मीटर ब्याज की अर्थ-राजनीति : कैलाश महतो
कैलाश महतो, परासी, काठमांडू, १५ चैत ।
“सबके पगडियों को
हावा में उछाला जाये
सोचता हूँ कोई
अखबार निकाला जाये
पीकर जो मस्त हैं
उनसे तो कोई खौफ नहीं
पीकर जो होश में हैं
उनको संभाला जाये” — राहत इंदौरी ।
राहत इंदौरी की उपरोक्त काव्य दर्शन में इतनी बडी रहस्य छिपी है कि नेपाल के मौजूदा राष्ट्रीय चरित्र को परिभाषित करने को काफी है ।
अन्तर्राष्ट्रीय अनेक आर्थिक सर्वेक्षणों ने जनाउ घण्टी बजा दी है कि नेपाल आर्थिक तुष्टिकरण के अन्तिम मुहाने पर है । देश की आर्थिक जोन अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ विज्ञान में Grey List में दाखिल है और अगर होश में नहीं आये, तो चन्द दिनों या महीनों में नेपाल की आर्थिक ढांचा Red List में जाना तय माना जा रहा है ।
अन्तर्राष्ट्रीय अनेक संकेतों और हिदायतों के बावजूद नेपाल ने अपने आर्थिक परिस्थितियों को दुरुस्त करने के तरफ ध्यान न देने के कारण जो भी हों, मगर मुझे लगता है कि ध्यान न देने के पीछे का कारण केवल इतना हो सकता है कि इसका अर्थ अवस्था बिगडना राज्य के पहरेदारों के लिए लाभ दांव की बात है । राज्य संचालक शासकों की यही मनस्थिति कि नेपाल का आर्थिक अवस्था बिगडना ही उनके लिए लाभ है, क्योंकि उस अवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय राष्ट्र समूहों और अर्थ मण्डलों का बाध्यकारी निर्णय बनेगा कि नेपाल को आर्थिक संकट से बचाया जाय ।
कभी कभी यह कहानी हम अपने बाप दादों से सुना करते थे कि किसी समय भारत में आर्थिक संकट की परिस्थिति आई थी । संसार को मालूमात है कि भारत अंग्रेजों के द्वारा लूटे मारे गये देश रहा है । आर्थिक समस्या वहाँ होना स्वाभाविक रहा होगा । मगर देशभक्ति की नशे ने वहाँ के राजनेताओं और धनाढ्यों में ऐसा नशा और तरकीब चढाया कि राज्य, राजनीति, राजनेता और पैसे बाले धनाढ्यों ने अपने पास रहे पैसों को सरकारी सहयोग में लगाया और भारत को आर्थिक संकट से उबाडकर मजबूत भारत बनने में सफलता दिला पाई । उसका बहुमूल्य श्रेय तत्कालीन अर्थ मन्त्री रहे डा. मनमोहन सिंह को जाता है ।
वैसे भारत की जन अवस्था मजबूत नहीं है । दुनिया में सबसे ज्यादा कंगाल, गरीब और मजदूर पैदा करने बाला देश भारत भी है । मगर उसकी अर्थ राजनीति इतनी मजबूत है कि संसार के अव्वल राष्ट्रों के गिनती में वह अपने को खडा कर सकता है । उसका प्रमाण है कि वैज्ञानिक और सामरिक ढांचों में वह वैश्विक मापदण्डों को बखूबी मेन्टेन करता है ।
