अवस्था नहीं व्यवस्था परिवर्तन हो : अजय कुमार झा
अजय कुमार झा, हिमालिनी अंक मार्च । देश का हर राजनेता आम जनता से यह उम्मीद करता है कि जनता देश की आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत करें । आम लोगों को चाहिए कि वह इमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करे, अधिकारों की चिंता ना करें । जनता यदि कर्तव्य करेगी तो उसके अधिकार अपने आप पूरे हो जाएंगे । दूसरी ओर राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ा हर नेता अपने अधिकारों की चिंता करता है, कर्तव्य की चिंता कोई नहीं करता । राजनीति तो अधिकारों के संघर्ष के लिए ही बनी है । कर्तव्य करना आम जनता का काम है और अधिकारों के लिए संघर्ष करना राजनेताओं का काम है । ऐसा विभाजन पूरे देश में हो गया है जिसमें हम ९८% लोग आम जनता के रूप में हैं और बाकी बचे मात्र २% लोग ही नेता या सरकारी कर्मचारी और शोषक के रूप में । अभी कुछ दिनों से राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव हो रहे हैं । इन चुनावों में नेपाल सरकार के कई करोड़ रुपए खर्च होंगे । महीने भर तक सरकारी मशीनरी, चुनाव आयोग तथा अन्य बड़े–बड़े नेता इस कार्य में सक्रिय रहेंगे ।
स्पष्ट है कि यह चुनाव राजनेताओं के खेल का एक भाग रहा है । इसमें राजनेता राजनीतिक खेल की प्रैक्टिस करते हैं और उस प्रैक्टिस का सारा खर्च आम जनता को देना पड़ता है । क्योंकि यह खेल खेलना राजनेताओं का अधिकार है और राजनेताओं के इस खेल के लिए ईमानदारी से मेहनत करना हम सब का कर्तव्य है । यदि यही लोकतंत्र है तो हमें ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए । अब हमें शासक और शोषित के बीच जितनी दूरी बना दी गई है इतनी दूरी मंजूर नहीं है । अब हमें राजनेताओं के इस खेल के लिए मेहनत करना हमारी मजबूरी नहीं होनी चाहिए । आइए हम आप सब मिलकर ऐसे सड़े–गले लोकतंत्र से मुक्त हों और निर्दलीय लोकतंत्र की दिशा में आगे बढ़ें ।
अधिकांश सांगठनिक ढांचा हिंसा और मानवता विरोधी दुश्चक्रों को षडयंत्र पूर्वक सहजीकरण का आधार बनता जा रहा है । ऐसी स्थिति में हमें बाध्य होकर इन संगठनों के वैज्ञानिक विश्लेषण कर आगे बढ़ना चाहिए । मेरे विचार से तो दुनिया से संगठन का नारा ही बंद होना चाहिए । आज के समय में किसी संगठन की कोई जरूरत नहीं है । आज आदमी अकेला इस पूरे संसार को वैचारिक स्तर पर प्रभावित करने के लिए काफी है । आखिरकार विचार से ही तो व्यवहार में परिवर्तन होता है न । अतः संगठन की जरूरत क्या है ? आखिर संगठित किस लिए होना है ? हम भौतिक रूप से संगठित होकर भी अपने पड़ोसी देश भारत और चीन के साथ लड़ नहीं सकते ! यदि फिर भी हमें लड़ना है तो संगठन की जरूरत है । नहीं लड़ना है, तो संगठन की क्या जरूरत है ? तो जो भी संगठन हैं, वह सब मानवता के दुश्मन हैं । चाहे उनके नाम कुछ भी हों । और जो भी संगठन करवाने वाले हैं वह सब मनुष्यता के हत्यारे हैं, चाहे उनके नाम कुछ भी हों । अब तो ऐसे लोग चाहिए जो सब संगठनों को तोड़ देने के, सब संगठनों को विकेंद्रित कर देने के, सब संगठनों को डिआर्गनाइज कर दे और एक–एक व्यक्ति को मूल्य देने के पक्ष में हों । संगठन को मूल्य नहीं देना है । एक–एक व्यक्ति को मूल्य देना है । आप–आप हैं । मैं–मैं हूं । किसी सृजनात्मक अथवा उत्पादनमूलक कार्य को सहज ढंग से गतिशील तथा संपादन करने के लिए सांगठनिक स्वरूप दिया जा सकता है । परंतु आइडियालॉजी पर खड़े हुए संगठन दुनिया में नहीं चाहिए । चाहे उनका नाम कुछ भी हो । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । हम भी तो समाजवाद, लेनिनवाद, गांधीवाद, माक्र्सवाद और माओवाद के संगठन को मजबूत बनाने में अपना समय व्यतीत किए हैं । क्या मिला ? माओवाद के नाम पर इक्कीस हजार नेपाली युवाओं का बलिदान ! समाजवादी संगठन के नाम पर लाखों नेपाली युवा युवती अपने जीवन के अमूल्य क्षण को विदेशी भूमि में बर्बाद करने को बाध्य हुए । सैकड़ों मधेशी युवाओं को बलिदान देकर मधेशी संगठन ने क्या दिया ? राजा महेंद्र के मधेशी विरोधी मंडले संगठन ने देश को कमजोर और आत्म हत्या के अलावा और क्या दिया ?
