प्रजातांत्रिक प्रशिक्षण,मनुष्य जन्म से ही परतंत्र है : डा.अशोक माहासेठ
डा. अशोक माहासेठ, काठमांडू । चौरासी लाख जीवधारी के बीचमे मनुष्य उत्कृष्ट जीव है । स्वतंत्रता सभी का जन्मसिद्द अधिकार तथा स्वभाव है परन्तु सभी जीव कर्म के बंधन मे है अर्थात स्वतंत्र नही है फिर भी पुरे विश्व मे स्वतंत्रता का अभ्यास चल रहा है । व्यहवार मे कुछ हद तक सही भी दिख रहा है जैसे प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था मे लोग स्वतंत्र रुप से बोल सकते है, जी सकते है, घुमफिर कर सकते है । अपनी ईच्छा अनुसार व्यवसाय कर सकते है संगठन बना सकते है आदि । फिर भी वे आचार संहिता के बंधन मे ही रह कर काम कर सकते है अतः विशुद्द रुप से वे स्वतंत्र नही है मनुष्य जन्म से ही परतंत्र है । परन्तु जन्म के वाद उम्र बढते जाने पर वह स्वतंत्रता अर्थात मनोमानी चाहता है और उसी प्रकार के व्यहवार करने का प्रयास जीवन भर करता रहता है ।
बर्तमान समय मे इतिहास रामायण, महाभारत को माना जाता है । इस दोनो मे प्रजातंत्र अर्थात प्रजा के इच्छा वा बहुमत द्धारा राजा को स्थापित करने का अभ्यास शुरु हुआ था । परन्तु रामायण मे भी कैकेयी के बेटा भरत को राजा बनाने के इच्छा से राम को वनबास जाना पडा और महाभारत मे धृतराष्ट्र के पुत्र मोह से दुर्योधन को राजा बनाने कि इच्छा से ही महाभारत हुइ । इस तरह देखा गया है कि परिवारवाद वा व्यक्तिवाद की अभ्यास वा इच्छा हुई जहा पर प्रजातंत्र की मूल्य मान्यता को स्थापित करने के लिए बहुत बडी मुल्य चुकाना पडा जैसे महाभारत मे १८ करोड व्यक्ति की प्राण की आहुती देनी पडी तब जा कर प्रजातंत्र की स्थापना हुई जबकी प्रथम विश्व यूद्ध तथा द्दितीय विश्व यूद्ध मे इतने व्यक्ति की हत्या नही हुई अतः महाभारत का यूद्ध कितना भयानक रहा होगा उसकी कल्पना हम लोग कर सकते है ।
इन दिनो भी प्रजातंत्र खतरा मे है, इसका अभास होता रहता है मानव समुदाय मे निरंतर यह दोनो अवस्था होती रहती है कभी व्यक्तिवादी प्रवृति हावी होती है तो कभी प्रजातांंत्रिक प्रवृति हावी होती है तो और यह चलती रहती है । इसका मूल कारण क्या है तो इसका उत्तर दर्शन शास्त्र मे है जो इस प्रकार है ।

प्रत्येक जीव पाच चीज चाहता है ।
१) जीवन चाहता है, कभी मृत्यू नही चाहता
२) ज्ञान चाहता है, मूर्ख नही बनना चाहता
३) स्वतंत्रता चाहता है, परतंत्र नही रहना चाहता
४) सब पर शासन करना चाहता है, हमे कोइ रोके टोके नही हम जो कहते है वही सत्य है सभी लोग मान ले ।
५) और अंत मे आनन्द चाहता है ।
अनंत काल से जीव आनन्द के लिए ही प्रत्येक पल पल कार्य करता आ रहा है परन्तु अभी तक यह पूर्ण रुप से मिला नही है संसार मे सुःख दिखाइ देती है परन्तु यह अनित्य, सीमित मात्रा का एवं परिनामी होता है जो धीरे धीरे कम होता जाता है और समाप्त हो जाती है जवकी हमारी चाहना है असिमित मात्रा का सुःख मिले बढते ही जाय कभी भी समाप्त न हो ।
