जीत का जश्न
मुकुन्द आचार्य:लोग कितनी आसानी से कह देते हैं कि अरे यार ! हारी जीत तो जिन्दगी में लगी रहती है। हारजीत जिन्दगी रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। हारने पर क्या रोना और जीतने पर क्या अकडÞना। मगर इन बातों का असर हारने-जीतने वालों पर बिल्कुल नहीं पडÞता। हारने वाला मुँह लटकाए ऐसे घूमते हैं, जैसे उन्हंे फांसी की सजा होने वाली है । और जीतने वाले का तो कहना ही क्या – बाँछें खिली रहती हैं, सारी दुनियाँ को वह अपने सामने बौना समझने लगता है।
दुनियाँ इसलिए तो रंगबिरंगी लगती है। जा के पांव न फटे, बेबाई, सो क्या जान पीर पर्राई -ऐसा हार ने वाला कहेगा। जीतने वाला कहेगा- जो जीता, वही सिकंदर। हाल ही में संविधान बनाने के लिए लालायित लोगों का निर्वाचन हुआ। लोग कहते हैं, इन ‘ लालायित’ महोदयों को ठीक से पता भी नहीं है कि संविधान किस चिडिÞया का नाम है। यह संविधान बनाने के लिए नहीं, खुद को आर्थिक रूप से स्वस्थ बनाने के लिए आतुर हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या ! पढेÞलिखे को फारसी क्या ! आगे- आगे देखिए होता है क्या ! जीतने वाले ऐसी चालाक बिल्ली हैं, जिनके भाग्य से दही -जीत) का छींका टूटा है। और अब ये सभी जितने वाले उजला तरल पदार्थ चाटने के लिए परम आतुर हैं। ऐसे ही चतुर लोग जीत का जश्न दिल खोल कर मना रहे हैं। जितने वाले सभी लुच्चे-लवार हों ऐसी बात तो बिल्कुल नहीं है। फिर भी बहुतों का एकलव्य प्रयास देश को कुतरने में लगा रहेगा। यह तो सबकी जानी मानी बात है। है कोई माई का लाल जो इस बात को झुठला दे – पहली संविधानसभा क्यों नाकामयाब रही – सब को पता है। जीतने वाले ने कैसे जीता,
यह खुदा जाने या जीतने वाला जाने। मगर जीत का जश्न तो शानदार लाजबाव और धांसू तो होना ही चाहिए। नहीं तो जश्न ही क्या। जीतने वाले की मूंछ का सवाल भी तो होता है। एक दूकान के शटर के पास वाले गटर में कोई सज्जन आराम से सोए पडÞे थे। औंधे मुंह गिरे हुए सज्जन बडÞे रुतवा वाले रहे होंगे। क्योंकि उनका प्यारा सा ‘पप्पू’ -एक कुत्ते का नाम जो आदमी से ज्यादा बफादार होता है बार बार उन्हें होस में लाने की नाकाम कोशिश कर रहा था। वेचारा अपने गिरे हुए मालिक को कभी सूंघता, कभी चाटता, कभी अपने शरीर से कुछ जल की बूदें निकाल कर मालिक के मुंह पर छिडÞकाव करता। जिस प्रक्रिया को आजकल की भाषा में ‘सूसू करना’ कहते हैं। मगर गटर में गिरा नामुर ाद होश में आने का नाम न लेता था। लगता था गटर इनकी महबूबा है, जो सालों बाद मिली है और ये जनाब अपनी महबूबा से लिपटे हैं, चिपटे हैं। अलग होने के तो आसार ही नजर नहीं आ रहे थे। एब बुजर्ुग पास स े गजु र रह े थ।