और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा
प्रो. नवीन मिश्रा: भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम ने आज राजनीति को एक नए मोडÞ पर लाकर खडÞा कर दिया है । लेकिन प्रश्न है कि विभिन्न देशों में यह मुहिम सफल हो पाएगी या फिर टाँय टाँय फिस्स होकर रह जाएगी । भारत में आम आदमी पार्टर्ीीी जीत और कांग्रेस की करारी हार के परिणामस्वरुप यह मुहिम तेजी के साथ शुरु हर्ुइ लेकिन अंत तक पहुँच नहीं सकी । अन्य देशों में तो यह मुहिम अभी शुरु भी नहीं हर्ुइ है । इस प्रकार की सिर्फसोच ही अभी विकसित हर्ुइ है । भारत के सर्ंदर्भ में एक कयास लगाया जा सकता है कि अगर आम चुनावों के पश्चात पुरातनपंथी पार्टर्ीीी सत्ता में आई तो यह मुहिम शिथिल पडÞ जाएगी ओर सब कुछ पहले जैसा ही चलने लगेगा । नेपाल हो या भारत भ्रष्ट लोगों के खिलाफ जाँच कराना और उन्हें सजा दिलाना, दोनों काम लालफीताशाही में फँसकर तथा सुस्त कानूनी प्रक्रिया के कारण कार्यान्वयन नहीं हो पाते हैं और धीरे-धीरे लोग भी भूल जाते हैं । आज यह धारणा बन गई है कि भ्रष्टाचार ही सभी बुराइयों की जडÞ है और इसके उन्मूलन से ही सभी समस्याएँ हल हो जाएगी । लेकिन भ्रष्टाचार के अलावा भी और कई मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देना जरूरी है । र्सार्वजनिक संस्थाओं की बुरी हालत और पुराने व बेकार पडÞ चुके कानून आज भी औपनिवेशिक विरासत को जिंदा रखे हुए हैं । अभी भी कानून को अमल में लाने वाले महकमों की सोच में बदलाव नहीं आया है । चाहे वह प्रशासन हो या पुलिस । सिविल र्सर्वेट अर्थात नौकरशाह, न तो सिविल शिष्ट है और नही र्सर्वेंट -नौकर) आज देश के विकास में यह भी एक बहुत बडÞी बाधा है । बिना पैसा लिए पुलिस रपट लिखने तक से कतराती है । कार्यवाही तो बहुत दूर की बात है । गणतन्त्र की स्थापना इसलिए की गई थी कि व्यवहार में जनता का शासन हो, जो जनता द्वारा और जनता के लिए हो, लेकिन इतने दिन बीत जाने के बाद भी अभी तक संविधान नहीं बन पाया है । आज हम सेवा की नहीं बल्कि शासन की राजनीति करने में रत हैं । आज आवश्यकता है, देश के युवाओं को एक सकारात्मक दृष्टि प्रदान करने की जो युवाओं की भावनाओं को आन्दोलित कर सकती है, व्यवस्था के प्रति निष्ठावान बनाते हुए भलाई के लिए प्रेरित कर सकती है । शासन की बुराइयों को समाप्त किए बिना भ्रष्टाचार पर काबु पाना मुश्किल है । आज जनता के प्रतिनिधि, चाहे वह प्रधानमन्त्री हों, मन्त्री या सांसद जनता से दूर हो गए हैं । आम आदमी उनसे मिल कर अपनी समस्याएँ उनके समक्ष रखने में असक्षम है । कुछ की तो सुरक्षागत मजबूरियाँ हैं और कुछ ने इसे अपनी आन-बान-शान का प्रतीक बना लिया है । अपने लिए असुरक्षा कवच धारण करने के कारण आज देश के नौकरशाह बेलगाम हो गए हैं । आज कल ऐसा भी देखा जाता है कि कुछ चतुर चालाक अफसर जिसे चाहते हैं, सिर्फवही सत्ता सञ्चालकों तक पहुँच पाते हैं । आम आदमी तो उनके