चौथा जो चाहना है कि हमारी बात सभी लोग मान ले अप्रत्यक्ष मे इसे दुसरो पर सासन ही करते है । संसार का यही मुल कारण है आपसी झगड़ा का, मनमोटाव, द्धन्द की श्रृजना, टकराव आदी का । चाहे संगठन हो, चाहे पति पत्नि हो, चाहे पिता और पुत्र हो हर स्थान पर यह व्यवहार मे दिखाई देता है परिणाम होता है आपसी मतभिन्नता, दोष, कलह अशान्ति और मन मे द्धन्द उत्पन्न होता है जिस से दुश्मनी हो जाती है । लोग निरास हो जाते है ।
कुरुक्षेत्र मे अर्जुन के मन मे द्धन्द उत्पन्न हुआ उसी द्धन्द की समाधान करने के लिए भगवान श्री कृष्ण का लेक्चर एक शास्त्र गीता बन गया जो आज विश्व प्रसिद्ध है और पल पल मे काम लगने वाला शास्त्र है ।
प्रत्येक मनुष्य के भीतर द्धन्द चलता रहता है । संसार दो प्रकार की है एक बाहर की संसार और एक भीतर की । बाहर के संसार आखो से दिखाइ देती है भीतर की संसार मे अनुभूती होती है । अतः हम सभी भीतरी संसार के कुरुक्षेत्र मै ही अपना समय वीताते रहते है । यही हमारी अवस्था है । गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम स्लोक मे धर्मक्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र शब्दका प्रयोग हुआ है । कुरु अर्थात करो , क्षेत्र का मतलव स्थान । श्री कृष्ण कहते है कि प्रकृति से उत्पन्न तीनो गुणो (सतो, रजो और तमो) द्धारा परवश होकर मनुष्य कर्म करता है वह क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नही रह सक्ता है । मन ही क्षेत्र है, एक अखाडा है इसमे लडने वाली प्रवृत्रिया दो है एक दैवी सम्पदा दुसरा आसुरी सम्पदा । इन दो प्रवृतियो मे संघर्ष होता रहता है । यह क्षेत्र का संघर्ष है और यही वास्तविक यूद्ध है ।
अब प्रश्न उठता है की मनुष्य मे यह क्यो होता है यह बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है इसको समझने के लिए हमे तीन तत्व को समझना होगा वह है जीव, माया और भगवान । यह तिनो नित्य, निरन्तर अनादि है हम मनुष्य एक जीव है । ८४ लाख प्रकार की शरीर होती है । उस सभी मे से हम मनुष्य उत्तम है तो इससे समझ मे आती है की यह मानव शरीर कितना मुल्यवान है । फिर भी हमारे भीतर द्धन्द उत्पन्न होती है तो यह क्यो ? क्यौकि जीव अनंत काल से माया के आधीन है । माया की शक्ति भगवान के बराबर की शक्ति है परन्तु जीव और माया का शासक भगवान है अर्थात भगवान के आधिन मे जीव और माया है ।
मया दो प्रकार की है (१) जीव माया
(२) गुण माया
(१) जीव मायाः– (क)आवरण माया ःभगवान से अलग रखे हुए है ।
(ख)विक्षेपात माया (बेहोसी) माया, यह हमे संसारिक माया मोह मे भुला दिया है
गीता के दुसरा अध्याय का १४ वाँ स्लोक ः
समस्त विषय ही ईन्द्रियो के साथ संयोग होने पर शीत, उष्ण, राग–द्वेष, हर्ष–शोक, सुख–दुखः, अनुकुलता–प्रतिकुलता आदि समस्त द्वन्दो को उत्पन्न करने वाला है । उनमे नित्य बृद्धि होने से नाना प्रकार के विचारो की उत्पति होती है अतः उनको अनित्य समझकर त्याग करना चाहिए तथा सहन करना चाहिए ।
द्वन्द की परिभाषा ः सुखः दुखः, लाभ हानि , किर्ति अकिर्ति, मान सम्मान अपमान , और अनुकुल प्रतिकुल आदि परस्प विरोधी यूग्मपदार्थी का नाम द्वन्द है ।
गीता के दुसरे अध्याय के ४१ वाँ स्लोक ः हे अर्जुन ईस कर्म योग मे निस्चयात्कि बृद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेक हिन सकाम मनुष्यो की बृद्धियो निस्चय ही बहुत मे दो वाली और अनन्त होती है ।
