सांस्कृतिक विरासत का सिरमौरः मिथिला : अजय कुमार झा
अजय कुमार झा, हिमालिनी अंक अप्रैल 023 । विष्णुपुराण के अनुसार मिथिला जनपद की लम्बाई १९२ मील और चौड़ाई १२४ मील है । मिथिलांचल की सीमा पूरब में कोसी, पश्चिम में नारायणी गंडक और दक्षिण में गंगा है । उत्तर में नेपाल की तराई से मिथिलांचल घुला–मिला है । सातवीं शताब्दी में प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग वैशाली और मिथिला आया था । उसने लिखा है कि वैशाली वृज्जियों की राजधानी थी । वहाँ से वह जनकपुर आया था । उसने जनकपुर का नाम सूनाग लिखा है । कनिंघम साहब और बाबू काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि पाणिनी ने जिन वृज्जियों की बात लिखी है, उनके दो भेद हैं– लिच्छवी और वैदेह । ये दोनों एक जाति वा राष्ट्र की शाखा सदृश थे वृज्जियों को ही पालि में ‘वज्जि’ कहा गया है । थारु लोग (नेपाल की तराई की पहाड़ी जाति) चंपारण के हिन्दुओं को अभी भी वज्जि कहते हैं । कनिंघम के अनुसार वैशाली वाले लिच्छवी और मिथिला वाले वैदेह हैं तथा विदेह राज्य बिहार के सारण (छपरा) जिले से पूर्णिया जिले तक फैला हुआ था । मिथिला के गरिमा को पुराण और उपनिषद अपनी गाथाओं में उकेरते आया है ।

मिथिला के सांस्कृतिक विरासत को जानने से पहले संस्कृति के संबंध मे जानना आवश्यक है । सांस्कृतिक विरासत एक समुदाय द्वारा विकसित जीवन जीने के तरीकों की अभिव्यक्ति है और प्रथाओं, स्थानों, वस्तुओं, कलात्मक अभिव्यक्तियों और मूल्यों सहित पीढ़ी से पीढ़ी तक चली आ रही है । एक समुदाय द्वारा दिए गए कला, विज्ञान और शिक्षा जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्त्रान्तरित किया जाता हैं । अक्सर नेपाल भारत को विविधता वाला देश कहा जाता है । क्याेंकि नेपाल भारत में कुछ क्षेत्रों के साथ साथ भाषा, रहनसहन और पहनावा में फर्क आसानी से देखा जा सकता है । और यह सांस्कृतिक विरासत का एक उदाहरण है । मंदिर, प्राचीन गुफा और कई इमारतें सांस्कृतिक विरासत की निशानी हैं जिसे सरकार या विश्व धरोहर के रूप में संरक्षित किया जाता है । इसके अलावा प्राचीन समय के वास्तु मुलकलाकृतियाँ, मयूजियम में प्रदर्शनी के रूप में रखा जाता है । और अपने देश की जनता को उसके बारे में बताया जाता हैं । सांस्कृतिक विरासत का तात्पर्य है एक साझा बंधन, जो हमारे समुदाय से संबंधित है । यह हमारे इतिहास और हमारी पहचान का प्रतिनिधित्व करता है । हमारे अतीत वर्तमान और भविष्य से जुड़ा होता है । सांस्कृतिक विरासत को अक्सर या तो अमूर्त या मूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में व्यक्त किया जाता है । इसके अलावा, सांस्कृतिक विरासत केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं है जिसे हम देख सकते हैं और छू सकते हैं । इसमें सार तत्व भी शामिल हैंः परंपराएं, मौखिक इतिहास, प्रदर्शन कला, सामाजिक प्रथाओं, पारंपरिक शिल्प कौशल, प्रतिनिधित्व, अनुष्ठान, ज्ञान और कौशल जो एक समुदाय के भीतर पीढ़ी से पीढ़ी तक संचारित होते हैं । मिथिला अपनी उस गरिमामय संस्कृति को अबतक सँजोए हुए है ।
