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जनकपुर में महोत्तरी सुकुंबासी समस्या को लेकर धरना प्रदर्शन और अनसन जारी

जनकपुर ।  पिछले 12 दिनों से जनकपुर के जनक चौक पर महोत्तरी सुकुंबासी समस्या को लेकर धरना प्रदर्शन किया जा रहा है। वैसे देखा जाय तो, जब निर्वाचन नजीक आता है तब इस तरह के समस्याओं को प्रकाश में लाने के लिए शोर मचाना शुरू किया जाता है। खुद सरकार भी ऐसे मुद्दों को दावा कर रखना चाहती है; ता कि अगले चुनाव में इस तरह के मुद्दो के सहारे राजनीतिक लाभ उठाई जा सके। समस्याओं का समाधान तो करना ही नहीं है; बस उलझाए रखना है। इसी प्रवृति ने नेपाल को दरिद्र देश के श्रेणी में खड़ा कर दिया है; तो वही नेपालियों को लेबर क्लास में खड़ा कर दिया है। आम नागरिकों को लेबर क्लास में स्थापित करना कम्यूनिष्ट तथा सामंती मानसिकता से ग्रस्त सरकार का काम होता है।
जिस गरीब, दलित, पिछड़ा और सुकुंबासियों के समस्याओं के मुक्ति को केंद्र बनाकर देश का राजनीतिक प्रणाली ही बदल दिया गया; उस देश में यही वर्ग कुछ धुर/कट्ठा जमीन के लाल पुर्जा पाने को तरस रहे हैं। इन वर्गों के जीवन का एक सपना है घराड़ी के कागजात। परंतु इस क्रांतिकारी परिवर्तन को भी 15 वर्ष पूरा चुका है। नेताओं के संतान और परिवार भिखारी से भामाशाह बन गए। लेकिन अपनी सहोदरा को भूल गए। इसे ही अपनों से गद्दारी कहते हैं। अरे चोर भी चोर के घर चोरी नहीं करता है! परंतु हमारे नेतागण तो उन दलित, पीड़ित, पिछड़ा और सुकुंबासी को ही भूल गए; जिसके कारण उन्हें सत्ता मिला। वैसे गंभीरता से विचार किया जाय तो हम पाएंगे कि आज के नेताओं के भीतर इन सुकुंबासियो के टुकड़े जमीन को भी हड़पने का विचार जोड़ से चल रहा होगा। जो देश को बेचने में नहीं हिचकते हैं उनके लिए गरीब जनता का क्या मूल्य है!
सत्ता जब उद्दंडों के हाथों में सौंप दिए जाते हैं तो परिणाम में सामूहिक विनाश ही प्राप्त होता है। देशभर के ७० लाख सुकुम्बासी चुनाव के मुंह में आकर ‘नो लालपुर्जा नो भोट’ जैसे नारा लगाने को बाध्य हैं। वास्तविकता पर ध्यान दिया जाए; पिछले ४० वर्ष में २४ बार सुकुंबासी समस्या समाधान आयोग बन चुका है। इसमें अरबों रुपए खर्च किए गए, लेकिन समस्या आज भी वही की वही है। कारण क्या है? आप गौर से अध्ययन कीजिए; पता चलेगा की यह तो गरीबों के नाम पर राजनीतिक झोली भरने तथा आयोग के नाम पर अपनों को नोकरी देना है। ऐलानी जमीन को धीरे धीरे कब्जा करना है। सुकुंबासी को धीरे धीरे देश छोड़कर भारत में शरण लेने के लिए बाध्य करना है। नेपाल के अधिकांश राजनीति कर्मी जनता के गद्दार हैं। इनसे लूट खसोट बाहेक अच्छे कार्यों की कल्पना ही नहीं किया जा सकता है। फिर भी हम इन सर्पो को पालने के लिए मजबूर हैं। यही हमारी मानसिक दिवालियापन है। मानो वैज्ञानिक गुलामी है।
वास्तव में सुकुंबासी कौन है? नेपाल के हक में इसका क्या मतलब होता है? यह जानना जरूरी है। साधारण भाषा में जिसके पास रहने और खाने पीने के लिए अपना जमीन नहीं है, उसे सुकुमबासी कहा गया है। इसमें तीन प्रकार के सुकुमबासी आते हैं। पहला
