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प्रेमचन्द जयंती का हुआ समापन


जनकपुरधाम /मिश्री लाल मधुकर । जनसंस्कृति मंच, दरभंगा के तत्वावधान में आयोजित प्रेमचन्द जयंती समारोह का समापन आज दिनांक 31जुलाई को प्रेमचन्द के जन्मदिवस पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के साथ संपन्न हुआ।



कार्यक्रम की शुरुआत जसम की नाट्य-गायन टीम ‘अनहद’ के द्वारा मशहूर जनगायक राजू रंजन के नेतृत्व में सामूहिक जनगीतों की प्रस्तुति से हुई।
राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए निर्धारित विषय “हमारा समय और प्रेमचन्द” का विषय प्रवर्तन करते हुए जसम राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य डॉ. सुरेंद्र सुमन ने कहा कि ” प्रेमचन्द अपने समय में हमारे समय का नेतृत्व करने वाले कालजयी कथाकार हैं। यह सच है कि अभी का काल प्रेमचन्द का काल नहीं है तो आज का साम्राज्यवाद भी पहले का साम्राज्यवाद नहीं है। अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने देशी ब्राह्मणवाद और सामंतवाद से गठजोड़ करके हमारे मुल्क पर शासन किया था तो आज का कॉरपोरेटपरस्त पूंजीवाद भी ब्राह्मणवाद से गठजोड़ कर फासीवादी बर्बरता के शिकंजे में पूरे मुल्क को जकड़ लिया है। आज के इसी शोषण-उत्पीड़न के वट-वृक्ष के समूल नाश के लिए प्रेमचन्द ने अपने जमाने में आगाह किया था। तभी तो ‘आहूति’ कहानी की रुक्मिणी कहती है ‘हमें जॉन की जगह गोविंद नहीं चाहिए।’

विशिष्ट वक्ता के बतौर बोलते हुए जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कौशल किशोर ने कहा कि फासिस्ट दौर में प्रेमचंद जागरण के प्रतीक हैं।

प्रेमचंद ने भी आजादी का सपना देखा था। उनकी आजादी का मतलब ‘जान की जगह गोविंद’ को बिठाना नहीं था। उनकी समझ इस संदर्भ में गांधी और दूसरे से अलग भगत सिंह के करीब थी। उनका साहित्य विशाल किसान, मजदूर, शोषित उत्पीड़ित वर्गों के संघर्ष, हर्ष-विषाद, पक्षधरता और मुक्ति-स्वप्न का अप्रतिम उदाहरण है। आज आजादी के 75 वें साल में जब हम प्रेमचंद को याद करते हैं, तो उस स्वप्न के नजरिए से 75 साल के हिंदुस्तान पर हमारी नजर जाती है कि यहां जिस अमृत की बात हो रही है, वह चंद लोगों के हिस्से में क्यों रहा और समाज का बड़ा वर्ग उससे वंचित क्यों? उसके हिस्से विष तो नहीं?

प्रेमचंद की मान्यता थी कि न सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेश के अधीन भारत है बल्कि एक आंतरिक उपनिवेश भी है जो यहां के विशाल श्रमिक समाज को अपना गुलाम बनाए हुए है। इसीलिए जहां वे पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की बात करते हैं, वही सामंती जकड़न, पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता, धर्मांधता, ईश्वरवाद से भी उनका संघर्ष है। इस तरह प्रेमचंद की नजर में आजादी का आशय इस दोहरी गुलामी से मुक्ति में है।

यह फासीवादी दौर है। नफरत और विभाजन इसकी संस्कृति है। वे सारे मूल्य संकट में हैं जिन्हें आजादी के संघर्ष में अर्जित किये गए। प्रेमचंद ने रचना और विचार के द्वारा इन्हें प्रतिष्ठित किया था। सारी जिन्दगी संघर्ष किया। उन्होंने लोंगों को जगाने का काम किया। उनके लिए साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल थी। प्रगतिशीलता को साहित्यकार का स्वभाव माना था। उन्होंने कहा भी कि अब और अधिक सोना मृत्यु  का लक्षण है। आज का समय स्वयं के जागने और दूसरों को जगाने का वक्त है। इस फासिस्ट दौर में प्रेमचंद जागरण के प्रतीक हैं।”

