हिंदी केन्द्रीय विभाग : एक विहंगावलोकन : विनोदकुमार विश्वकर्मा ` विमल`
विनोदकुमार विश्वकर्मा विमल, प्राक्कथन । त्रिभुवन विश्वविद्यालय नेपाल का सबसे बडा एवं पुरातन विश्वविद्यालय है . सन् १९५९ में यह विश्वविद्यालय स्थापित किया गया था . इस विश्वविद्यालय को तात्कालिक नेपाल के नरेश स्वर्गीय त्रिभुवन वीर विक्रम शाहदेव के नाम से रखा गया है . इस विश्वविद्यालय में चार संकाय हैं – १. मानविकी तथा सामाजिक विज्ञान / शास्त्र , २. प्रबन्धन संकाय , ३. शिक्षा संकाय ,४. विधि संकाय . इसका केन्द्रीय मुख्यालय कीर्तिपुर , काठमाण्डू में है . इस विश्वविद्यालय में १५ हजार से अधिक छात्र अध्ययनरत हैं . कृषि तथा पशु विज्ञान अध्ययन संस्थान , वन विज्ञान अध्ययन संस्थान , चिकित्सा शास्त्र अध्ययन संस्थान ,समाजशास्त्र , मानवशास्त्र ,व्यवस्थापन , शिक्षा शास्त्र तथा कानून में यह विश्वविद्यालय शिक्षा प्रदान कर रहा है . यह विश्वविद्यालय अभी नेपाल की उच्च शिक्षा में ७५ प्रतिशत से अधिक भाग वहन कर रहा है . अंग्रेजी , नेपाली ,संस्कृत , हिंदी , मैथिली ,संस्कृति , भूगोल , ग्रामीण विकास , राजनीति विज्ञान , भाषा विज्ञान , जनसंख्या अध्ययन , अर्थशास्त्र , समाजशास्त्र , एन्थ्रोपोलोजी , पत्रकारिता , इतिहास , नेपाल भाषा , बौद्ध अध्ययन , द्वन्द्व व्यवस्थापन , पुस्तकालय विज्ञान , गृहविज्ञान , सुशासन और भ्रष्टाचार , योग विज्ञान ,समाज अध्ययन , जेन्डर आदि विषय मानविकी तथा सामाजिक विज्ञान / शास्त्र संकाय अन्तर्गत पढ़ाई जाती है .
नेपाल के समग्र विकास के लिए आवश्यक सक्षम मानव संसाधन तैयार करना , मानक उच्च शिक्षा प्रदान करना तथा राष्ट्रीय संस्कृति और परम्परा को विकसित तथा रक्षा करना त्रिभुवन विश्वविद्यालय का मूल उद्देश्य रहा है . अपने आकार और कार्यक्रमों की विविधता के मामले में दुनिया के सबसे बडे विश्वविद्यालयों में से एक होने के नाते यह बडी संख्या में देशी व विदेशी छात्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है .
स्नातकोत्तर स्तरीय हिंदी शिक्षण
नेपाल में महाविद्यालय का इतिहास १९५५ ई . से प्रारम्भ होता है . सन् १९५५ -६० के बीच काठमान्डू के अतिरिक्त विराटनगर , राजविराज , सिरहा , जनकपुरधाम , वीरगंज , नेपालगंज ( तराई / मधेश ) आदि स्थानों में स्थानीय जनता , राजनीतिक कार्यकर्ता , बुद्धिजीवी वर्ग एवं कुछ सम्पत्तिशाली लोगों के सक्रिय सहयोग से महाविद्यालयों की स्थापना हुई . इन महाविद्यालयों में अन्य विषयों के साथ हिंदी भाषा तथा साहित्य का भी शिक्षण कार्य प्रारम्भ किया गया . इसी सन्दर्भ में काठमान्डू के त्रिचन्द्र एवं पद्मकन्या कैम्पसों में भी हिंदी भाषा शिक्षण कार्य होता था . इस तरह हिंदी शिक्षण में उत्तरोत्तर वृद्धि देखी गई थी . छात्रों में उत्साह के कारण महाविद्यालयों में छात्र संख्या में उत्साहबर्द्धक वृद्धि हुई थी . राणाकाल में स्थापित त्रिचन्द कैम्पस तो प्रारम्भ में पटना विश्वविद्यालय ( बिहार , भारत ) से ही सम्बद्ध ( Affiliated ) था . विक्रम सम्वत् २०१५ में त्रिभुवन विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ , परन्तु परीक्षा की व्यवस्था उस समय तक पटना विश्वविद्यालय द्वारा ही हुआ करती थी . अन्तरस्नातक तथा स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम पटना विश्वविद्यालय का ही था . विक्रम सम्वत् २०१६ में त्रिभुवन विश्वविद्यालय की स्थापना काठमान्डू में होने के बाद यहाँ के महाविद्यालयों की पटना से सम्बद्धता समाप्त हो गई . शिक्षण व्यवस्था त्रिभुवन विश्वविद्यालय द्वारा होने लगी . पटना विश्वविद्यालय से सम्बन्धित सभी महाविद्यालय त्रिभुवन विश्वविद्यालय का आंगिक निकाय बन गए . धीरे – धीरे देश के अनेक स्थानों में महाविद्यालयों की स्थापना होने लगी .