भारत कोई राष्ट्र भी नहीं था । अनेक छोटे बडे राज्य और राजे राजवाड़े में भीडन्त के राजनीतिक जीवन के शिकार भारत को एक राष्ट्र राज्य का रुप अंग्रेजों ने प्रदान की । उसमें भी उसकी अपनी स्वार्थ थी । मगर अंग्रेजों के द्वारा किए गये राष्ट्र निर्माण और आर्थिक शोषण तथा अत्याचार ने भारत में एक चेतना और जेहन भी निर्माण यह कर दिया कि भारत की एकता और समग्रता ही उसका उन्नत भविष्य है । उसी का परिणाम है कि भारत का हर युवा अपने देश के लिए मरने और मारने का हैसियत रखता है । मगर हम केवल उसका इतिहास पढते हैं । उसका कहानी सुनाते हैं । गाँधी, नेहरु, पटेल, भगत सिंह, आजाद, लक्ष्मी बाई, आदि इत्य का उदाहरण देते हैं । मगर हम वे और वो बनने को तैयार नहीं हैं ।
ऐसी बात नहीं है कि हम गर्व करने बाले शहीदहीन देश के जनता हैं । मगर हमने अपने शहीदों को भी उस समग्रता में पहुँचाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई, जहाँ पर हम भगत सिंह, गाँधी, लक्ष्मी बाई और आजाद साहबों को देख लेते हैं । सबसे कष्टकर बात यह कि हमने शहीदों के शहादत पर भी भद्दे राजनीति कर ली हैं । जिस देश में शहीदों के साथ भी विभेद और नश्लीय राजनीति हो, वहाँ लोग शहीद भी बनने से कतराते हैं । और मनोवैज्ञानिक हकिकत यही है कि जिस देश में शहीदों का समान उच्च सम्मान न हों, वह देश राजनीतिक और आर्थिक रुप में कंगाल रहेगा ही ।
आश्चर्य की बात तो यह भी है कि आर्थिक संकट के परिधि में रहे नेपाल में आर्थिक संकटीय ढांचा और परिणाम भी फरक फरक दिखाई देता है । देश के आर्थिक मेरुदण्ड रहे मधेश-तराई के जनता को मीटर ब्याज का शिकार होना, लघु वित्तीय संस्थाओं का गुलाम होना और मधेश में स्थित बैंकों का अनाहक कर्जदार होना क्या दर्शाता है ? क्या राज्य और उसका राजनीति द्वारा मधेशियों के साथ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विभेदों को प्रमाणित नहीं करता है ?
जिस मधेश के भूमियों पर कृषि की ताकत हो, जिसके हर तरफ अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक आयों का साजो सामान मौजूद हों, जहाँ के हर घर के युवा विदेशों में रोजगार करते हों – वहाँ के लोगों में आर्थिक जर्जरता और निरीह जीवन शैली होने का जिम्मेवारी कौन लेगा ? मधेश के कृषि, व्यापार, विदेशी कमाई और अन्तर्राष्ट्रीय सीमा नाका का राजस्व राज्य को क्यों चाहिए जब वह वहाँ के जनता के लिए कुछ कर नहीं पाते ? उस क्षेत्र के मधेशीजन अपने मांसरहित बदन मेहनत के बावजूद आखिर इतने दीनहीन क्यों और कैसे हो गये ? उसी देश में मेहनतकश मधेशीजन अनेक फरेबी महाजन, लघुवित्त संस्थाओं और सेवाभाव बाले बैंको के दास व कंगाल ऋणी, और सेवा करने बाले बैंक्स सात महीनों में ४१ अरब मुनाफे के मालिक कैसे बन गये ? जनता बेहाल होकर अपनी पीडा सुनाने राज्य और सरकार के आंगन में काठमाण्डौ जाती है, और उसी मधेश के राजधानी में दो सौ करोड के लगानी में कुछ व्यक्ति समूह का भाटभटेनी किसकेे पैसों से खोली जा रही है ? वह भी द्रुत गति में । वह जनता का पैसा नहीं है क्या ?