पास पहुँचने से रहा फिर शिकायत करने की बात तो दूर । आम आदमी और जनप्रतिनिधियों के बीच उपजी यह दूरी धीरे-धीरे प्रशासनिक जडÞता को लाइलाज मर्ज में बदलती चली गई । लेकिन अब धीरे-धीरे ही सही, लेकिन लोगों में चेतना जागृत होने लगी है । इस बदलाव का परिणाम एक दिन यह होगा कि सत्ता के आकाओं को पारदर्शिता के लिए मजबूर होना होगा । जिसके परिणामस्वरुप जनता के मन में सत्ता में भागीदारी की नई चेतना विकसित होगी जन जागृति के कारण ही महाभारत में विशिष्ट वर्गों के इतने सारे घोटाले सामने आए । सरकार के द्वारा जब कार्यवाही नहीं की गई, तब लोगों ने उपलब्ध जानकारी के आधार पर अदालतों का दरवाजा खटखटाया । २-जी, काँमनवेल्थ, कोयला आवंटन जैसे बडÞे-बडÞे घोटालों का पर्दाफाश आम आदमी के द्वारा ही किया गया है । इसके परिणामस्वरुप न जाने कितने मन्त्रियों और अफसरों को न सिर्फअपनी कर्ुर्सर्ीींवानी पडÞी बल्कि वे जेल की हवा खाने को भी मजबूर हो गए ।
नेपाल का प्रजातान्त्रिक आन्दोलन हो या फिर मधेशी आन्दोलन, भारत का अन्ना हजारे का आन्दोलन हो या फिर दिल्ली विधानसभा का चुनाव सभी ने दिनकर की उस कहावत को चरितार्थ कर दिखाया कि ‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’ । दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय भारत की एक अति महत्वपर्ूण्ा शक्तिशाली पार्टर्ीीत्ता में भी और दूसरी शक्तिशाली पार्टर्ीीसे चुनाती दे रही थी लेकिन फिर भी आम आदमी ने बाजी मार ली क्योंकि उसके पीछे जनता का बल था । अन्य दलों की तरह उसके पास न तो पैसा था और नही सियासत । एक आम इंसान ने एक धुरंधर राजनीतिक शख्सियत को हराया । यह उतना ही चकित करने वाला सत्य था, जितना कि मानो एक साइकिल किसी सुमो गाडÞी से आगे निकल जाए । अरसे से कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों और साहसी प्रतिवद्ध पुरुषों, औरतों की जो सोच थी, उसे एक आम आदमी ने सच कर दिया । हालांकि आम आदमी पार्टर्ीीी सरकार सत्ता में टिक नहीं पाई, मानो कोई फल पकने से पहले ही वृक्ष से टूट कर गिर गया हो । लेकिन फिर भी इसके प्रयास और हिम्मत की सराहना करनी होगी । इतना तो तय है कि यह पार्टर्ीीवधान और बदलाव के लिए लडÞ रही है, सत्ता के लिए नहीं । आगामी लोक सभा चुनाव में इन्हें संख्या के मायाजाल में नहीं फंस कर उपलब्धियों पर ध्यान देना जरूरी है । कहा जाता है कि अपनों के प्रति लगाव या पक्षपात से क्रान्ति की मौत होती है तथा व्रि्रोह का जन्म होता है । अपने अन्दर साहस उत्पन्न करके हमको समझना होगा कि हमें कहाँ बदलने की जरूरत है । हमें विचार करना होगा कि साम्प्रदायिक कट्टरता, पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता ओर धन लालसा के प्रति कहाँ गलत हो रहा है । हमें सचेत होना होगा कि अगर राजनेता हमारा इस्तेमाल कर गलत फायदा उठा रहे हैं तो हमें भी राजनीतिक तथा प्रशासनिक शक्तियों के कुशल प्रयोग का गुर सीखना होगा । जलस्रोत