इसलिए सावधान रहें ! किसी संगठन ने आजतक मनुष्यता को आगे नहीं बढ़ाया । और न कोई संगठन मनुष्यता को आगे बढ़ा सकता है । रही बात वैचारिक एकता की तो यह भी संभव नहीं है कि किसी विषय पर सभी व्यक्तियों का मत एक जैसा ही हो, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति किसी विषय या समस्या को अपने नजरिये से ही देखता है । और इसी आधार पर उसका समाधान भी खोजता है, लेकिन जब बात सामूहिक समझदारी की आती है तब मनुष्य को वही करना चाहिए जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों का दूरगामी भलाई हो । इसके लिए बृहद संवाद कर शैक्षणिक संस्थानों के पाठ् यक्रम में सृजनात्मक समझदारी के विभिन्न स्वरूप, आयाम, क्रियान्वयन और लाभ को केंद्र में रखकर समाहित करना होगा । आनेवाली पीढ़ी में यह संवाद रूपी समझदारी का संस्कार डालना होगा । आज तो कोई किसी की बात तक सुनने को तैयार नहीं है । विरोध करना महानता और बुद्धिमत्ता का प्रतीक बनता जा रहा है । जिसका गंतव्य सामूहिक विनाश ही हो सकता है ।
ध्यान से देखा जाए तो तंत्र के कारण गरीबी नहीं है, अमानवीय संस्कार, मूढ़तापूर्ण अहंकार और क्षुद्र मानसिकता के कारण यह भ्रष्टतन्त्र जीवित है । इस भ्रष्टाचार के तंत्र को मिटाया नहीं जा सकता जब तक मानसिकता में आमूल परिवर्तन न आ जाए । ध्यान रहे गरीबी सारी बीमारियों की जड़ है, लेकिन मानसिक और बौद्धिक दिवालियापन भौतिक गरीबी की जड़ है । लेकिन हमें उल्टी बातें समझाई जाती हैं; हमें इन झूठे वायदों पर भरोसा दिलाया जाता है कि भ्रष्टाचार का तंत्र मिटाना है । भ्रष्टाचार का तंत्र मिट जाएगा तो गरीबी मिट जाएगी, यह बात मूढ़तापूर्ण है । अशिक्षित और गरीब देश से भ्रष्टाचार का तंत्र मिट ही नहीं सकता । मानसिक और भौतिक गरीबी व्यक्ति और समाज के हर क्षेत्रों में भ्रष्टाचार को जन्म देती है । लेकिन हम भ्रष्टाचार को मिटने के लिए रोज नए–नए पार्टी और संगठन का निर्माण करते जाते हैं, घोर गर्जना करते हैं । परंतु उल्टे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का समूह बढ़ता ही जा रहा है । हम इसे मिटाने के लिए रोज नए कानून बनाते हैं और उस कानून को ताड़ने की सुविधा की भी व्यवस्था हम ही करते हैं । आखिर भ्रष्टाचार को हम मिटवाएंगे किससे ? जिनसे भ्रष्टाचार मिटवाएंगे वे भी इसी देश के हिस्से हैं, वे उतने ही भ्रष्टाचारी हैं जितना कोई और है । फर्क इतना ही है कि उनके भ्रष्टाचार का पता हमें तब तक न चलेगा जब तक वे पद पर हैं । पद से उतरेंगे तब हमें उनके भ्रष्टाचार का पता चलने लगेगा । जब तक पद पर हैं तब तक तो वे सब छिपा कर बैठे रहेंगे । पत्रकार, पुलिस, प्रशासन और अन्य सभी संस्थाओं को वो अपने साथ एकाकार कर लेगा । फिर हमारा रोना वहीं का वहीं रहेगा ।
भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए हमें गरीबी निवारण और अमीरी व्यवस्थापन पर गंभीर वैज्ञानिक चिंतन करना होगा । ध्यान रहे ! संपन्नता की एक अलग खुशबू और गरिमा होती है । उसका अपना ही आनंद और उमंग होता है । आदमी भ्रष्टाचारी मजबूरी में होता है । क्योंकि भ्रष्टाचार में व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व और चेतना के साथ–साथ संस्कार को धूमिल करना पड़ता है; जो एक बुलंद व्यक्ति के लिए विषपान से भी बदतर काम है । अतः देश, और समाज की मूल वस्तुस्थिति का अध्ययन किए बिना कुछ भी बोलना छोटी मुँह बड़ी बात मानी जाएगी ।
कर्मचारी तंत्र को शुद्ध करने के लिए सबसे पहले उनके मासिक वेतन पर विचार करना होगा । एक सामान्य कर्मचारी को भी अपने बच्चों को हाइटेक शिक्षा दिलाना है, देश में उपलब्ध सुविधाएं मुहैया कराना है । एक कार्यालय सहयोगी भी इस देश के लिए उतना ही महत्व रखता है जितना प्रधान मंत्री । यह देश किसी की बपौती नहीं है । जीवन सबका उतना ही अनमोल और प्रिय है । अतः वेतन का बटबारा मानवीयता के आधार पर होना चाहिए । एक ही काम के लिए किसी को पचास हजार मिलता है तो वहीं दूसरे को पाँच हजार में काम करना पड़ता है । यहीं से राष्ट्र के द्वारा भेदभाव के दुष्चक्र को बढ़ावा दिया जाता है । वह भी बड़ी महिमा गान के साथ ।
भारत की एक घटना याद आ रही है; जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के बीच संघर्ष का मौलिक कारण इंदिरा से यही था कि इंदिरा ने जयप्रकाश से यह पूछा कि, ‘आप यह तो बताइए कि आपका खर्च कैसे चलता है ?’ बस, हो आ गया तूफान ! आप हैरान होंगे कि ये बड़ी क्रांति की जो बातें हैं, वो बड़े–बड़े सिद्धातों से शुरू नहीं होतीं, बड़ी छोटी–छोटी बातों से शुरू होती हैं । आदमी छोटा है ! इंदिरा का यह पूछना कि आपका खर्च कैसे चलता है ? जयप्रकाश नारायण के अहंकार को बड़ी चोट लगी और उन्होंने तय कर लिया कि इंदिरा को उखाड़ कर रहेंगे । इंदिरा का पूछना ठीक था, क्योंकि इंदिरा के पास फेहरिस्त है कि जयप्रकाश को वर्षों से बिड़ला से पैसा मिलता है । और बिड़ला से पैसा क्यों मिलता है ? गांधी जी की सिफारिश से मिलता है ! गांधी जी ने पत्र दिया था कि जयप्रकाश को पैसा हर महीने मिलना चाहिए । अब आप ही बताइए कैसे क्रांति होगी ? और कैसी क्रांति होगी ? जिसको चुनाव लड़ना है उसको लाखों रुपये चाहिए । जिनसे लाखों रुपये लेना उनके खिलाफ कैसे काम करेगा ? और नहीं लाखों रुपये लेगा तो चुनाव नहीं लड़ सकता । इस अवस्था में नेपाली कांग्रेस, एमाले, माओवादी, मधेसवादी, राजावादी, समाजवादी, सुधारवादी, अग्रगामी, प्रतिगामी आदि जितने भी पंथी, वादी, गामी हैं सबके सब उधार है । तत्काल है । दिखावटी है । मौका मिलते ही पतीतभावन हो जाएंगे । फिर तंत्र को बदलेगा कौन और क्यों ?