देश में मीटर ब्याज पीड़ित, लघुवित्त पीड़ित और बैंकों की सामन्ती महाजनीय आर्थिक दम्भ और सोंच के विरुद्ध जो आन्दोलनें चल रही हैं, उसका समाधान उन पीडितों से केवल मिलकर, सहानुभूति चढाकर या क्षणिक मलहम लगाकर संभव नहीं हो सकता । उसके पूर्ण समाधान के लिए मजबूत तरकीबें और ठोस योजनाओं का विकास करना अपरिहार्य है । एक समाधान से दूसरा कोई महा झंझट और जीवन राह का संकट खडा न हो, कल्ह पून: कोई मीटर ब्याजी दूसरे तीसरे या बदले हुए रुप में आ न जायें – उस समेत को ध्यान में रखते हुए सरकार को जनमुक्ति आर्थिक व्यवस्था लाना होगा ।
काठमाण्डौ पहुँचे अर्थ पीड़ित लोगों के भीड में पहुँचने बाले सान्त्वना के मालिक कुछ लोग अपने पार्टियों की विज्ञापन करने से चुकते नजर नहीं आ रहे हैं । बेचारे अपने कष्टों के इलाज के लिए राज्य और सरकार से अपनी व्यौरा सुनाने गये हैं । मगर मृत शरीर से भी कफन चुराकर व्यापार करने बाले कुछ लोग अपने पार्टियों का नाम सुनाते नजर आ रहे हैं । यह राजनीतिक भद्दापन का पराकाष्ठा है । स्मरण रहे कि अर्थ उन पीडितों का पीडा किसी पार्टी या नेता से संभव नहीं, बल्कि राज्य और उसके सरकार से संभव है । वे लोग अपने संसद और सरकार पर दबाब डालें ।
राज्य और सरकार को आर्थिक पीडक और पीड़ित दोनों के मूल जड को पकडना, समझना और उसके अनुसार ही स-इलाज करना इस और ऐसे समस्याओं का मूल समाधान होगा, न कि पीडक और पीडितों को ही मुद्दा बनाकर । यह राज्य का समस्या है । राज्य ने उत्पादन किया है । पीडक राज्य से गठजोड़ में हैं । राज्य ईमानदार हो, तो न तो कोई पीडक होगा, न कोई पीड़ित ।
पीकर जो मस्त हैं
उनसे तो कोई खौफ नहीं
पीकर जो होश में हैं
उनको संभाला जाये” — राहत इंदौरी ।
राहत इंदौरी की उपरोक्त काव्य दर्शन में इतनी बडी रहस्य छिपी है कि नेपाल के मौजूदा राष्ट्रीय चरित्र को परिभाषित करने को काफी है ।
अन्तर्राष्ट्रीय अनेक आर्थिक सर्वेक्षणों ने जनाउ घण्टी बजा दी है कि नेपाल आर्थिक तुष्टिकरण के अन्तिम मुहाने पर है । देश की आर्थिक जोन अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ विज्ञान में Grey List में दाखिल है और अगर होश में नहीं आये, तो चन्द दिनों या महीनों में नेपाल की आर्थिक ढांचा Red List में जाना तय माना जा रहा है ।
अन्तर्राष्ट्रीय अनेक संकेतों और हिदायतों के बावजूद नेपाल ने अपने आर्थिक परिस्थितियों को दुरुस्त करने के तरफ ध्यान न देने के कारण जो भी हों, मगर मुझे लगता है कि ध्यान न देने के पीछे का कारण केवल इतना हो सकता है कि इसका अर्थ अवस्था बिगडना राज्य के पहरेदारों के लिए लाभ दांव की बात है । राज्य संचालक शासकों की यही मनस्थिति कि नेपाल का आर्थिक अवस्था बिगडना ही उनके लिए लाभ है, क्योंकि उस अवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय राष्ट्र समूहों और अर्थ मण्डलों का बाध्यकारी निर्णय बनेगा कि नेपाल को आर्थिक संकट से बचाया जाय ।
