नवलपरासी का प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ स्थल रामग्राम : डॉ. कौशलेन्द्र श्रीवास्तव

हिमालिनी,5 अप्रैल, 2023 | नेपाल के पश्चिमी भूभाग में अवस्थित तराई के तीन जिले कपिलवस्तु, रुपन्देही और नवलपरासी धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही गरिमामय और पवित्र क्षेत्र हैं । सारे संसार को सत्य, शान्ति, अहिंसा, करुणा, मैत्री, मानवता, समानता और स्वतन्त्र चिंतन का संदेश देने वाले देवपुरुष महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म रुपन्देही जिले के लुम्बिनी नामक स्थान में हुआ था । कपिलवस्तु जिला के तिलौराकोट नामक स्थान में उनके पिता राजा शुद्धोधन की राजधानी थी जहाँ गौतम बुद्ध युवाकाल तक रहे और सन्यासी होने के वाद चार बार आये । नवलपरासी जिले में पुराने कोलीय राज्य में भगवान बुद्ध के पवित्र अस्थिधातुओं के ऊपर विशाल स्तूप स्थापित करके तत्कालीन कोलीय राजा और जनता ने पूजा की थी । इसलिए संसार के समस्त बौद्धमार्गी समाज के लिए तराई का यह विस्तृत क्षेत्र अत्यंत पूजनीय और श्रेष्ठ तीर्थस्थल के रुप में सुप्रसिद्ध रहा है । भगवान बुद्ध के त्याग, तपस्या, महानता और उनके शाश्वत दिव्य उपदेशों में श्रद्धा रखने वाले विश्व के समग्र मानव समुदाय के लिए ये स्थान अतीव आदरणीय हैं ।
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व इन तीनों जिलों का क्षेत्र दो देशों में विभाजित था । रोहिन नदी के पश्चिम का क्षेत्र ‘शाक्य गणराज्य’ और पूरब में नारायणी नदी तक का क्षेत्र ‘कोलीय गणराज्य’ कहलाता था । बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि इस नदी के पानी को लेकर विवाद खडा होने पर इन दो राज्यों के बीच भगवान बुद्ध ने ही मध्यस्थता किया था और संघर्ष होने से बचा लिया था । नारायणी नदी को उस समय सदानीरा अथवा मही के नाम से जाना जाता था ।



प्राचीन बौद्ध साहित्य में कपिलवस्तु, लुम्बिनी और रामग्राम के संबन्ध में अनेक विवरण मिलते हैं । आज से लगभग २७ सौं वर्ष पहले बनारस के एक क्षत्रिय राजा जिनका नाम राम था कुष्ठ नामक बीमारी से पीडित होने के कारण अपना राज्य अपने उत्तराधिकारियों को सौंपकर हिमालय के इस जंगली वातावरण में आ पहुँचे । कोलवृक्षों के प्रभाव से उनकी बीमारी जाती रही । इसी प्रकार कोशल राज्य के राजा ओक्काका की पुत्री राजकुमारी प्रिया भी कुष्ठ रोग से पीडित होकर इसी जंगल में आ पहुँची । इस जंगल के प्रभावकारी स्वस्थ वातावरण से उनकी भी बीमारी जाती रही । रोगमुक्ति के बाद राजा राम और राजकुमारी प्रिया ने विवाह कर लिया और इस क्षेत्र में एक नये राजवंश और एक नये राज्य की स्थापना की । कोलवृक्ष के नाम पर यह नया राजवंश ‘कोलीय’ कहलाया और इस नये राज्य को ‘कोलीय गणराज्य’ के नाम से संबोधित किया गया । रामग्राम नामक राजधानी इन्होंने ही बसाई जिसे पहले कोलनगर अथवा व्याध्रपथ के नाम से भी पुकारा जाता था । कालान्तर इसके संस्थापक राजा राम के नाम पर इसका नाम रामग्राम हुआ ।
