कैलाश महतो । पटना के खान सर कहते हैं, “हीरा जल्द थोडे ही मिलता है । समय लगता है । आप अगर छोटा घर या झोपड़ी बनायें, तो चन्द दिन या छोटा समय लगेगा । मगर अगर मकान बडा बनाना हो, तो प्रतिक्षा और धैर्य तो करना होगा न ! उसके लिए लम्बे वक्त लग सकता है, अगर शानदार इमारत बनाने हों । डिजाइनिङ्ग, इन्जिनिरिङ्ग और लगानी भी उतना ही महत्व रखता है ।”

अगहन ४ के निर्वाचन के आड में बने नेपाली संघीय संसद में जो नाटक चल रहा है, वह दुनिया के लिए एक अजीबोगरीब तमाशा है । शेर बहादुर जी के गठबन्धन में रहे प्रचण्ड ने चमत्कारिक रुप से अपने जानी राजनीतिक शत्रु कहे जाने बाले ओली जी के हिम्मत और सहयोग से अपने नाम पर नेपाल के संघीय सरकार बना ली । चमत्कार को देख चुनाव में सबसे बडा दल बने नेपाली काँग्रेस और उसके मुखिया देउवा ही आसमान से नहीं गिरे, अपितु सारा देश और जनता दांतों तले जीभ दवाने लगे । क्षण में ही राजनीतिक सारा रंग बदल गया । राजनीतिक विश्लेषकों ने मान लिया कि यह राजनीतिक हिसाब बाह्य है ।
सरकार बनाने के लिए आवश्यक १३८ सांसदों के संख्या को ओली ने प्रचण्ड के लिए १६९ पहुँचा दिया । देखते ही देखते प्रचण्ड जी के साथ वे राजनीतिक शक्तियाँ भी खड़ी हो गयी, जिसकी बडे बडे राजनीतिक धुरन्धर लोगों ने भी कल्पना नहीं की थी । प्रचण्ड का कट्टर विरोधी रहे अमरीकी नागरिक रवि लामिछाने, संघीय गणतांत्रिक व्यवस्था इत्तर के राप्रपा, कभी नेपाल और नेपाल के संविधान को ही अस्वीकार करने बाले सिके राउत और धरातलीय रुप में ही थारु को दास बनाने बाले खस बाहुन पार्टी नेतृत्व के पक्ष में जेल में रहे रेशम थारु समेत ने साथ और समर्थन कर दिये । हर चीज असमंजसीय, अकल्पनीय और केमिस्ट्री विपरीत के हो गये ।
इन्हीं लम्हों के बीच अनमिन द्वारा निर्णीत २०६४ का चैत्र ७ के गौर काण्ड को नेपाल के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा पून: अनुसंधान करने की व्यक्तव्यबाजी और टिकापुर घटना से सम्बन्धित लाल आयोग को सार्वजनिक करने के रास्ते संभवत: उस आयोग में दस्तावेजित मधेशी नेताओं द्वारा घटना से कुछ दिन पूर्व टिकापुर में किये गये आमसभा में दिये गये उत्तेजक भाषणों को भी पर्दाफाश करने की जुगाड की खतरा है । गौर घटना के साथ ही टिकापुर घटना समेत को दस्तावेजीकरण कर एक, या कुछ थप मधेशी नेताओं को शिकार बनाने का षड्यन्त्र राज्य द्वारा बडी चालाकी से मधेश के ही दो शक्तियों के द्वारा करवाना एक खास राजनीतिक चाल है, जिसे न तो शायद सीके राउत समझ सके हैं, न नागरिक उन्मुक्ति पार्टी । यह सब चाल एक शातिर दिमाग का ही हो सकता है, जिसे मधेश के बडेमान के राजनीतिज्ञ भी शायद ही भांप पाये हों । उसी का परिणाम जनमत और नागरिक उन्मुक्ति पार्टी का कार्यगत सहमति होने का कुछ सुक्ष्म विश्लेषकों का मानना है ।
