खिड़की ! जहाँ से कभी दिखे थे तुम… : अंशु झा
खिड़की
आज भी दाैड़ते हुए
वहीं, उसी खिड़की पर,
जा रूकी थी,
एक जिज्ञासा के साथ !
जहाँ से कभी दिखे थे तुम,
मन में पुनः एक
नई आशा पनपी थी,
कि काश ! आज भी
दरस मिल जाती तेरी !
हाँ, देखी थी तुझे,
कभी पूर्ण रूप में,
फिर कटते- कटते
हाे गया था ओझल,
बहुत दूर तलक
निहारती रही ये अँखियाँ,
तेरे अन्तिम पद्चाप काे
अहसास किया था धड़कनाें ने,
फिर खामाेश हुआ था मनाेभाव,
वातावरण हुआ था,
अमावस का सिकार ,
चाराे तरफ अंधेरा ही अंधेरा,
एकदम से सन्नाटा ।
संवेदनशील आँखें,
भर लिए थे आँसू,
अपने सफेद तालाव में,
उसका छलकना आैर
राेशनी का आना
दुरूह क्रिया थी,
उसी खिड़की के सहारे,
सम्भाला था उसने खुद काे ।
विडम्बना ! फिर से,
उसी खिड़की पर
वहीं जा बैठी ।