नेपाल में महिला ही महिलाओं की विरोधी निकली : प्रेमचन्द्र सिंह (लखनऊ)
2 years agoलखनऊ से प्रेमचन्द्र सिंह। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर नेपाल जम्बूदीप अर्थात भारतीय उपमहाद्वीप का हमेशा से हिस्सा रहा है और भारत के प्रख्यात लिच्छवी गणतंत्र के अंतर्गत नेपाल समय-समय पर कोशल महाजनपद, पांचाल महाजनपद, मल्ल महाजनपद, काशी महाजनपद और वृश्चिक महाजनपद का हिस्सा भी रहा है। इसके बाद नेपाल भारत के नन्द साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य, सुंग साम्राज्य, कुषाण साम्राज्य, गुप्ता साम्राज्य, कारकोटा साम्राज्य और पाल साम्राज्य का भी महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह कालखंड वैदिक सभ्यता के भारत में आगमन के बाद से लेकर ईशा सदी के 12 वी शताब्दी के पूर्वार्ध तक का है। इतने दिनो तक साथ रहने के कारण नेपाल में धर्म, संस्कृति, भाषा, परंपरायें सबकुछ भारत के समान ही था और दोनो में कोई विशेष अन्तर नहीं था। बात 18 वी सदी की है जब पृथ्वी नारायण शाह ने नेवार वैली (काठमांडू) को जीता। उसी समय भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की साम्राज्यवाद की शुरुआत हो रही थी। ब्रिटिश भारत ने नेपाल को चीन और भारत के बीच एक बफर स्टेट बनाने के लिए नेपाल को स्वतंत्र देश रहने देना उचित समझा। भारतीय संस्कृति में आज भी महिलाओं को देवी का सम्मान प्राप्त है और नवरात्रि में उनकी नौ रूपों की पूजा की जाती है। महिला को अपमानित और आतंकित करने वाले को दुर्गा सप्तशती में राक्षस कहा गया है।भारतीय पृष्ठभूमि से मिलता नेपाल की संस्कृति में भी महिलाओं के प्रति भेदभाव और अपमान का दृष्टिकोण कदापि नेपाली समाज की परंपरागत संरचना और उनकी मिजाज से मेल नहीं खाती है।
आमतौर पर महिलाओं के प्रति पितृसत्तात्मक रवैया का घोर विरोध समय-समय पर समाज सुधारकों द्वारा विश्वभर में किया जाता रहा है और उसका परिणाम आज हमारे सामने लैंगिक समानता, महिलाओं को शिक्षा,रोजगार तथा जीवन के हर क्षेत्र में समान अवसर, परिवार,समाज और राष्ट्र के निर्णयों में समान भागीदारी के रूप में सामने है। इसके बाबजूद नेपाल की महिला राष्ट्रपति ही वहां की महिलाओं के बीच भेदभाव और अपमान का नेतृत्व करे, महिलाओं की पहचान को भौगोलिक सीमाओं का पर्याय बनाने का पहल करे..यह नेपाल की महान सांस्कृतिक विरासत पर एक ऐतिहासिक कलंक से कम नहीं है। लोकतंत्र में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तो किसी राजनीतिक दल का नही होकर पूरे देश, पूरे राष्ट्र के लिए होते है, इन पदों पर आसीन होते ही वे राजनीतिक दलों की दलगत राजनीति से ऊपर उठ जाते है। इन पदों पर रहते हुए अगर कोई व्यक्ति दलगत राजनीति में आकंठ डूबा रहे, तो निश्चय ही उनका व्यक्तित्व उन पदों तथा लोकतांत्रिक गरिमा के अनुरूप नहीं है। प्रजातंत्र में इन पदों पर बैठे लोग तो जाति, धर्म,भाषा, लिंग और क्षेत्रता से ऊपर उठकर राष्ट्र निर्माण के लिए समभाव से राष्ट्रीय एकता और अखंडता, सामाजिक न्याय और आपसी बंधुता की भाव को विकसित करने के लिए निष्पक्षता से अपने देशवासियों की सेवा करते हैं। अभी हाल में प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउवा जी की नेतृत्ववाली नेपाली कांग्रेस की वर्तमान सरकार की लोकतांत्रिक सूझबूझ और ऐतिहासिक संविधानिक त्रुटि को सुधारने के प्रयास के फलस्वरूप नेपाली नागरिकता संशोधन बिल, 2022 को दो बार संसद से अनुमोदित कराकर भेजने के बाबजूद नेपाल की महामहिम राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति नही देना नेपाल में एक नया संविधानिक संकट और राजनीतिक विवाद का श्रीगणेश है।