सकाम भाव से यज्ञादि कर्म करने वाले मनुस्य के भिन्न भिन्न उदेस्य रहते है । कोई एक किसी भोगो कि प्राप्ती के लिए दुसरे प्रकार का कर्म करता है । इसके सिवा वे किसी एक उदेस्य से किए जाने वाले कर्म मे भी अनेक प्रकार के भोगो की कामना दिया करते है और संसार के समस्त पदार्थो मे और गघटनाओ मे उनका विषय भाव रहता है । किसी को प्रिय समझते है और किसी अंश मे अप्रिय समझते है । इस प्रकार संसार के समस्त पदार्थो मे व्यक्तियो मे और गघटनाओं मे उनकि अनेक प्रकार से विषम बृद्धि रहति है और उनके अनन्त भेद होते है ।
अर्थात जो व्यक्ति भोग और ऐस्वर्य मे आसक्त है उनकि परमातमामे निश्चियात्मक बृद्धि नही होती है इस लिए आम व्यक्ति अध्यात्म मे नही लगता है । वह शरीर के ही सुख और भोग मे लगा रहता है ।
आत्मा के यर्थाथ स्वरुप को न जिवन के कारण ही मनुस्यका समस्त पदार्थो मे विषम भाव हो रहा है जब आत्मा के यर्थाथ स्वरुप को समझ लेने पर उसकि दृष्टि मे आत्मा और परमात्मा का भेद नही रहता है और एक सचिदानन्दधन ब्रहम से भिन्न किसी की सत्ता नही रहती, तब उसकी किसी मे भेद बृद्धि हो ही कैसे सकती है ?
(२) गुण मायाः– तिन प्रकार की है
(क) तमो गुणी
(ख) रजो गुणी
(ग) सतो गुणी
यही तीन गुण वाला माया हमे तृष्णा, माया, इच्छाए बढा दिया जिस से हम संसार मे भटक रहे है और द्धन्द के चक्कर मे फसे हुए है । आवरण माया ने हमारे उपर अज्ञान का आवरण लगा दिया है जिससे ज्ञान हट गया और हम द्धन्द की अवस्था मे है ।
सांसारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो हम सभी अपने को ज्ञानी, विद्धान कहते है और मानते है तर्क कहता है की जब आप ज्ञानी हो तो आपके बाहर या भीतर झगडा, मनमुटाब, द्धेश आदि क्यो है ? क्या अमृत के भीतर भी विष होता है ? नही । सिद्ध होता है की हमे कुछ शव्दो का ज्ञान है जो समान्य है । सत्य का ज्ञान नही है जो अमृत समान है यह जब होगा तभी हम अद्धैत्य बन जाएगे और द्धन्द समाप्त होगा ।
अध्यात्म की दृष्टिकोण से हम सभी पागल है बेहास है सधारण सी भाषा मे कहा जाए तो पागल व्यक्ति किसी की बात को नही मानता है जिसे हम पागल कहते है । तो हम जो अपनी राय रखते है दुसरा नही मानता है तो दुसरे की नजर मे वह पागल हो गये । यह तर्क कहता है परन्तु व्यवहारमे हम ऐसा नही मानते है कह देते है घमंडी है मुर्ख है । मेडीकल की भाषा मे पागल की परीभाषा कुछ अलग है तथा बेहोस की बात अलग है जब की हम चेतनशील प्राणी है । हम जीवित है चलते फिरते, बात करते, काम करते है तो हम बेहोस कैसे हुए नही सर यह दिखता है जो बेहोस है वह नही सुनता है और हमारी हालत यही है की कुछ कहा जाता है तो हम अनसुनी कर देते है इस लिए तर्क से सिद्ध हाता है कि हम चलता फिरता बेहोस है ।
यह एक दर्शन है इसे गंभीरता से समझना होगा तभी हमारे स्वभाव तथा व्यवहार मे परिवर्तन होगा । इसके समाधान के लिए तत्वज्ञान की प्राप्ति करना होगा यह महापुरुष के संग से होगा । हमे सत्य का संग करना होगा । ।। धन्यवाद ।।