आइए अब इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं । भारत के सीतामढ़ी जिला के सुरसंड का स्वर्ण रानी मंदिर जो अपने में रहस्य की पूरी दुनिया समेटे है; मिथिला के प्राचीन मंदिरों में से एक है ‘रानी मंदिर’ । सुरसंड के मुख्य बाजार से नेपाल जाने वाली सड़क पर उत्तर की ओर स्थित इस मंदिर का निर्माण वर्ष १७०० ई. के आसपास रानी श्रीमती धन्वंतरी कुंबर के द्वारा किया गया था । तीन गुम्बजों वाला यह मंदिर मिथिला के वास्तुशिल्प का अनोखा उदहारण है । मंदिर के शीर्ष पर कलश स्थापित है, जो पीतल से बना है और सोने की परत चढ़ी हुई है । मंदिर के अगले भाग में धोलपुर के पत्थर का इस्तेमाल किया गया है । अंदाजा लगाया जा सकता है की पांच सौ वर्ष पहले वहां से पत्थर लाकर बनाना कितना मुश्किल रहा होगा । यहाँ नाग देवता का साक्षात दर्शन कुछ ही पल में किया जा सकता है । आजतक नाग देवता ने किसी के ऊपर कोई हमला नही किया है । इस मंदिर के बारे में कई गुफा, रात के अंधेरे में निकली रोशनी के बीच गूंजती पायल की झंकार, तहखाना, सीढीÞ, कबूतर, विषैले सर्प अभी भी रहस्य के घेरे में हैं । मंदिर की ईंट वाली दीवार के गुंबद आदि की नक्काशी अद्भुत है । रात में निकलने वाली पायल की झंकार दो किलोमीटर दूर तक सुनाई पड़ती है । लोगों की मानें तो यह आवाज रानी राजवंशी कुंवर की है ।
मंदिर की अकूत संपत्ति के बारे में उल्लेख करना कठिन है । यहां तहखाने के भीतर जाने पर लौटना मुमकिन नहीं । अंदर जाने वाले विषैले सर्प के शिकार बन जाते हैं । नेपाल से प्रकाशित एक पुस्तक में इस बात का उल्लेख है कि वर्ष १८९६ में राजस्थान के स्वामी रामेश्वर दास की यहां सर्पदंश से मौत हो गई । मंदिर की एक सीढी के नीचे और एक ऊपर आने तथा दोनों के परस्पर मिलकर नया रास्ता बनाने की बात भी समझ से परे है । वर्ष २००७ में पूर्व मुखिया शोभित राउत व पूर्व सरपंच गोपाल बारिक ने कार सेवा के जरिए इसके जीर्णोद्धार की पहल की । बहरहाल, मंदिर का पुनरुद्धार करने व इसके रहस्यों से पर्दा हटाने की जरूरत है । ताकि, पर्यटको का ध्यान खींचा जा सके और सांस्कृतिक पक्ष को विश्व समक्ष प्रस्तुत किया जा सके । इसी तरह रानी मंदिर से ठीक आठ किलोमीटर उत्तर नेपाल के रानीरतवारा ग्राम में स्थित प्राचीन लक्ष्मीनारायण मंदिर के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पक्ष को भी विश्वमंच पर लाना आवश्यक है ।
