भोगा है कभी एकांत ! संवादहीन, विचारों का मौन, पिघलता लावा सा एकाकीपन : बसंत चौधरी
एकाकीपन

भोगा है कभी एकांत !
संवादहीन, विचारों का मौन
या ज्वालामुखी का
दहकता, पिघलता लावा सा
एकाकीपन ।
झांका है कभी भीतर,
क्या–क्या नहीं है वहाँ
विवशता, विचलन,
वैराग्य, विषमताएं
षड़यंत्र आदि सभी
बैठे हैं घेरा डाले ।
आज तक नहीं कर पाया
इन सबका दमन या
निस्तारण या समापन ।
बहुत कठिन है
स्वयं को रिक्त करना
मान्यताओं, अभिलाषाओं,
धारणाओं से
जकड़े हुए हैं यम, नियम,
संयम के मजबूत बंधन,
और अपनापन से ।

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