कोशल नरेश ओक्काका की सुपुत्री प्रिया की अपनी एक अलग कहानी है । कोशल देश के राजा ओक्काका की बडी महारानी की मृत्यु के बाद छोटी रानी जयन्ती ने जिद किया कि बडी महारानी के चार पुत्र और पाँच पुत्रियों को देश से निकाल दिया जाय और उनके पुत्र को ही राजा बनाया जाय । उनके इस प्रस्ताव को राजा ने मान लिया । राजकुमारी प्रिया जो सबसे बड़ी थीं अपने भाइयों द्वारा रोहिन नदी को पार करके इस कोलवृक्ष के जंगल में लाकर रख दी गंई । जहां संयोगवश उनकी भेंट बनारस के राजा राम से हुई जो वहाँ पहले से ही मौजूद थे । सम्भव है कि कोलवृक्ष का जंगल कुष्ठ नामक बीमारी को ठीक करने के लिये पहले से ही प्रसिद्ध रहा हो और इसी कारणवश दो अलग अलग क्षेत्रों से ये लोग इस एक स्थान पर पहुँचे हों । राजकुमारी प्रिया कपिलवस्तु के शाक्य राजपरिवार की कन्या थीं ।
कपिलवस्तु के महाराजा शुद्धोधन के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ गौतम अपने २९ वर्ष के युवाकाल में सम्पूर्ण राजसी ऐशोआराम, अपने राजपाट, अपनी पत्नी यशोधरा और अपने प्रिय पुत्र राहुल की मोहमाया त्याग कर देश से बाहर हो गये और सत्य तथा शान्ति पद की खोज में सन्यासी बन गये । ३५ वर्ष की आयु में सिद्धि प्राप्त करने के वाद वे ‘गौतम बुद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध हुवे । अपनी महानता और पवित्रता की महिमा के कारण वे ‘भगवान’ की उपाधि से भी विभूषित हुवे ।
सारा जीवन आध्यात्मिक साधना और मानवता की सेवा में गुजारने के वाद अस्सी वर्ष की आयु में कुशीनगर (भारत) के उपवर्र्तन नामक उपवन में दो शाल वृक्ष के बीच वैशाख पूर्णिमा मंगलवार की रात में भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण हो गया (ईसा पूर्व पाँचवी शताब्दी) । अचम्भे की वात है कि उनके जीवन की सभी विशिष्ट घटनायें पूर्णिमा के दिन ही घटित होती हुई दिखाई देती हैं ।
उनके शरीर के दाह संस्कार के वाद चिता से प्राप्त शवाशेष अस्थिधातुओं को आठ प्रमुख राज्यों के क्षत्रिय राजाओं में बांट दिया गया ताकि वे उनपर स्तूप स्थापित करके पूजा अर्चना करने का अवसर प्राप्त कर सकें । उस समय की यह एक विशिष्ट परम्परा थी । उस अस्थिधातुओं का एक भाग इस कोलीय गणराज्य के राजा को भी प्राप्त हुआ । उन्हाेंने उसे अपने कोलीय राज्य में स्थापित करके एक सुन्दर और विशाल स्तूप का निर्माण किया । वही स्तूप ‘रामग्राम स्तूप’ के नाम से सारे संसार में मशहूर हुआ जो ढाई हजार वर्ष से प्रकृति और प्राणियों के अनेक प्रहारों को सहते हुवे आज भी जीर्णशीर्ण अवस्था मे देउरवा और उजैनी गांव के बीच झरही नदी के किनारे जीवित है ।
भारत के महान सम्राट अशोक अपने शासन के बीसवें वर्ष में भगवान बुद्ध से संबन्धित सभी पवित्र और ऐतिहासिक स्थलों के दर्शन और पूजा के लिये निकल पडेÞ । इस महान धर्मसेवी एवं समाजसेवी सम्राट ने उन स्थानों पर स्तूपाें और स्तम्भों का निर्माण किया साथ ही उनके शासनकाल से दो सौ वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध की अस्थिधातुओं के उपर विभिन्न राज्यों में जो आठ स्तूप बने थे उनसे धातुओं को निकाल कर पुनः उन्हे ८४००० भागों में विभाजित करके सारे साम्राज्य में स्तूप बनाने की योजना बनाई । इस योजना के यात्राक्रम में वे रामग्राम स्तूप तक भी पहुँचे । लेकिन उस समय इस स्तूप की रक्षा करने वाले ‘नाग राजा’ ने अनुरोध किया कि इस स्तूप को न तोडा जाय जिसे सम्राट ने मान लिया और वे वापस चले गये । इस घटना के वजह से स्तूप के भीतर सारा अस्थिधातु अपने मौलिक रुप में सुरक्षित ही बचा रह गया । इसकी पवित्रता भी खंडित नहीं हुई । इससे बौद्ध समाज में इस स्तूप की मान्यता और इज्जत बहुत ज्यादे बढ गई जो आज तक कायम है ।
दुर्भाग्य से १२ वीं शताब्दी के वाद भारत पर विदेशी और विधर्मी तुर्क तथा मुस्लिम आक्रमणकारियों का हमला शुरु हो गया । बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म और मूर्तियों से घृणा करने वाले इन मुस्लिम शासकों ने हिन्दू और बौद्ध धर्म के साधुओं–सन्यासियों और भिक्षु भिक्षुणियों को बुरी तरह सताना शुरु कर दिया । साथ ही मंदिरों, मठों, मूर्तियों, विहारों और स्तम्भों को तोड कर नष्ट करने का सरकारी अभियान ही शुरु कर दिया । परिणाम स्वरूप पुस्तकालय, देवालय, विद्यालय, विहार तथा अशोक के बनाये स्तम्भ जलते और टूटते रहे । इन रचनाओं के टूटने के वाद इन्हें फिर से बनाने या मरम्मत करने की इजाजत नहीं थी ।
उधर अनेक कारणों से भारत से बौद्ध धर्म भी समाप्त हो चुका था । इन राजनीतिक तथा धार्मिक परिवर्तनों का सबसे अधिक दुष्प्रभाव धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों पर पडा । बौद्धधर्म से संबन्धित विहारों, मंदिरों, स्तूपों और स्तम्भों को समझने, देखने और सुधारने वाला कोई नहीं रह गया । बडेÞ–बड़े, विहार, नगर और राजप्रासाद टूट कर टीले में बदल गये । अनेक पुराने स्तूप भी मिट गये । उनके ईंटों से लोगों ने अपना घरद्वार बनवा लिया । इसके भीतर खजाना मिलेगा इस लोभ से भी लोग स्तूपों को तोड़ते और बिगाड़ते रहे । इनके विषय में अनेक मनगढंत कहानियां भी रचते रहे । परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म से संबन्धित प्राचीन ऐतिहासिक स्थल कुशीनगर, सारनाथ, लुम्बिनी, कपिलवस्तु और रामग्राम जैसे स्थानों की पहचान पूरी तरह समाप्त हो गई । ये स्थान धरती के नीचे विलीन हो गये । इनकी याद किसी को नहीं रह गई । सातवीं शताब्दी में चीनिया यात्री हुएनसाँग ने इसे देखा और इसके विषय में लिखा था लेकिन उसके वाद लगभग बारह सौ वर्षाें तक इसके इतिहास का ज्ञान किसी को नहीं रहा ।
लेकिन भारत में अंगरेजों का शासन स्थापित होने पर उन्हाेंने बौद्ध धर्म से संबन्धित साहित्य तथा सभी प्राचीन ऐतिहासिक स्थानों का अध्ययन और अनुसंधान शुरु किया । जिसमें उन्हे अपूर्व सफलता मिली । भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवित करने का श्रेय भी उन्होंने हासिल किया । अंगरेज विद्वानों ने बहुत मेहनत के साथ सारनाथ, कुशीनगर तथा लुम्बिनी जैसे अनेक स्थानों का पता लगाया और उन्हे संसार के सामने फिर से प्रस्तुत किया । इसी क्रम में उन्होंने रामग्राम स्तूप की भी खोज शुरु की ।