विक्रम सम्वत् २०१७ साल में पंचायती व्यवस्था ने देश में सर्वांगीण विकास की योजना बनाई . हर क्षेत्र में कुछ न कुछ परिवर्तन किया गया . प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा का भार सरकार ने अपने उपर लिया . त्रिचन्द एवं पद्मकन्या कैम्पसों में हिंदी का अध्यापन कार्य स्थगित कर दिया गया . एक तो हिंदी विषय का अध्यापन महाविद्यालय तक सीमित था , इस पर भी काठमान्डू में अन्तरस्नातक तथा स्नातक कक्षा की पढ़ाई बन्द कर दी गई जिससे काठमान्डू में पढ़ने वाले छात्रों को परेशानी होने लगी . पाठ्यक्रम में आमूल परिवर्तन किया गया . २ वर्षों की परीक्षा प्रणाली हटाकर सेमेस्टर प्रणाली ( विक्रम सम्वत् २०३० अर्थात् सन् १९७४ के बाद ) लागू की गई . इस तरह उच्च शिक्षा क्षेत्र में सतत एक प्रयोग के बाद दूसरा प्रयोग होता रहा , फिर कुछ सुधार भी होते रहे . इस तरह हम देखते हैं कि उच्च शिक्षा के प्रारम्भ से अधुनातन काल तक हिंदी शिक्षण की प्रक्रिया में अनेक उतार – चढाव होते रहे . अध्यतन में महेन्द्र मोरंग कैम्पस , विराटनगर ( स्थापित सन् १९५५ ), महेन्द्र विन्देश्वरी बहुमुखी कैम्पस राजविराज ( स्थापित १९५६ ) , रामस्वरूप रामसागर कैम्पस जनकपुरधाम ( स्थापित १९५७ ) , ठाकुरराम बहुमुखी कैम्पस वीरगंज ( स्थापित १९५२ ) , महेन्द्र बहुमुखी कैम्पस नेपालगंज ( स्थापित १९५७ ) तथा पद्मकन्या कैम्पस काठमान्डू ( स्थापित १७ सितम्बर १९५१ ) में स्नातक तक हिंदी की पढ़ाई होती रही है .
नेपाली भाषा तथा साहित्य के विकास और उन्नयन में हिंदी भाषा तथा साहित्यकार , रचनाकार एवं विद्वानों से प्रचुर सहयोग , प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला है . फलतः नेपाल में हिंदी भाषा तथा साहित्य की निजी तथा संस्थागत स्तर पर जो बडे पैमाने पर उपयोग होता है , वह सर्वविदित है . इन्हीं तथ्यों को हृदयंगम करते हुए त्रिभुवन विश्वविद्यालय की स्थापना विक्रम सम्वत् २०१६ में हुई और दो वर्षों के बाद अर्थात् विक्रम सम्वत् २०१८ से त्रिभुवन विश्वविद्यालय ( तात्कालिक केन्द्रीय हिंदी विभाग ) में स्नातकोत्तर तथा पीएचडी तक हिंदी विषय के अध्ययन की व्यवस्था की गई है (वर्तमान में साल २०७८ से एमफील – पीएचडी स्तर का पठन – पाठन ) , जो आजतक अनवरत रुप में जारी है .