उपनिषद काल से ही मिथिला का इतिहास दार्शनिक परंपरा से जुड़ा रहा है । जनक–याज्ञवलक्य का शास्त्रार्थ इसका प्रतिष्ठित उदाहरण है । मिथिला की दार्शनिक परंपरा निरंतर प्रवाहमान रही है । न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन, योग तथा बौद्ध और जैन दर्शन भी मिथिला की दार्शनिक परंपरा से पूर्णतः जुड़े रहे हैं । प्लेटो ने अपने रिपब्लिक नामक ग्रंथ में जनक की राज व्यवस्था का जिक्र किया है । उन्होंने मंडन मिश्र, वाचस्पति मिश्र, उदयनाचार्य आदि का विशेष संदर्भ देते हुए मिथिला को दर्शन के क्षेत्र में योगदान की बात को स्वीकार किया है । डॉ. नंदकिशोर चौधरी ने मंडन मिश्र, वाचस्पति मिश्र, तथा उदयनाचार्य के सिद्धांतों पर प्रकाश डाला ।
मिथिला के अराजक राजनीतिक स्थिति को सिमराँवगढ के कर्नाट राजा नान्यदेव ने संभाला था । नान्यदेव ने सन १०५७ ई. में पाल राजा रामपाल से मिथिला छीनकर ब्राह्मण राज की स्थापना की थी । इस वंश में क्रम से नान्यदेव, नरसिंहदेव, राम सिंह, शक्ति सिंह आदि राजा हुए । इसी वंश के राजा हरसिंह देव के राजकाल १२९४ –१३२३ ई. में बंगाल के नवाब गियासुद्दीन इजाज ने अपने अधीन कर लिया ।
उस कालखंड में दिल्ली का सुल्तान फिरोजशाह तुगलक थे । मिथिला का राज सुल्तान के अधीन, कामेश्वर ठाकुर के हाथ में आया । कामेश्वर ठाकुर के सुपुत्र भोगेश्वर ठाकुर थे । सन १३७१ ई. भोगेश्वर ठाकुर के पुत्र गुणेश्वर ठाकुर की हत्या मलिक अस्लान ने कर दी थी । इनके सभापंडित गणपति ठाकुर थे । गणपति ठाकुर के पुत्र महाकवि विद्यापति ठाकुर को गांव बिस्फी की जमींदारी प्राप्त हुई । इसके बाद मिथिला की गद्दी पर वीर सिंह बैठे, उनके बाद उनके भाई कीर्ति सिंह गद्दी पर बैठे । ये जौनपुर के सुल्तान इब्राहिम शाह शिर्की के समकालीन थे । महाकवि विद्यापति राजा कीर्ति सिंह, राजा देवी सिंह तथा राजा शिव सिंह के दरबार में रहे । राजा शिव सिंह के विषय में कहावत है कि –
“पोखरी रजोखरी और सब पोखरा
राजा शिवै सिंह और सब धोकरा”
इसके बाद क्रम से पदम सिंह, हरि सिंह, नरसिंह, धीर सिंह, भैरव सिंह, रामभद्र एवं लक्ष्मी नाथ राजा हुए । बंगाल के नवाब नसरत शाह ने १५३२ ई. में राजा लक्ष्मी नाथ की हत्या कर इस राजवंश का खात्मा कर दिया । मिथिलांचल १३९७ से लेकर १४९७ ई. जौनपुर के शिर्की वंश के अधीन रहा । इसके बाद सन १५७७ ई. तक यह दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी के अधीन हो गया ।
दरभंगा राज की स्थापना अकबर के समकालीन महेश ठाकुर ने १५६७ ई. में की । इस वंश में क्रमशः निम्न राजा हुए – गोपाल ठाकुर, हेमानंद ठाकुर, अच्यूत ठाकुर, परमानंद ठाकुर, शुभंकर ठाकुर, पुरूषोत्तम ठाकुर, नारायण ठाकुर, सुन्दर ठाकुर, महिनाथ ठाकुर, नरपति ठाकुर तथा राजा राघव सिंह । राजा राघव सिंह सन १७०३ ई. में गद्दी पर बैठे । इसके उपरांत विष्णु सिंह, नरेन्द्र सिंह, प्रताप सिंह, माधव सिंह गद्दी पर बैठे । महाराजा छत्र सिंह सन १८०८ ई. में गद्दी पर बैठे । इसके बाद महाराजा रूद्र सिंह, महाराजा महेश्वर सिंह, महाराजा लक्ष्मीधर सिंह, महाराजा रामेश्वर सिंह गद्दी पर बैठे । अन्तिम राजा महाराजा कामेश्वर सिंह १९३५ ई. से १९५४ ई. तक गद्दी पर विराजमान रहे । सन १९५४ ई. में जमींदारी उन्मूलन के बाद राजत्व समाप्त हो गया ।