कभी कभी यह कहानी हम अपने बाप दादों से सुना करते थे कि किसी समय भारत में आर्थिक संकट की परिस्थिति आई थी । संसार को मालूमात है कि भारत अंग्रेजों के द्वारा लूटे मारे गये देश रहा है । आर्थिक समस्या वहाँ होना स्वाभाविक रहा होगा । मगर देशभक्ति की नशे ने वहाँ के राजनेताओं और धनाढ्यों में ऐसा नशा और तरकीब चढाया कि राज्य, राजनीति, राजनेता और पैसे बाले धनाढ्यों ने अपने पास रहे पैसों को सरकारी सहयोग में लगाया और भारत को आर्थिक संकट से उबाडकर मजबूत भारत बनने में सफलता दिला पाई । उसका बहुमूल्य श्रेय तत्कालीन अर्थ मन्त्री रहे डा. मनमोहन सिंह को जाता है ।
वैसे भारत की जन अवस्था मजबूत नहीं है । दुनिया में सबसे ज्यादा कंगाल, गरीब और मजदूर पैदा करने बाला देश भारत भी है । मगर उसकी अर्थ राजनीति इतनी मजबूत है कि संसार के अव्वल राष्ट्रों के गिनती में वह अपने को खडा कर सकता है । उसका प्रमाण है कि वैज्ञानिक और सामरिक ढांचों में वह वैश्विक मापदण्डों को बखूबी मेन्टेन करता है ।
भारत कोई राष्ट्र भी नहीं था । अनेक छोटे बडे राज्य और राजे राजवाड़े में भीडन्त के राजनीतिक जीवन के शिकार भारत को एक राष्ट्र राज्य का रुप अंग्रेजों ने प्रदान की । उसमें भी उसकी अपनी स्वार्थ थी । मगर अंग्रेजों के द्वारा किए गये राष्ट्र निर्माण और आर्थिक शोषण तथा अत्याचार ने भारत में एक चेतना और जेहन भी निर्माण यह कर दिया कि भारत की एकता और समग्रता ही उसका उन्नत भविष्य है । उसी का परिणाम है कि भारत का हर युवा अपने देश के लिए मरने और मारने का हैसियत रखता है । मगर हम केवल उसका इतिहास पढते हैं । उसका कहानी सुनाते हैं । गाँधी, नेहरु, पटेल, भगत सिंह, आजाद, लक्ष्मी बाई, आदि इत्यादि का उदाहरण देते हैं । मगर हम वे और वो बनने को तैयार नहीं हैं ।
ऐसी बात नहीं है कि हम गर्व करने बाले शहीदहीन देश के जनता हैं । मगर हमने अपने शहीदों को भी उस समग्रता में पहुँचाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई है, जहाँ पर हम भगत सिंह, गाँधी, लक्ष्मी बाई और आजाद साहबों को देख लेते हैं । सबसे कष्टकर बात यह कि हमने शहीदों के शहादत पर भी भद्दे राजनीति कर ली हैं । जिस देश में शहीदों के साथ भी विभेद और नश्लीय राजनीति हों, वहाँ लोग शहीद भी बनने से क्यों न कतरायें ? और मनोवैज्ञानिक हकिकत यही है कि जिस देश में शहीदों का समान उच्च सम्मान न हों, वह देश राजनीतिक और आर्थिक रुप में कंगाल रहेगा ही ।
आश्चर्य की बात तो यह भी है कि आर्थिक संकट के परिधि में रहे नेपाल में आर्थिक संकटीय ढांचा और परिणाम भी फरक फरक दिखाई देता है । देश के आर्थिक मेरुदण्ड रहे मधेश-तराई के जनता को मीटर ब्याज का शिकार होना, लघु वित्तीय संस्थाओं का गुलाम होना और मधेश में स्थित बैंकों का अनाहक कर्जदार होना क्या दर्शाता है ? क्या राज्य और उसका राजनीति द्वारा मधेशियों के साथ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विभेदों को प्रमाणित नहीं करता ?