विकट स्थान से भौतिक समस्याओं के कारण अपनी निजी स्थान को छोड़कर अन्यत्र एलानी वा परती भूमि को आवाद कर जीवन यापन करने वाले लोग आते हैं। जिन्हे जमीन तो होता है, लेकिन स्वामित्व नहीं होता।
दूसरा: प्राकृतिक प्रकोप के कारण बसोबस उजड़ गया हो और वह स्थान अति विकट हो गया हो; जहां जीवन यापन करना असंभव हो; ऐसे स्थान को त्याग कर बासोबास के लिए सहज स्थान पर जाकर बसने वाले लोग आते हैं। इनके पास भी जमीन और लाल पुर्जा होता है लेकिन स्वामित्व नहीं होता। इन्हें अव्यवस्थित सुकुंबासी कहते हैं।
तीसरा: जिनके नाम से भूमि नही है।न अपने नाम से न परिवार के किसी सदस्य के नाम से; ऐसे लोग भूमिहीन सुकुम्बासी के श्रेणी में आते हैं।
इनके पास ऐलानी, पर्ती किसी भी प्रकार के जमीन नहीं होता और न घर ही होता है। किसी समझौता अथवा भाड़ा में रहकर गुजारा करते हैं।
आज से तकरीबन 30 साल पहले खुद को सुकुम्बासी बताते हुए सुकुंबासी आयोग में दो लाख ६३ हजार ३८ परिवारों ने निवेदन दिया था। आयोग ने ५४ हजार १७० परिवार के निवेदन को छानबिन कर, १० हजार २७८ लोगों को प्रमाणीकरण पत्र दिया था, जिन्हें दो हजार २९६ बीघा जमीन वितरण किया गया। अबतक के ६ आयोग ने एक लाख ५४ हजार ८५६ परिवार को ४६ हजार ६९४ बीघा जमीन आजतक वितरण कर चुका है। लेकिन समस्या और बढ़ता ही गया। फिर से आषाढ़ २ गत्ते २०७१ में शारदाप्रसाद सुवेदी के अध्यक्षता में १४ वा आयोग ने तथ्यांक जारी करते हुए देश को बताया कि देशभर में ८ लाख ६१ हजार सुकुम्बासी परिवार है।
बस, इसी मूल विषय पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। वास्तव में यह इतनी बड़ी भोट बैंक है कि कोई भी पार्टी कभी भी इसका मूल निवारण नहीं चाहेगा। नेपाल के सारे के सारे पार्टी, नेता, सिद्धांत और आधिकारिक लोग आपस में मिले हुए हैं। सब मिल जुल कर सत्ता का उपभोग और जनता का शोषण करना चाहते हैं। इस सत्ता आरोहण के लिए सुकुंबासी समस्या सबसे बड़ी उद्योग है। लाखों लोग इससे प्रत्यक्ष जुड़े हुए हैं। अतः इसका समाधान इन देश बेचुआओं से कदापि संभव नहीं है। हमें इस भ्रम से ऊपर उठकर गंभीरता पूर्वक विचार विमर्श करना चाहिए।
सुकुम्बासी के रूप में देशभर में ११ लाख ८० हजार ७६१ घर परिवार का तथ्यांक सङ्कलन किया गया है। जो   नेपाल के जनसंख्या का करीब तीन प्रतिशत हिस्सा है। अब सोचिए, इतनी बड़ी आबादी को पिछले 60 वर्षो से प्रत्यक्ष रूप में योजना बद्ध तरीके से छला जा रहा है। और वह काम देश की सरकार कर रही है। जिसमे सभी पार्टियां और सारे नेताओं का हाथ है। जितनी बड़ी समय उतना लूटने का मौका। यह आज का राजनीतिक सिद्धांत है। और हम दोनों हाथों से लूटने में माहिर हैं। वैसे जिस देश के वैद्धिक वर्ग अपनी बहु बेटियों को विदेश भेजकर खुद दारू में मस्त रहने को सभ्य मानते हों, उनके बारे में आगे कुछ भी कहना शब्द के साथ बलात्कार करना होगा। वैसे कहा गया है, ” पतितः का न करोती?” पतित क्या नहीं कर सकता! धन्यवाद!

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