सबसे पहले अंग्रेज विद्वान जनरल कनिंघम ने सन् १८६१ में भारत उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला में स्थित देवकाली नामक गांव के पास के टीले को रामग्राम स्तूप होने का अनुमान किया । लेकिन इसकी पुरातात्विक पुष्टि नहीं हो सकी । उसके वाद एस.एल. कारलायल नामक अंगरेज विद्वान ने देवरिया जिला में स्थित रामपुर नामक स्थान के पास मिले टीले को रामग्राम स्तूप होने की सम्भावना व्यक्त की । लेकिन अपने इस अनुमान का सही प्रमाण न मिलने के कारण स्वयम् ही खारिज कर दिया । सबसे वाद में विन्सेन्ट स्मिथ नामक अंगरेज विद्वान ने महराजगंज जिला में भारत–नेपाल बार्डर के पास स्थित धरमौली गांव के पास रामग्राम स्तूप खोजने का सुझाव दिया, साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि निचलौल से उत्तर पूर्व दिशा में नेपाल की तरार्ई में ही रामग्राम स्तूप मिलने की अधिक सम्भावना है । भारतीय विद्वान पी.सी. मुखर्जी ने भी उसी समय लुम्बिनी से पूरब की ओर नेपाल की तराई में ही रामग्राम स्तूप खोजने का सलाह दिया था ।
सन् १८९६ में डा. फुहररद्वारा लुम्बिनी मिल जाना बहुत बडी ऐतिहासिक और पुरातात्विक उपलब्धि थी । इससे रामग्राम खोजने का भी सूत्र मिल गया । चीन से आनेवाले तीर्थयात्री फाहियान और हुवेनसाँग दोनों ने ही अपने यात्रा विवरण में लिख रखा था कि रामग्राम लुम्बिनी से पूरब की ओर स्थित है ।
इसी संकेत के अनुसार लुम्बिनी अनुसंधान के दों वर्ष पश्चात सन् १८९८ में एक अंगरेज अनुसंधानकर्ता नेपाल के तराई क्षेत्र मे ही लुम्बिनी से पूरब की दिशा मे रामग्राम खोजते हुवे आगे बढे । उनका नाम डा. डब्ल्यु. होए था । उन्होने रोहिन नदी को पार करके प्राचीन कोलीय राज्य मे प्रवेश किया और नवलपरासी जिला मे परासी बजार के पास देउरवा गांव के निकट झरही नदी के किनारे इस रामग्राम स्तूप तक आ पुहँचे । अनुसंधान की दृष्टि से सौ साल पहले इस स्तूप तक पहुँचने वाले वे पहले विद्धान थे । इतिहास मे इस स्तूप के पता लगाने का श्रेय डा. होए को ही दिया गया है ।
बीसवीं शताब्दी के मध्य में पहली वार सन् १९६४ मे प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के भारतीय विद्धान एस.बी. देव ने सारे लुम्बिनी अञ्चल का अनुसंधान भ्रमण किया । वे उस समय त्रिभुवन विश्व विद्यालय में प्राध्यापक थे । उन्हो ने अपने रिपोर्ट मे लिखा कि देउरवा गांव के पास स्थित यह टीला रामग्राम स्तूप ही है ।
यहां से आगे बढने के पहले पीछे की और लौटें । चीन देश निवासी भगवान बुद्ध के एक परम भक्त जिनका नाम फहियान था सभी बौद्ध स्थलों का दर्शन करने पांचवी शताब्दी मे भारत आये । फाहियान आने के लगभग दो सौ वर्ष वाद सातवीं शताब्दी मे चीन से एक दूसरे भक्त यात्री का भी आगमन हुआ । जिसका नाम हुएनसाँग था । ये दोनों रामग्राम भी आए । हुएनसाँग ने स्तूप के पास उस विहार को भी देखा जिसे फाहियान ने देखा था । उनके अनुसार उस समय स्तूप की उँचाई लगभग सौ फीट के करीब थी । हुएनसाँग ने स्तूप से उत्तर पश्चिम दिशा मे रामग्राम राजधानी के नगर को भी देखा था जो कि उस समय पूरी तरह ध्वस्त और उजाड हो चुका था । चीन से जो भी यात्री कपिलवस्तु और लुम्बिनी आये वे सब रामग्राम स्तूप तक भी अवश्य आये । इससे भी इस स्तूप की महत्ता सिद्ध होती है । इस स्तुप के दर्शन तथा पूजा अर्चना के लिए विदेशों से प्रतिवर्ष हजारों की संख्या मे बौद्ध तीर्थ यात्री यहाँ आते रहते हैं ।