जिस मधेश के भूमियों पर कृषि की ताकत हो, जिसके हर तरफ अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक आयों का साजो सामान मौजूद हों, जहाँ के हर घर के युवा विदेशों में रोजगार करते हों – वहाँ के लोगों में आर्थिक जर्जरता और निरीह जीवन शैली होने का जिम्मेवारी कौन लेगा ? मधेश के कृषि, व्यापार, विदेशी कमाई और अन्तर्राष्ट्रीय सीमा नाका का राजस्व राज्य को क्यों चाहिए-जब वह वहाँ के जनता के लिए कुछ कर नहीं पाते ? उस क्षेत्र के मधेशीजन अपने मांसरहित बदन मेहनत के बावजूद आखिर इतने दीनहीन क्यों और कैसे हो गये ? उसी देश के मेहनतकश मधेशीजन अनेक फरेबी महाजनों, लघुवित्त संस्थाओं और सेवाभाव बाले बैंको के दास व कंगाल ऋणी, और सेवा करने बाले बैंक्स सात महीनों में ४१ अरब मुनाफे के मालिक कैसे बन गये ? जनता बेहाल होकर अपनी पीडा सुनाने राज्य और सरकार के आंगन में काठमाण्डौ जाती है, और उसी मधेश के राजधानी में दो सौ करोड के लगानी में कुछ व्यक्ति समूह का भाटभटेनी व्यापारिक दरबार किसकेे पैसों से खडे की जा रही है ? वह भी द्रुत गति में । वह जनता का पैसा नहीं तो क्या और किसका है ?
देश में मीटर ब्याज पीड़क, लघुवित्त पीड़क और बैंकों की सामन्ती महाजनीय आर्थिक दम्भ और सोच विरुद्ध जो आन्दोलनें चल रही हैं, उसका समाधान उन पीडितों से केवल मिलकर, सहानुभूति चढाकर या क्षणिक मलहम लगाकर संभव नहीं हो सकता । उसके पूर्ण समाधान के लिए मजबूत तरकीबें और ठोस योजनाओं का विकास करना अपरिहार्य है । एक समाधान से दूसरा कोई महा झंझट और जीवन राह का संकट खडा न हो, कल्ह पून: कोई मीटर ब्याजी दूसरे तीसरे या बदले हुए रुप में आ न जायें – उस समेत को ध्यान में रखते हुए सरकार को जनमुक्ति आर्थिक व्यवस्था लाना होगा ।
काठमाण्डौ पहुँचे अर्थ पीड़ित लोगों के भीड में पहुँचने बाले सान्त्वना के मालिक कुछ लोग अपने पार्टियों की विज्ञापन करने से चुकते नजर नहीं आ रहे हैं । बेचारे अपने कष्टों के इलाज के लिए राज्य और सरकार से अपनी व्यौरा सुनाने पहुँचे हुए हैं । मगर मृत शरीर से भी कफन चुराकर व्यापार करने बाले कुछ लोग अपने पार्टियों का नाम सुनाते नजर आ रहे हैं । यह राजनीतिक भद्दापन का पराकाष्ठा है । स्मरण रहे कि अर्थ उन पीडितों का पीडा किसी पार्टी या नेता से संभव नहीं, बल्कि राज्य और उसके सरकार से संभव है । वे लोग अपने संसद और सरकार पर दबाब डालें ।
राज्य और सरकार को आर्थिक पीडक और पीड़ित दोनों के मूल जड को पकडना, समझना और उसके अनुसार ही स-इलाज करना इस और ऐसे समस्याओं का मूल समाधान होगा, न कि पीडक और पीडितों को ही मुद्दा बनाकर । यह राज्य का समस्या है । राज्य ने उत्पादन किया है । पीडक राज्य से गठजोड़ में हैं । राज्य ईमानदार हो, तो न तो कोई पीडक होगा, न कोई पीड़ित ।