स्मरण रहे – २०७२ भाद्र ७ गते के दिन आयोजित टिकापुर के उस आमसभा में स्वतन्त्र मधेश गठबन्धन के तरफ से डा. राउत ने मुझे भी सामेल होने के लिए निर्देश किया था । उन्हें मैंने उस कार्यक्रम में हमारा भाग लेना अशोभनीय होने की बात कही थी । पर सिके जी ने मुझे वहाँ जाने के लिए व्हीप ही लगाया था यह कहते हुए कि मुझे हर हाल में उस आमसभा बोलना है – जब हमने उन्हें यह कहा कि नेपाल बन्द के अवस्था में सवारी साधन के अभाव में पहुँचना असंभव है ।
उन्होंने जब यह निर्देश किया कि वे कुछ नहीं जानते – किसी भी तरह, साइकिल से हो, या पैदल, नेपाल के रास्ते हो, या भारत के रास्ते – वहाँ जाकर भाषण देना है, तो मुझे संशय हुआ । हमने सोंचा कि जिन मधेशी दलों और नेताओं से हमारी बनती नहीं, हमारा उनसे कोई मुद्दे मिलते नहीं, वह कार्यक्रम भी हमारा है नहीं – फिर वहाँ जाने के लिए सिके जी द्वारा दबाब क्यों दिया जा रहा है । हमने उस कार्यक्रम में अब्दुल या इरफान जी को भेजने का भी आग्रह किया । मगर उनका जिद्द यह रहा कि उस विशाल मंच पर मैं उपयुक्त रहूँगा । चाहते तो हम भारत के रास्ते टिकापुर जा सकते थे । मगर मैंने भी जिद्द पकड ली कि जिस कार्यक्रम से हमारा कोई लेना देना नहीं, उस कार्यक्रम में मैं नहीं जाऊंगा ।
सरकार बनने के तुरन्त पश्चात संघीय लोकतान्त्रिक गणतान्त्रिक नेपाल के प्रणेता प्रधानमंत्री से उस कथित नेपाल के एकता दिवस पर सार्वजनिक राष्ट्रीय विदा देने पर मजबूर किया जाता है, जो किसी भी मायने में राष्ट्रीय एकता दिवस नहीं है । स्मरण रहे – पृथ्वीनारायण शाह का जन्म तिथि 11 जनवरी, 1723 है, और नेपाल का नामाकरण ई. पू. २७१ में होने की इतिहास है । वह नामाकरण भी “ने” नामक कोई “मधेशी” ऋषि ने किया था । उससे पहले “नेपाल” (काठमाण्डौ, ललितपुर, भक्तपुर और किर्तिपिर) का नाम “सत्यवती”, ” सांग्रिला” और “देवदह” माना जाता है । पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल को एकीकरण नहीं, कमजोर और दयनीय गोर्खा राज्य का विस्तार किया था । नेपाल में अत्याचार किया था ।
नेपाली इतिहासकारों के ऐतिहासिकरणों ने समेत यह प्रमाणित किया है कि प्राचीन नेपाल से पूर्व के पूर्व प्राचीन नेपाल में भी गुप्त और अहिर वंशियों से लेकर सन् १७६८-६९ तक के सारे मल्ल शासक वंश भी मधेशी रहे हैं । तत्कालीन नेपाल और वर्तमान के काठमाण्डौ के सारे सभ्यता मधेशी शासकों ने स्थापित की है । इतिहासकारों के अनुसार भी पृथ्वीनारायण शाह ने केवल बाइसे-चौबीसे राज्यों का अतिक्रमण कर गोर्खा राज्य विस्तार का अभियान चलाया था, जिसमें मधेश की एक भी इंच भूमि नहीं पडती है । उन्होंने कोशिश तो की थी, मगर मधेश में उनका एक नहीं चली । अंग्रेजों ने बेइमानी और बदमासी न की होती, तो किसी पृथ्वीनारायण शाह या गोर्खा सैनिक की हैसियत से मधेश को नेपाल बनना या बनाना नामुमकिन प्राय: था ।