सन् १९९९ मे नेपाल पुरातत्व विभाग ने इस स्तूप का विस्तृत उत्खनन और अनुसंधान शुरु किया जोकि ६ वर्षो तक चलता रहा । इसके मुख्य उत्खननकर्ता थे प्रसिद्ध पुरातत्वविद शुक्रसागर श्रेष्ठ । उन्होंने बहुत ही सुयोग्यता के साथ उत्खनन कार्य को सम्पन्न किया । स्तूप के बाहिरी किनारे की खुदाई करने पर उसमे मौर्य, शुँग, कुषान और गुप्तकाल की रचनायें मिलीं । स्तूप से बिल्कुल सटे हुवे स्थान पर जमीन के नीचे उस विहार की भी सभी दीवारें सुरक्षित मिलीं जिसे फाहियान ने पांचवीं शताब्दी और हुएनसाँग ने सातवीं शताब्दी मे देखा था । इस विहार के विषय में फाहियान ने लिखा है कि उनके वहाँ आने के कुछ ही समय पहले उसका निर्माण हुआ था अर्थात वह गुप्तकाल था । विहार के अवशेष मे प्राप्त र्इँट गुप्तकाल की ही हैं । इस तरह अनेक पुष्ट पुरातात्विक प्रमाणों के मिल जाने से यह निश्चित हो गया कि यह “रामग्राम स्तूप” ही है ।
सन् २००४ मे रामग्राम स्तूपका उत्खनन कार्य समाप्त हुआ । उसी वर्ष इसके उत्खननकर्ता प्रसिद्ध पुरातत्वविद शुक्रसागर श्रेष्ठ ने पंडितपुर गांव के पास प्राचीन रामग्राम राजधानी को भी खोज निकाला । पुरातात्विक जगत की यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण, चमत्कारिक और ऐतिहासिक घटना है । इस रामग्राम राजधानी से ‘रामग्राम स्तूप’ की पुष्टि होती है और रामग्राम स्तूप से ‘रामग्राम राजधानी’ की । क्योंकि हुएनसाँग ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि लुम्बिनी से चल कर रामग्राम स्तूप तक जाने के रास्ते में उसने रामग्राम राजधानी से दक्षिण पूर्व दिशा में रामग्राम स्तूप को देखा था । राजधानी उस समय पूरी तरह ध्वस्त अवस्था में थी । पंडितपुर से उजैनी उसी दिशा में है ।
भगवान बुद्ध की अमर स्मृतियां संजोकर रखने वाले गौरवमय स्थल नेपाल में बहुत सारे हैं । लेकिन उनके पवित्र पार्थिव शरीर के ही एक अमूल्य अंश को आज तक अपनी गोद मे संभाल कर रखने का गौरव सिर्फ नवलपरासी की धरती को ही हासिल है । यह स्तूप हमारे देश की एक अनुपम निधि और अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की विरासत है । नेपाल राष्ट्र के इस गौरवशाली सांस्कृतिक स्मारक को संसार से परिचित कराने और इसे संवारने के लिये सरकार को यथेष्ट रुप में सचेष्ट होना अनिवार्य है । साथ ही जिला की जनता को भी सचेत होना उतना ही जरुरी है । इस क्षेत्र की प्राचीन प्रतिष्ठा को प्रतिबिम्बित करने वाला यह पवित्र स्तूप सिर्फ हमारा ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव मात्रका ऐतिहासिक धरोहर है । जो हमें निरंतर एक विश्वमान्य अलौकिक महापुरुष की याद दिलाता है और मानवता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है ।
