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शिप्रा झा, हिमालिनी, अंक मार्च 023 । मनुष्य जाति का वह वर्ग जो गर्भधारण कर मनुष्य को जन्म देता है उन्हें नारी कहते है । युवती तथा बालिग स्त्रियों की सामूहिक संज्ञा को नारी कहते है । धार्मिक क्षेत्र में साधकों की परिभाषा में प्रकृति और माया, उन्हें नारी कहते है । कई युग से आज तक विकास पथ पर पुरुष का साथ देकर, उनकी यात्रा को सरल बनाकर, उनके अभिशापों को स्वयं झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भरकर, मानवी ने जिस व्यक्तित्व, चेतना और हृदय का विकास किया है, उसी का पर्याय नारी है । इन परिभाषाओं के बाद भी यह एक प्रशन है कि क्या स्त्री होना विकलांग होने के समान है ?



वास्तव में यह एक प्रश्न नहीं अपितु प्रश्नों की कडि़याँ हैं । मेरा मानना है कि किसी व्यक्तित्व के निर्माण में उसके अन्तर्मन की शक्ति एवं उसके पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश का मह्त्वपूर्ण योगदान रहता है । जब बात स्त्रियों की हो तो आज भी हमारा सामाजिक परिवेश जÞ्यादातर मानसिक निर्भरता की ओर जÞोर देता है । फलतः धीरे –धीरे महिलायें थोपी हुई विकलांगता को धारण करती हैं । इस प्रश्न को किसी एक परिधि में बाँधना संभव नहीं क्योंकि एक तरफ जहाँ कई सुशिक्षित आत्मनिर्भर महिलायें घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं वहीं दूसरी ओर कई अशिक्षित असहाय महिलाओं ने अपने अंतर्मन की शक्ति को जगाकर समाज की इस सोच पर तमाचा लगाया है ।

स्त्री के अधिकार और कर्तव्य के कुरुक्षेत्र में अगर उतरें तो परंपरा और क्रांति का संघर्ष चिरंतन है जो शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक रूप से स्त्री – जीवन को प्रभावित कर रहा है । परंपरा के बाँध से पुरातनपंथी समाज में ठहराव चाहते हैं वहीं क्रांति बंधनमुक्त होकर अधिकाधिक लोगों को प्रभावित कर समाज को नयी दिशा की ओर उन्मुख कराना चाहती है । ध्यातव्य है कि किसी भी सूरत में अति वर्जित है ।
जन्म से ही संबंधों की बैसाखी पकड़कर चलते हुये वह भूल जाती है कि ईश्वर ने उसे अनुगामिनी नहीं परिपूर्ण बनाया है । और जब तक उसे इसका भान होता है अपने गुरुत्तर प्रयास से भी स्वयं को इस मकड़जाल से मुक्त नहीं कर पाती । समय के पहाड़ को लाँघते हुये कब अपनी आकांक्षाओं, अपने सपने और आत्मसम्मान की हन्ता बन जाती वह स्वयं भी नहीं जानती हैं ।
मानव व्यक्तित्व के विकास के तीनों पक्षों ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक में भावात्मक विकलांगता इस कदर हावी हो जाती है कि निरंतर क्रियाशील होने पर भी ज्ञानात्मक पक्ष जैसे गौण हो जाता है । अपने वक्तव्य के पुष्टीकरण के लिये अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं है । अपने आसपास ही अनेकों ऐसे उदाहरण मिलेंगे जहाँ पढ़ी – लिखी नौकरी पेशा महिलायें अपने परिवार की तथाकथित आवश्यकता के लिये अपने आर्थिक स्वाबलंबन को तिलांजलि देकर मुस्कान की चादर लपेटे घूमती रहती हैं । मजÞेदार बात ये है कि परिस्थिति का चक्रव्यूह ऐसा रचा जाता कि वो स्वयं ही इसमें प्रवेश करती और शहीद हो जाती हैं । इसका मूल कारण है कि एक तरफ तो हम उन्हें समान रूप से शिक्षित करते हैं; उनके सपनों को परवाजÞ देते हैं किन्तु मानसिक रूप से उन्हें उचित – अनुचित, परिवार, समाज और परंपरा में जकड़े रहते हैं और वो चाहकर भी इससे आजÞाद नहीं हो पातीं हैं । यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी जिसने भी स्वयं को इस बंधन से मुक्त किया उनके उड़ान को रोकना कहाँ संभव हुआ है ।
हालांकि इस बात से भी नहीं नकारा जा सकता है कि व्यष्टि से समष्टि तक विभिन्न चुनौतियों का सामना करते हुए महिला–सशक्तिकरण के लिये अनवरत प्रयासरत हैं किन्तु यथार्थ के धरातल पर हम कहाँ तक सफल हुये हैं ये जगजाहिर है । एक ईमानदार मूल्यांकन यही दर्शाता है कि परिस्थिति बेहतर हुई किन्तु प्रयास के सापेक्ष अपेक्षित नहीं । स्त्री को सृजन की शक्ति माना जाता है अर्थात स्त्री से ही मानव जाति का अस्तित्व माना गया है । इस सृजन की शक्ति को विकसित–परिष्कृति कर उसे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, विचार, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, अवसर की समानता का सु–अवसर प्रदान करना ही नारी सशक्तिकरण का आशय है ।

