो सत्यानाश होना तय है ।
सवाल यह उठना स्वाभाविक है कि अब मधेश का निकास क्या ? होश में आयें । नेपाली राजनीतिक चरित्र को समझें और चुनाव, संसद, सरकार और सत्ता से पहले मिलकर मधेश सत्ता का स्थापना करें । फिर जिसे जहाँ रहकर राजनीति, चुनाव, सरकार और सत्ता पाना है, उसके लिए आगे बढें । मधेश का वही अन्तिम अस्त्र व उपाय बांकी है । बांकी नेताओं ने बेच डाले हैं ।
इसे सुनना न भूलें