मिथिला के इतिहास में, दो रानियां बेहद प्रसिद्ध हैं । एक राजा शिव सिंह की विदुषी पत्नी लखिमा देवी, जो बेहद विदुषी, बुद्धिमती, विनोदप्रिय एवं संस्कृत की कवियत्री थीं । वह एक प्रगतिशील और सुधारवादी महिला थी, वह इतनी चतुर थीं कि जब सल्तनत काल में उनके पति शिव सिंह को कैद कर लिया गया तब उन्होंने महाकवि विद्यापति की सहायता से न सिर्फ अपने पति को कैद से मुक्त कराया बल्कि करद राज्य के रूप में स्वीकृति भी प्राप्त कर लिया । । श्रोत्रिय ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों से धन लेकर दर्जनों विवाह करते थे, उनकी पत्नियां अपने पीहर में विधवा के समान जीवन व्यतीत करती थीं । उनका पति वर्ष भर घूम–घूमकर अपने प्रत्येक ससुराल से विदाई वसूल करते रहता था । इस बिकउवा प्रथा पर संस्कृत में लखिमा देवी की चुटीली कविताएं हैं । शरतचंद्र चटोपाध्याय ने भी अपने उपन्यासों में इस क्रुर प्रथा का पर्दाफाश किया है । दूसरी प्रसिद्ध रानी, लखिमा देवी के देवर पदमसिंह देव की विधवा पत्नी रानी विश्वास देवी थी । वह मिथिला की गद्दी पर बैठी और उन्होंने १२ वर्षो तक राज किया था । यह तथ्य राजा नरसिंह देव के १४५३ ई. कन्दाहा अभिलेख से ज्ञात होता है । बेगुसराय के समीप, गंगा के उस पार साम्हो में चकवार राजा राज करते थे, वे चिरायु मिश्र के वंशज थे । चिरायु मिश्र चकवार बाभन एवं मैथिल ब्राह्मण दोनो के पूर्वज थे । डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक जातिप्रथा में बिहार के बाभनो को मैथिल ब्राह्मण का अंग माना है । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक महामानव बुद्ध में बौद्ध धर्म छोड़कर वापिस आने वाले ब्राह्मणों को बाभन कहा है । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक बाणभट्ट की आत्मकथा के प्रथम संस्करण में इन्हे भूमिअग्रहारभोजी ब्राह्मण सामन्त कहा है । वैदिक शब्दकोश में इन्हे ब्रह्मबंधु कहा गया है । महाभारत में इन्हे ब्रह्मक्षत्र कहा गया है । ब्राह्मणों की यह उपजाति अत्यन्त ही साहसी एवं महत्वाकांक्षी थी । पठान एवं मुगल बादशाह इनके लगान न देने की प्रवृत्ति से परेशान रहते थे । साम्हो के भारद्वाज गोत्री बख्तावर सिंह से नवाब अलीवर्दी खान और वायसराय हेस्टिंग दोनो बहुत परेशान रहते थे । जिस प्रकार पश्चिम में जाट जाति के बहादुर योद्धा दिल्ली लूटकर वापिस लौटने वाले गजनी, गोरी, बाबर, नादिरशाह, अब्दाली को भी छापामार पद्धति से लूट कर जंगल में आश्रय ले लिया करते थे उसी प्रकार बख्तावर सिंह गंगा के मार्ग से जाने वाले यूरोपियन व्यापारियों के जहाज लूट लिया करते थे । इस जाति के इसी स्वभाव ने इन्हें अंग्रेजों का परम शत्रु बना दिया ।
इस क्षेत्र में सामा चकवा की नाटिका बहुत लोकप्रिय है, यह लोकाचार की प्राचीन परंपरा है । जेठ महीने में इस क्षेत्र जट–जटिन का स्वांग नृत्य बेहद धूमधाम से आयोजित होता है ।