आरम्भ में स्नातकोत्तर विभाग के विभागाध्यक्ष त्रिभुवन विश्वविद्यालय के कुछ अन्य विभागों की तरह भारतीय सहयोग में आए विद्वान प्रोफेसर होते थे . इसी क्रम में इस हिंदी केन्द्रीय विभाग में इन्डियन कोआपरेटीव मिशन अन्तर्गत एल . एस . कालेज मुजफ्फरपुर ( बिहार , भारत ) के डा . सच्चिदानन्द चौधरी नियुक्त हुए . इसके बाद कोलम्बो योजना अन्तर्गत भारतीय प्रोफेसर डा . कामेश्वर शर्मा विभागाध्यक्ष में नियुक्त हुए . उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद क्रमश: सूर्यदेव सिंह प्रभाकर, तथा प्रो . डा . कृष्णचन्द्र मिश्र विभागाध्यक्ष बने . उनका देहान्त होने के बाद प्रो . डा. सूर्यनाथ गोप विभागाध्यक्ष बने . उनका अवकाश होने के बाद एसोसिएट प्रोफेसर बसन्तकुमार विश्वकर्मा विभागाध्यक्ष बने . तत्पश्चात प्रो . डा . उषा ठाकुर ने कार्यभार सम्भाला . उनके बाद डा . श्वेता दीप्ति भी विभागाध्यक्षा बनी . अद्यतन में एसोसिएट प्रोफेसर डा. संजीता वर्मा विभागाध्यक्षा के रुप में कार्यरत हैं . इसी प्रकार प्रारम्भिक दौर में इस विभाग में कार्यरत कुछ प्राध्यापकों का नाम उल्लेख करना चाहूंगा . वे हैं – ढुंढीराज भण्डारी ( नेपाल ) , खड्गमान मल्ल ( नेपाल ) , देवर्षी सनाढय ( भारत ) , दिनानाथ शरण ( पटना , बिहार ) , रामचन्द्र शाह ( नेपाल ) , डा . सूर्यदेवसिंह प्रभाकर ( नेपाल ) , डा . रामदयाल राकेश ( नेपाल ) , डा . सूर्यनाथ गोप ( नेपाल ) , दिनानाथ शर्मा ( नेपाल ) , डा . कृष्णचन्द्र मिश्र ( नेपाल ) , सीतारानी श्रेष्ठ ( नेपाल ) , डा . उषा ठाकुर ( नेपाल ) , जयकांतलाल दास ( नेपाल ) , उमानाथ शर्मा ( नेपाल ) , जयनारायण सिंह ( नेपाल ) , वसन्तकुमार विश्वकर्मा ( नेपाल ) . अद्यतन में डा . संजीता वर्मा , डा . श्वेता दीप्ति , डा . मन्चला झा , डा. लक्ष्मी जोशी, विनोदकुमार विश्वकर्मा ( पीएचडी स्कालर ) तथा मौसमी सिंह ( पीएचडी स्कालर ) कार्यरत हैं .
. साहित्य के श्रीबृद्धि हेतु “ साहित्यलोक “ का प्रकाशन
नेपाल में हिंदी भाषा साहित्य की एक विशाल एवं व्यापक परम्परा रही है .यहाँ यह भाषा एक विशाल जनसमूह द्वारा सिर्फ बोली और समझी ही नहीं जाती है वरन् इसमें कई महत्त्वपूर्ण और मौलिक रचनाएं भी हुई हैं .हिंदी साहित्य के आदिकाल से सम्बन्धित कुछ मौलिक ग्रन्थ की रचना यहाँ उपलब्ध हो चुके है . अन्य सम्भावनाओं की भी आशा है . अनुसन्धानकर्ताओं एवं जिज्ञासुओं के लिए यहाँ हिंदी का विशाल क्षेत्र है . वैसे इस दिशा की ओर हिंदी केन्द्रीय विभाग प्रयत्नशील रहा है . लेकिन साधनों की सीमा के कारण इस ओर अब तक कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई है .
हिंदी केन्द्रीय विभाग की स्थापना काल से ही एक हिंदी साहित्यिक पत्रिका की आवश्यकता महसूस हो रही थी , एक ऐसी पत्रिका, जो यहाँ की कला , संस्कृति और साहित्य की गतिविधियों पर प्रकाश डाल सके . हिंदी से नेपाली का बहुत नजदीक का सम्बन्ध है . इस दृष्टि से भी इन दोनों भाषाओं की कई समान प्रवृत्तियाँ एवं मूल्यों का उद्घाटन करने में ऐसा प्रकाशन के पीछे ऐसा ही उद्देश्य है . इन्हीं उद्देश्यों के अनुरुप विक्रम सम्वत् २०३७ ( १९७९ ई. ) साल में तात्कालिक एसोसिएट प्रोफेसर सूर्यनाथ गोप जी के सम्पादकत्व में “ साहित्यलोक “ , जो हिंदी केन्द्रीय विभाग का मुखपत्र है , प्रकाशित हुआ. इस पत्रिका के प्रधान सम्पादक तात्कालिक विभागाध्यक्ष प्रो . डा कृष्णचन्द्र मिश्र थे . इसके बाद डा . सूर्यनाथ गोप , डा उषा ठाकुर , जयकांतलाल दास और पुनः प्रो . डा सूर्यनाथ गोप जी के सम्पादकत्व में यह पत्रिका प्रकाशित हुई . लेकिन आर्थिक अभाव के कारण करीब १५ वर्षों तक बन्द रहा . विक्रम सम्वत् २०६९ से भारतीय दूतावास के सहयोग से पुनः यह पत्रिका तात्कालिक विभागाध्यक्ष एसोसिएट प्रोफेसर वसन्तकुमार विश्वकर्मा और प्रो. डा उषा ठाकुर जी के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुई . तत्पश्चात डा श्वेता दीप्ति और अभी एसोसिएट प्रोफेसर डा संजीता वर्मा जी के सम्पादकत्व में यह पत्रिका प्रकाशित हो रही है . मुझे भी कार्यकारी सम्पादक के रुप में कार्य करने का अवसर मिला है .
A nice article!