दूसरे शब्दों में – महिला सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है । ताकि उन्हें रोजगार, शिक्षा, आर्थिक तरक्की के बराबरी के मौके मिल सके, जिससे वह सामाजिक स्वतंत्रता और तरक्की प्राप्त कर सके । यह वह तरीका है, जिसके द्वारा महिलाएँ भी पुरुषों की तरह अपनी हर आकंक्षाओं को पूरा कर सके ।
आसान शब्दों में महिला सशक्तिकरण को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि इससे महिलाओं में उस शक्ति का प्रवाह होता है, जिससे वो अपने जीवन से जुड़े हर फैसले स्वयं ले सकती हैं और परिवार और समाज में अच्छे से रह सकती हैं । समाज में उनके वास्तविक अधिकार को प्राप्त करने के लिए उन्हें सक्षम बनाना ही महिला सशक्तिकरण है ।
नारी के अनेक रूप

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समाज में कई ऐसे उदाहरण भी है जहाँ कम पढ़ी लिखी महिलायें जिनके साथ कोई भी खड़ा नहीं रहता समाज की खोखली परंपरा और दकियानूसी बातों को लात मारकर अपनी आंतरिक शक्ति और नैसर्गिक गुणों को पहचान समाज में एक उदाहरण बनकर उभरती हैं ।
यूँ तो कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है जहाँ महिलाओं ने ना ही अपनी उपस्थिति दर्जÞ करायी अपितु सफलता का परचम भी लहराया है । किन्तु अगर प्रतिशतता की बात करें तो अभी भी चिंतनीय है । सवाल यह है कि इस परिस्थिति का जिÞम्मेदार कौन है परिवार, समाज अथवा स्वयं स्त्री ? किसी एक को कटघरे में खड़ा करना न्यायपरक नहीं । अगर वास्तव में हमें सफल होना है तो दृढ़ – संकल्पित एवं मुखरित संवेदनशीलता के साथ एकजुट होकर इस दिशा में प्रयास की दरकार है । साथ ही यह भी आवश्यक है कि अत्याधुनिकता के खोल में प्रवेश करते हुए हम अपने नैतिक कवच का परित्याग ना करें ।
इन सब के बावजूद सुखद पक्ष यह है कि, नारी मानव की प्रिय है और सम्पूर्ण जगत्‌ की माता है । नारी प्रेरणा की अनुभूति को मधुर मातृत्व में डालकर अपने प्राण न्यौछावर करके जाति को जीवित रखती है । नारी ही मानवता की धुरी है और मानवीय मूल्यों की संवाहक है । मानवता की गरिमा और लावण्य भी नारी का रूप है । धरती का पुण्य उनकी सुषमा में व्यक्त होती है । सृष्टि का पुण्य नारी में ही विराजमान है । इसीलिए नारी का हमेशा आदर करना चाहिए और उनका दिल से सम्मान करना चाहिए । नारी का पृथ्वी पर होना, पृथ्वी के लिए गौरव है ।



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