भारत नेपाल की साझा सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत की उपरोक्त पृष्ठभूमि में भारत और भारत सीमा के निकटवर्ती नेपाली मधेश में शादी-विवाह का चलन आज से नही सदियों से चली आ रही है। इन्ही परंपराओं के तहत भारत-नेपाल के सीमावर्ती भारतीय इलाकों से भारत की बेटियां भी मधेश में ब्याही जाती रही हैं। सामान्यतया तो ब्याही गई भारतीय लड़कियों को अपने नेपाली पति की तरह उन्हे भी ब्याह होते ही नेपाली नागरिक हो जाना चाहिए, लेकिन नेपाल की वर्तमान में प्रचलित कानून ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है। वर्तमान नेपाली नागरिकता कानून बनाने की कोशिस की जरही है जिसने भारतीय मूल की नेपाली बहुओं (विदेशी महिलाओं) को नागरिकता प्राप्त करने के लिए सात वर्ष की प्रतीक्षा कालखंड के साथ ही अपने पूर्व नागरिकता विच्छेदन संबंधित कठोर प्राविधान है, जो अपने आप में अजूबा से कम नहीं है। इन सात वर्षों की प्रतीक्षा काल में उन महिलाओं और उनके बच्चों की स्थिति राज्यविहीन व्यक्तियों की होना स्वाभाविक है। मधेश के लोग इस संवैधानिक विसंगति के विरोध में कई वर्षों से आंदोलित है कि उनकी भारतीय मूल की धर्मपत्नियों को अलोकतांत्रिक तरीके से सात वर्षों तक नेपाल की बहू बनने के बाद भी उन्हें नेपाली नागरिक का हैसियत प्राप्त नहीं है। नेपाली नागरिकता कानून में इस अलोकतांत्रिक प्राविधान लागू करने के लिए श्री के.पी.शर्मा ओली के नेतृत्ववाली सीपीएन (यूएमएल) की सरकार ही पूरी तरह कोशिश कर रही है। इस सात वर्ष की प्रतीक्षा वाली असमतामूलक और भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून से नेपाल की नेपाली कांग्रेस की वर्तमान सरकार भी सहमत नही है और वह चाहती है कि नेपाल में सबके लिए समान नागरिकता कानून हो। इस अलोकतांत्रिक प्रावधान को नेपाल की श्री शेरबहादुर देउवा की नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार समाप्त करते हुए संशोधित नागरिकता कानून विधयक, (जो की पूर्ववत है) 2022 नेपाली संसद से अनुमोदित कराकर राष्ट्रपति जी की स्वीकृति के लिए भेजा, लेकिन नेपाल की राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी जी इस संशोधित नागरिकता विधयक से सहमत नही होते हुए वापस कर दिया। नेपाल की संविधान के प्रविधानानुसार अगर कोई विधयक दूसरी बार संसद से अनुमोदित होती है तो उस विधयक पर स्वीकृति प्रदान करना महामहिम की बाध्यता है। प्रधानमंत्री देउवा की सरकार दुबारा संसद से उस संशोधित नागरिकता विधयक को पुनः पारित कराकर दुबारा महामहिम राष्ट्रपति जी के अनुमोदनार्थ भेजा, फिर भी महामहिम जी ने अपनी असहमति जाहिर करते हुए संसद द्वारा पारित विधयक को स्वीकृति प्रदान नही की। महामहिम का तर्क है कि संविधान की रक्षा करना राष्ट्रपति के दायित्यों में से एक है और संसद द्वारा अनुमोदित नागरिकता विधयक देश हित में नहीं है। संभवतः महामहिम अभी भी अपने को नेपाल की राष्ट्राध्यक्ष की जगह सीपीएन(यूएमएल) की उपाध्यक्ष ही समझती है।
वर्ष-2006 में नेपाल में राजतंत्र के पतन के बाद नेपाल में बहुदलीय लोकतंत्र औपचारिक रूप से वर्ष-2008 में आया, लेकिन नेपाल की संविधान नेपाल में वर्ष-2015 में लागू हो पाया। राजतंत्र के पतन के साथ ही लोकतांत्रिक नेपाल में वर्ष-2006 में ही पहला नागरिकता कानून, 2006 लाया गया जिसमे प्राविधान था कि नेपाली नागरिकों की विदेशी पत्नियों (मुख्यतःभारतीय महिलायें) को शादी के साथ ही नागरिक बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। इस नागरिकता कानून को के.पी.शर्मा ओली जी की प्रधानमंत्रित्व वाली सीपीएन (यूएमएल) की सरकार ने वर्ष-2018 में संशोधित करते हुए नेपाल की विदेशी बहुओं खासकर भारतीय महिलाओं की नेपाली नागरिकों से शादी के सात साल बाद उन महिलाओं की नागरिक बनने की प्रक्रिया शुरु करने के लिए उन्हें अपने पूर्ववर्ती देश की नागरिकता विच्छेदन प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की अनिवार्यता संबंधित अलोकतांत्रिक प्राविधान को जोड़ा दिया गया और यही पास करवाना चाहते थे। इस कानून संशोधन का मधेशी लोगों, कई राजनीतिक दलों सहित नेपाल की प्रगतिशील आवाम द्वारा कड़ा विरोध हुआ। अब जब इन लोकतांत्रिक विरोधों के समाधान के लिए वर्तमान सरकार कानून संशोधन के लिए संवैधानिक तरीके से आगे आ रही है तो नेपाल की महामहिम स्वयं उनके सामने अवरोध बनकर खड़ी हो गई है।