के हिसाब से नेपाल ब्राजील के बाद विश्व का दूसरा बडÞा देश है लेकिन फिर भी हम इसका सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं और दिन प्रति दिन दर्रि्र होते जा रहे हैं । रेमिटेन्स के सहारे यह गाडÞी कब तक खिंचेगी । आम जनता को भी समझना होगा कि घरेलू कर्मचारियों के साथ बुरा बर्ताव ओर शोषण, बिजली, और पानी कनेक्सन का गलत इस्तेमाल, टैक्स रिर्टन में धोखाधडÞी आदि गलत काम हैं । राष्ट्र के प्रति हमें जिम्मेदावरी महसूस करनी होगी ।
देश में कहाँ विलोप हो गया गणेशमान सिंह जैसा राजनीतिक व्यक्तित्व, जिसके नेतृत्व में प्रजातान्त्रिक आन्दोलन सफल हुआ और जब प्रजातान्त्रिक नेपाल का प्रधानमन्त्री बनने का आँफर आया, तब खुद प्रधानमन्त्री पद की कर्ुर्सर्ीीुकरा कर कृष्णप्रसाद भट्टर्राई के नाम की सिफारिश कर दी । महात्मा गान्धी की आत्मकथा से पता चलता है कि एक सुवह वे रोते हुए पाए गए । क्योंकि रात में उन्होंने स्वप्न देख लिया था कि वे बुद्ध हो गए हैं । उनका मानना था कि मेरा यह स्वप्न मेरे अहंकार का प्रतीक हैं । इतने दिनों की तपस्या में भी मेरा अहंकार समाप्त नहीं हुआ । लेकिन आज की परिस्थिति बिल्कुल भिन्न हैं । ‘तेरी महफिल में न वे दिवाने न फरजाने -बुद्धिमान) रहे ।
आज देश की स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि अपना वैध काम कराने के लिए भी पैसे खर्च करने पडÞते हैं अर्थात् घूस देना पडÞता है । चाहे वह गांव विकास हो, नगरपालिका हो, मालपोत कार्यालय या फिर और कोई । तभी तो देश का संवैधानिक पद हो या प्रशासनिक पद सभी बिकते हैं । सत्ता में अगर दोष हो तो चरित्रवान व्यक्ति उस दोष को दूर कर सकता है लेकिन अगर व्यक्ति में ही दोष होता तो उसको दूर करने की शक्ति सत्ता में नहीं होती । आज देश में समाज नाम की कोई चीज नहीं रह गई है । दिन-प्रतिदन अराजक मानसिकता तथा अराजकता का विस्तार हो रहा है । ऐसे हालत में हमारी बुनियादी संस्थाएँ, परिवार, पाठशाला, गांव विकास सभी भगवान भरोसे चल रहे हैं और यही स्थिति कायम रही तो भविष्य, वर्तमान से बढÞ कर अन्धकारपर्ूण्ा होने वाला है । आज हमारी व्यक्तिगत स्वतन्त्रताएं नागरिक अधिकार आदि सब बेमानी हो गए हैं । जब पुलिस स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर पाती तो असहायों की रक्षा कौन करेगा – हमें सत्य, प्रेम एवं करुणा के स्वस्थ वातावरण का निर्माण करना होगा, तभी हम वैसी समाज व्यवस्था का निर्माण कर पाएँगे, जो सच्चे अर्थो में शोषण दोहन से, अत्याचार और उत्पीडÞन से मुक्त होगी । आज किसी एक क्षेत्र की बात नहीं है, पूरी व्यवस्था ही चरमरा गई है । आज का सुविधा भोगी वर्ग हमारी समस्याओं का समाधान नहीं ढूँढÞ सकता है । इसके लिए आम आदमी को ही आगे आना होगा । इतने चिन्तन-मन्थन के बाद देश की युवा शक्ति को बस इतना ही सन्देश देना चाहूँगा किः
देख तू वक्त की दहलीज से टकरा के न गिर,
रास्ते बन्द नहीं, सोचने वालों के लिए ।