बदनियतपूर्ण ढंग से संश्लेषित नेपाली इतिहासों को सुक्ष्मत: विश्लेषण करें, तो पता यह भी चलता है कि वि.सं.१८२४ में पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल उपत्यका हथियाने के बाद जब “नेपाल” का नाम बदलना चाहा, तो न तो तत्कालीन नेपाल उपत्यका के बासिन्दाओं ने स्वीकार किया, न विदेशी लोगों ने । बाध्यतावश उन्होंने “नेपाल” के बदले नेपाल का नाम “गोर्खा” नहीं रख पाया, जिसके परिणामस्वरूप अपने साथ रहे फौजों का नाम “गोर्खाली फौज” रखा । कुछ पत्र लिखे जाते थे, जिसे “गोरखापत्र” कहा गया, जो आज पर्यन्त कायम है ।
पृथ्वीनारायण शाह को मधेशी सेनाओं के साथ नेपाल उपत्यका में जो बार बार लोहे की चना चवाना पडा था, उसके कारण सन् १८६६-६७ से ही घबराये हुए थे । काठमाण्डौ, ललितपुर, भक्तपुर और किर्तिपुर को कब्जा करने के बाद मधेशी सेनाओं पर अघोषित प्रतिबंध लगाया गया, जिस परम्परा को पृथ्वीनारायण शाह के बाद के वंशों और शासकों ने भी कायम रखा ।
जबसे पृथ्वी जयन्ती पर सरकारी सार्वजनिक विदा देने की बात हुई है, सैकड़ों चिन्तक और विश्लेषकों ने इसका घोर विरोध किया है । पृथ्वीनारायण शाह ने अपने राज्य में खस, ठकुरी, मगर और गुरुङ्गों के आलावे किसी भी समुदाय को एकीकरण के दायरे में नहीं रखा । बाद के शाह और राणा वंशीय शासकों ने उन मगर और गुरुङ्गों को भी शासन सत्ता से दूर कर दिया । आज भी पहाड़ी जनजातियों को राज्य ने राजनीतिक पहुँच से और मधेशियों को नेपाली पहचान के पहुँच से दूर रखने की रणनीति और राजनीति अख्तियार की है । पहाड़ी जनजातियों को तो राज्य कमसे कम नेपाली मानता भी है, भले ही उसके पास नेपाली नागरिकता भी न हों । मगर मधेशियों के पास नागरिकता होने के बावजूद उसे नेपाली माने जाने पर अनेक संशय, संदेह और बदतमिजी की जाती है ।
संघीयता विरोधी, गणतन्त्र विरोधी, पहचान विरोधी, लोकतन्त्र विरोधी और मधेश को भौगोलिक तथा मधेशियों को अस्तित्विक रूप में ही समाप्त करने के फिराक में रहे राज्य, राजनीति, पार्टियाँ, उनके नेतृत्व, सदन, सरकार, शासन और सत्ता के प्रति अगर मधेश सचेत न रहा तो हमारे पूर्खों द्वारा अर्जित, नामाङ्कित और शासित नेपाल को दवोचकर हमें ही “नेपाली” न होने का जामा पहनाया जाता है, और निकट भविष्य ही हमें मधेशी भी न होने पर मजबूर किया जायेगा । उसके लिए राज्य ने हमारे ही कुछ चाटुकार मधेशी गुलामों से कार्यक्रमें भी संचालन करवाने में मलजल करना शुरु किया है ।
जो और जैसा भी हो, हम पृथ्वीनारायण शाह के एकीकरण अन्तर्गत के नेपाली नहीं, अपितु हम अंग्रेज़ी हुकूमत के द्वारा सन् १८१६ और १८६० में जबरदस्ती बनाये गये कठपुतली नेपाली हैं ।
पृथ्वी जयन्ती मधेश के लिए तब ही अर्थपूर्ण हो सकता है, जब मधेश के भूगोल के साथ राज्य इंसाफ, और मधेशियों के पहचान और सम्मान के साथ राष्ट्रीय प्रतिष्ठा समानता के आधार पर प्रदान करेगा ।