अब जरा वर्तमान नेपाल की केंद्रीय विधायिका की मूलभूत संवैधानिक संरचना को समझने का प्रयास करते है। नेपाली संसद के दो भाग है, निचले सदन को प्रतिनिधि सभा और ऊपरी सदन को राष्ट्रीय सभा कहते हैं। प्रतिनिधि सभा में कुल 275 सांसद होते हैं और इसमें वर्तमान सरकार की 158 सांसद हैं और विपक्षी दलों (मुख्यता श्री ओली की सीपीएन, यूएमएल) की कुल 95 सांसद हैं। ऊपरी सदन राष्ट्रीय सभा में कुल सांसदों की संख्या 59 है जिसमे देउवा सरकार की 39 सांसद हैं और विपक्ष सहित अन्य सांसदों की संख्या 20 (18+2) है। निचली सदन में 135 सांसदों की बहुमत से संशोधित नागरिकता विधयक, 2022 पारित हुआ और ऊपरी सदन राष्ट्रीय सभा में भी इसी तरह सांसदों द्वारा ध्वनिमत से विधयक पारित कर दिया गया। संसद से पारित इस संशोधित विधयक में दो प्राविधान विशेष रूप से उल्लेखनीय है- पहले प्राविधान के तहत नेपाल की विदेशी बहुओं के लिए सात वर्ष की प्रतीक्षाकाल की बाध्यता नहीं रखा गया है और दूसरे प्राविधान के अंतर्गत उन नेपाली महिलाओं (सिंगल मदर्स) के बच्चों के लिए भी नेपाली नागरिकता प्राप्त करने के लिए सशर्त सरकारी द्वार खोला गया है जिनके पिता की पहचान अज्ञात है। इस संसदीय विधयक को कानून बनने के लिए राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है, दो बार संसद द्वारा ध्वनिमत से पारित विधयक को महामहिम द्वारा स्वीकृति के बिना ही वापस कर दिया गया है। महामहिम विद्या देवी भंडारी जी ओली जी की पार्टी की पूर्व नेत्री हैं और अपनी पूर्व पार्टी की मोह-बंधन से अभी भी मुक्त नहीं हो पाई हैं। बताते चले कि ओली जी ने इस ज्वलंत लोकतांत्रिक मुद्दे को राष्ट्रवाद का राजनीतिक रंग देने में भी कोई कोरकासर नही छोड़ा। ओली जी की सरकार के समय भी इस मुद्दे पर बनी संसदीय समिति की सिफारिशों को सदन के पटल पर आने नही दिया गया।
याद दिलाना समीचीन ही है कि कुछ ही वर्ष पूर्व ओली जी की सरकार पर इन्ही महामहिम जी की ऐसी दिव्य कृपा थी कि नेपाल की उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से नेपाल की संवैधानिक लोकतंत्र को बचाया जा सका। प्रधानमंत्री ओली जी की प्रधानमंत्री के कार्यकाल में उनकी चीन की राजनयिकों से घनिष्ठता, चीन की बेल्ट और रोड इनिशिएटिव के तहत नेपाल में चीनी आर्थिक निवेश, नेपाली स्कूलों में चीनी भाषा मंडरीन की पढ़ाई, नेपाली भूमि पर चीन का कब्जा आदि सरीखे अनेकों घटनायें समाचार पत्रों की सुर्खियां बनी हुई थी। राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी कहना है कि ओली जी और उनका राजनीतिक दल नेपाली राष्ट्रवाद की आड़ में नेपाल की पहाड़ी बनाम मधेशी,भारत बनाम चीन, देशी बनाम विदेशी सरीखे कई बेबुनियादी मुद्दों को आधार बनाकर अपनी राजनीतिक लक्ष्यों को साधने का भरपूर प्रयास किया ताकि नेपाल की समन्वित विकास के विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों से नेपाली आवाम को भटकाया जा सके। इन सभी राजनीतिक हथकंडों के बाबजूद नेपाल की सशक्त एवं समदर्शी न्यायपालिका ने नेपाल की मूलभूत संवैधानिक संरचना को टूटने से बचाया है और अब पूरी संभावना है कि वर्तमान नागरिकता संशोधन कानून, 2022 को भी सर्वमान्य नियति तक पहुंचाने का श्रेय नेपाल की समर्थ और इंसाफपसंद न्यायपालिका को ही मिलने वाला है।