हमें एक धक्का दरिद्रता को बदलने के लिए लगाना ही चाहिए, क्योंकि दरिद्रता को बदलने के लिए अब विज्ञान ने बहुत सारे उपाय जुटा दिये हैं । अब अगर हम दरिद्र हैं तो अपनी मूढ़ता के कारण, अन्यथा और कोई कारण नहीं है । सारी ताकत लगानी चाहिए देश के औद्योगीकरण में । सारी ताकत लगानी चाहिए देश के भीतर नये–नये उपकरण पैदा करने में । और अब उपकरण उपलब्ध हैं दुनिया में । इस देश की गरीबी मिट सकती है, कोई कारण नहीं है गरीबी के रहने का । जिन कारणों से गरीबी मिट सकती है उनको तो हर तरह की बाधाएं हैं और जिन कारणों से गरीबी बढ़ेगी उनको हर तरह की सुविधाएं दी जाती हैं । दरिद्रता बदल जाए तो भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा । दरिद्रता बदल जाए तो रिश्वत अपने–आप खो जाएगी । किसी समृद्ध देश में किसी व्यक्ति को रिश्वत देकर देखें, झापड़ ही उपहार में मिलेगा । उसके लिए घोर अपमान है यह रिश्वत । उसके पास काफी है, जिसके पास नहीं है कुछ, वहीं खुशी से लेता है और हमें धन्यवाद देता है ।
उपरोक्त विषय के गंभीरता को स्पष्ट करने तथा मूल को समझने के लिए हमें इन बातों पर ध्यान देना होगा । अरस्तू का विचार है कि राज्य सभी वस्तुओं के विषय में आत्मनिर्भरता की पराकाष्ठा तक पहुँचा हुआ संगठन है । आत्म–निर्भरता का तात्पर्य सामान्यतः अपनी सभी आवश्यकताएं स्वयमेव पूरी करने से लिया जाता है । परिवार तथा ग्राम के द्वारा व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति आंशिक रूप में ही की जाती है, राज्य ही एकमात्र ऐसा संगठन है जो इन आवश्यकताओं की पूर्ण रूप से पूर्ति कर सकता है । इसके साथ ही राज्य व्यक्ति की प्रकृति की उच्चतम आवश्यकताएँ उसकी बौद्धिक तथा नैतिक आवश्यकताएँ भी पूरी करता है । अतः राज्य स्वाभाविक होने के साथ–साथ मनुष्य के लिए आवश्यक भी है । व्यक्ति के लिए राज्य का अस्तित्व उतना ही आवश्यक है जितना की परिवार का । परिवार में व्यक्ति की कुछ भावनात्मक और कुछ आर्थिक आवश्यताएँ पूरी होती हैं, ग्राम इसके अतिरिक्त कुछ और आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, परन्तु मनुष्य का पूर्ण बौद्धिक और नैतिक विकास राज्य में ही सम्भव है । इस प्रकार ‘राज्य का उदय जीवन के लिए हुआ और सद्जीवन के लिए उसका अस्तित्व बना हुआ है । राज्य को अरस्तू ने अन्य सब समुदायों से मिलकर बना हुआ पूर्ण समुदाय माना है । अपनी रचना इथिक्स में उसने कहा है कि, अन्य समुदाय प्रकृतिशः राजनीतिक समुदाय के अंग हैं ।’ यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है की हम राज्य से वाहर नहीं जा सकते । और राज्य बिना कानून और व्यवस्था के नहीं हो सकता । अतः हमे राज्य की अवस्था को उत्कृष्ट बनाने के लिए उसी स्तर की व्यवस्था का भी निर्माण करना होगा । जो फिलहाल दूर–दूर तक दिखाई नहीं देता ।
आम नेपाली नागरिक को जीने के लिए वैदेशिक रोजगार ही एक मात्र उपाय रह गया है; जबकि नेताओं को मौज करने के लिए देश के प्राकृतिक तथा भौतिक संपदा की बिक्री, रेमिटायन्स, सत्ता में विदेशी के हाथों की कठपुतली बनने के कारण प्राप्त आर्थिक लाभ, सर्वदलीय सहमति से देश को लूटने की योजना तथा आजीवन सत्तासीन रहने के अनंत उपायों प्रयोग । जनता जितनी गरीब और कमजोर रहेगी नेता को उन्हें अपने लाभ के लिए उतने ही कम खर्च में प्रयोग करना आसान हो जाएगा । दो बोतल दारू और एक किलो मांस में पूरे टोल को अपनी मुठ्ठी में कर सकेंगे । फिर उन्हें सरकारी विद्यालय, अस्पताल और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के नामपर उन्हीं के द्वारा करोड़ों का भ्रष्टाचार बड़ी सहजता से सफल कर लेंगे । देश और समाज के आर्थिक तथा भौतिक अवस्था ज्यों की त्यों बनी रहेगी । परंतु नेता और अधिकारी हाथी होते जाएंगे । ऐसी हालत में व्यवस्था को ही बदलने की आवश्यकता होती है । वह भी पूरी जिम्मेदारी के साथ । कुछ बिंदुओं पर संवैधानिक रूप में कड़ा प्रतिबंध भी आवश्यक हो सकता है । जिसे वृहद बहस के जरिए अपनाया जाना चाहिए ।