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इस अवसर पर वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव जी ने प्रेमचन्द का स्मरण करते हुए कहा कि ” आज हम ऐसे कालजयी लेखक को याद कर रहे हैं जिनका रचनात्मक लेखन, वैचारिक लेखन भारतीय समाज में हस्तक्षेपकारी रहा है। उन्होंने जब लिखना शुरू किया था वो समय देश के स्वाधीनता आंदोलन के साथ हिंदी साहित्य के निर्माण का भी काल रहा है। स्वतत्रंता आंदोलन में जो मूल्य हम ने अर्जित किये हैं उनका अपने साहित्य में स्थान देते हैं प्रेमचन्द जी। उनको याद करते हुए उनके सरोकारों से जुड़ने की सच्ची कोशिश होनी चाहिए। आज प्रेमचन्द का भी अधिग्रहण हो रहा है। हमारे सामने यह चुनौती है कि प्रेमचन्द की जो चिंताएँ हैं जो हमारे समय की भी चिंताएँ हैं उनके खिलाफ संघर्ष कैसे किया जाए?”

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कार्यक्रम में विषय प्रवर्तन करते हुए जसम राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य डॉ. सुरेंद्र सुमन ने कहा कि
“प्रेमचन्द अपने समय में हमारे समय का नेतृत्व करने वाले कालजयी कथाकार हैं। यह सच है कि अभी का काल प्रेमचन्द का काल नहीं है तो आज का साम्राज्यवाद भी पहले का साम्राज्यवाद नहीं है। अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने देशी ब्राह्मणवाद और सामंतवाद से गठजोड़ करके हमारे मुल्क पर शासन किया था तो आज का कॉरपोरेटपरस्त पूंजीवाद भी ब्राह्मणवाद से गठजोड़ कर फासीवादी बर्बरता के शिकंजे में पूरे मुल्क को जकड़ लिया है। आज के इसी शोषण-उत्पीड़न के वट-वृक्ष के समूल नाश के लिए प्रेमचन्द ने अपने जमाने में आगाह किया था। तभी तो ‘आहूति’ कहानी की रुक्मिणी कहती है ‘हमें जॉन की जगह गोविंद नहीं चाहिए।’

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कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे जसम के वर्तमान जिलाध्यक्ष डॉ. रामबाबु आर्य ने कहा कि “प्रेमचन्द ने अपने साहित्य से हाशिये के समाज को स्वर देना का महती कार्य किया। उनके समय में चलने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक आंदोलनों को उन्होंने स्वरूप प्रदान किया।”

अपने अध्यक्षयी उद्बोधन में अध्यक्ष मंडल में शामिल जसम के संस्थापक जिलाध्यक्ष प्रो. अवधेश कुमार सिंह ने कहा कि ” प्रेमचंद केवल कथा सम्राट नहीं हैं वो जनसाहित्य के सबसे बड़े सिद्धांतकार थे। उनका साहित्य जनता के आंदोलन का साहित्य है।”

राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने वाले प्रतिभागियों स्नेहा कुमारी, सबा रौशनी, ज्योति प्रकाश, दीपक कुमार, समरेश कुमार, अभिनव कुमार, शशिकांत कुमार आदि को प्रमाण पत्र जसम दरभंगा के संस्थापक जिलाध्यक्ष प्रो. अवधेश कुमार सिंह, डॉ. रामबाबू आर्य, डॉ. सुरेन्द्र के द्वारा प्रदान किया गया।

कार्यक्रम में जसम दरभंगा के महत्वपूर्ण साथी हृषिकेश झा, भोला जी, मोइनुद्दीन अंसारी, संजय कुमार एवं कतिपय छात्र-छात्राओं की उपस्थिति रही। कार्यक्रम का संचालन जसम दरभंगा के जिलासचिव समीर ने किया।



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