े मनंै े उनस े उस गिर े हएु इन्सान क े बार े म ंे कछु जानना चाहा। बुजर्ुग ने कुछ हिचकिचाते हुए, मन्द व्यंग्य मुस्कान के साथ बताया- अरे ये जनाब नेता जी के करीबी दास्े त ह,ैं दाहिन े हाथ ह,ंै चनु ाव का आथिर्क पब्र न्धक यही महोदय तो थे। आप इन को नहीं जानते – लगता ह ै आप काठमाडं ू म ंे नए-नए आए ह।ंै इन का े ता े हर गली क े कत्तु े भी बखबू ी पहचानत े ह।ंै यह ता े आप पत््र यक्ष ही दखे रह े ह।ंै मैंने पूछा, इतने बडÞे आदमी यहां क्यों आर ाम फरमा रहे हैं – क्या घरवाली ने इन्हें घर से बाहर फेंक दिया है, पुराने सामान की तरह – अपने दौलतखाने में जा कर ऐशो आराम फर माते ! बुजर्ुग ने भेद खोला, ऐसी बात नहीं है। ये जीत के जश्न से आ रहे हैं। नेता जी ने चुनाव जीता है तो यकीनन उनके लग्गू-भग्गू और चमचे पी पा कर मतवाले तो बनेंगे ही। पी कर जो जोश में न आवे, होश न गंवाए तो यह पीना किस काम का – इतने में एक आधुनिक युवक प्रकट हुआ। उसका केश-विन्यास देख कर लगता था,
कोई अप्रिmकन संगीतकार है। उसका एक पैर और दो हाथ घायल अवस्था में दिखाई दे रहे थे। उससे मैंने पूछा, यार ! ये क्या हाल बना रखा है – कुछ लेते क्यों नहीं – युवक उबल पडÞा- कुछ लेने ही तो गया था। मगर अपनी बदकिस्मती देखिए ! गया था जीत का जश्न मनाने, एक पैर और दो हाथ गंवा कर आ रहा हूँ। चौवे गए छब्बे होने दूबे हो कर आए। मैंने अर्ज किया, जरा खुल कर इस मसले पर रोशनी डालेंगे – अबकी बार युवक उमडÞ-घुमड कर बरस पडÞा- संविधानसभा के लिए दूबारा चुनाव हुआ था न। आप तो अच्छी तरह जानते होंगे, मैंने घर-घर गली-गली फलां चिन्ह का प्रचार जोरदार ढंग से किया था। भोटरों को खरीदने में भी पैसा पानी की तरह बहाया था। आज जीतने बाले बरखुरदार मेरी नीयत पर शक कर रहे हंै। कहते हैं, सारी रकम मैं खुद ही डकार गया। इस बात पर हो गया दो-दो हाथ। मेरे आर्थिक चरित्र पर कीचडÞ उछालने वाले को मैं यूं ही कैसे छोडÞ देता। जूठी शारब साले के थोबडÞे पर उडÞेल दी, मैंने। साले, तेरा जश्न तुझे मुबारक। मुझे अकेला पाकर उसके चम्चों ने मुझ पर सामूहिक आक्रमण कर दिया। कुछ देर तक तो मैं वीर अभिमन्यु की तर ह लडÞता रहा। मगर अकेला अभिमन्यु कब तक लडÞता। उन दुष्टों ने मेरी एक टाङ और दो हाथ तोडÞ डाले। मेरे दोनों हाथ तोडÞते वक्त एक चूतियाँ तो ‘शोले’ फिल्म का डायलग भी बोल रहा था- ये हाथ हमें दे दो न्हुच्छेमान ! मैंने भी शान से दान दे दिया और कहा- दो हाथ ही क्यों एक पैर भी ले लो सालों। तुम भी क्या याद करोगे कि किसी र्रइस से पाला पडÞा था। अब तो आप समझ गए होंगे कि मैंने देश के लिए कितनी बडÞी कर्ुबानी दे डÞाली -इतना कह कर वह घनघोर घायल युवक महाभारत के शकुनी की तरह लंगडÞाते हुए वीरतापर्ूवक किसी ओर चला गया। ऐसे ही अवसर के लिए स्वामी मुकुन्दाचार्य फरमाते हैंः- खुशियाली है तो बेशक जश्न मनाओ फेंके हुए टुकडÞों पर लडÞ कर मातम न मनाओ। J