धर्म और संप्रदाय के आधार पर भी सत्ता को सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय बनाना बहुत कठिन है । बाहर से धार्मिक दिखाई देनेवाले अधिकांश लोग डाका प्रमाणित होते दिखते हैं । बाबूराम जैसे बुद्धिमान का भी कोई भरोसा नहीं दिखता है यहां । सबके सब सत्ता को अपनी बपौती बनाने में तल्लीन हैं । उन्हें न देश से मतलब है, न देशवासी से । उन्हें न नेपाली संस्कृति से मतलब है न सीमा से । उन्हें सिर्फ और सिर्फ सत्ता चाहिए । संभवतः विदेशी एजेंडा और डालर के मातहत से नेपाल में राजनीतिक दल संचालन करने वाले नेताओं से नेपाल के सुंदर भविष्य का किसी भी प्रकार से कल्पना करना महा मूर्खता होगी । पैसों की खनक ऐसी है कि नेपाल के किसी भी नेता को घुटने टेकने पर मजबूर कर देती है । वैसे भी सब के सब अपनी अपनी दुकान पर विदेशी एजेंटों के लिए टकटकी लगाए बैठे रहते हैं । झूठ बोलना जैसे इनका धर्म ही हो गया है । निर्लज्जता भी इनके सामने खुद को लज्जित अनुभव करती है; उससे हम देश की तरक्की की आशा करते हैं । इससे बड़ा अन्यौल और क्या हो सकता है ? पार्टी के नाम पर राष्ट्रीय महत्ता और भविष्य को लात मरनेवाले हम नेपालियों का भविष्य घोर अन्धकार में है । जिसे अपने आप को संभालने का ढंग नही है, खुद के भविष्य को संवारने से मतलब नहीं है वह समाज और राष्ट्र के बारे में कैसे सोच पाएगा ? उसके द्वारा किया गया निर्णय कितना महत्व रखेगा ? जो दो कौड़ी में बिक जाय वह क्या निर्णय करेगा ? वैसों का भोट भी राष्ट्र के अहित में ही प्रयुक्त होता आया है । अतः अभी तक की सभी क्रांति और राजनीतिक सिद्धांत तथा परिवर्तन असफल होने के पीछे यही कारण है । राष्ट्र के समग्र असफलता और विदेशी शक्तियों को प्रयोग करने का अवसर भी इसी से मिला है ।
माक्र्स, लेनिन, माओ ये सब के सब विदेशी विचारक थे । इनके नाम पर पार्टी का होना ही नेपालीत्व के खिलाफ है । राष्ट्रीयता के खिलाफ है । हमने देखा है; विदेशियों के नाम पर संचालित स्कूल कालेजों को माओवादी ने कार्यवाही करने की धमकी दी थी । परंतु निर्लज्जता इतनी की खुद की पार्टी विदेशी के नाम पर ही थी । तो यहां हमें यह समझना जरूरी है कि जब तक आधुनिक व्यवस्था के लिए हम गहन अध्ययन और विमर्श नहीं कर लेते हैं तबतक हम अपने लिए गढ्ढा ही खोदते रहेंगे । जरा गौर कीजिए; प्रजातंत्र से पहले हम कृषि में आत्म निर्भर थे और आज दाने–दाने को मोहताज हैं । सिर्फ और सिर्फ भारत एक हफ्ता के लिए अनाज की पैठारी बंद कर दे तो हम भूखे मर जाएंगे । प्रजातंत्र से पहले अनेकों उद्योग संचालित थे । जिसका उत्पादन बड़ी शान के साथ विदेशों में निर्यात होता था । आज उन सभी उद्योगों में ताला लगा हुआ है । क्यों ? उत्तर जनता को कमजोर और देश को परनिर्भर करना था । आज ३२ वर्ष में हम बड़े गौरव के साथ उस वैदेशिक शक्तियों के कदम चूम रहे हैं और वैदेशिक परनिर्भरता के हिम शिखरों पर विराजन हैं । ३२ वर्ष के प्रजातंत्र का कुल उत्पादन इतना ही है । अतः हमें चाहिए कि हम बुद्ध के दर्शन को पढ़ें, राजर्षि जनक के जीवनशैली को अपनाएं, राम साह के न्यायिक दृष्टिकोण को पहचानें, वेद और धम्मपद की मौलिकता को राष्ट्रीय आधारशिला और भविष्य के स्वर्णपथ मानें ।