मिथिलांचल में कर्णपुर का मोतिरा, परशर्मा का संता नृत्य, वनगांव का फतूरी, दरभंगा का कीर्तनियां गायन–वादन से संबन्धित नृत्य शैली है । यहां जट–जटिन, सामा–चकवा, सलहेस पूजा, झरनी, विद्यापत, छकरबाज, करिया– झूमर, झिझिया, लोरिक नाच, नगनी, मराना बडती, दसउत, घसकटी तथा कीर्तनियां नृत्य प्रमुख है । लोकगाथाओं में दीना–भदरी, नयका बंजारा, विजयमल, राजा ढोलन, नूनाचार, छतरी गुलगुलिया, घुघलिघटमा, मंसाराम छेछनमल, निरायन, लाल महाराज, नटुआ दयाल, राजा हरिचंन, अमर सिंह बरिया, सोरठी बृजभार, हिरणा विरणी, राजा विक्रमादित्य तथा लुकेसरी देवी लोकप्रिय है । इसके अतिरिक्त आल्हा, गोपीचंद, आजसुक नेवारक, कारूखिरहैर, मैनावती, बिहुला आदि अनेक गाथाएं हैं जो संगीतमय नृत्य से जुडी हुई हैं ।
इस संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए मधुबनी और सप्तरी का भ्रमण करते हैं । सहलेस का जन्म मधुबनी–नेपाल सीमा पर महिसौधा गांव में हुआ था । इनका विवाह विराटनगर के राजा हलेसर की पुत्री सत्यवती से हुआ था । सहलेस मिथिला को तिब्बत और भूटान के आक्रमण से बार–बार बचाते रहे । इनका वास्तविक नाम शैलेश था, जो बिगडकर सहलेस हो गया । इनकी प्रेमिका कुसुमा मालिन सिद्ध योगिन थीं । सहलेस ने मुसहर वीर दीना एवं भद्री को युद्ध में मार दिया था । दीना और भद्री ने अत्याचारी राजा हंसराज और वंशराज का वध किया था तथा राजा कनक सिंह को घायल कर अपनी माता निरसो के अपमान का बदला लिया था । अषाढ के महीने में मिथिला में दीना और भद्री की पूजा की जाती है । राजा कनक सिंह जो गया बाजार का जमींदार था । दीनानाथ और भद्री का परिवार अपनी कुलदेवी बाघेश्वरी का पूजक था ।
आगे भारत के सहरसा जिले में महिषी गांव मंडन मिश्र और भारती के महिमा मंडन करती हुई दिखती है । ८ वीं शताब्दी में दोनो पति–पत्नी का आदि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ हुआ था । ध्यातव्य हो ! सनातन धर्म के १२ दिव्य संवादों मे से तीन संवाद मिथिला मे घटित है । पहला राज्य जनक और अष्टावक्र संवाद, दूसरा गार्गी याज्ञवल्क्य संवाद और तीसरा आदि जगतगुरु शंकराचार्य और महापंडित मंडन मिश्र संवाद । ध्यान रहे ! यह वही ऐतिहासिक ( शंकराचार्य मंडन मिश्र) बीच का संवाद है जिसमे ( भारती ) महिला को निर्णायक माना गया था । यह घटना मिथिला के शिक्षा तथा सांस्कृतिक उत्कृष्टता का जयघोष करता है । १५०० ई. के आसपास मधुबनी के राजा नरेन्द्र सिंह देव की पत्नी रानी पद्मावती ने यहां बौद्ध देवी तारा का एक मन्दिर बनवाया था । बंगाल के नवाब के शासन के दौरान यहां के ब्राह्मणों ने खान की पदवी तो ग्रहण कर ली किन्तु धर्म परिवर्तन से स्वयं को बचा लिया । रामचंद्र खान (आईजी), उपन्यासकार उषाकिरण खान, शिवशंकर खान एवं महेश्वर खान इंजीनियर इसी गांव के थे ।
मिथिलांचल में संस्कृत के अलावा वज्रयान, तंत्रयान एवं कौल मत का प्रभाव सर्वत्र परिलक्षित है । सोनबरसा बाजार के समीप विराटपुर गांव में स्थित चंडी मन्दिर के प्रस्तर स्तंभ पर ज्ञज्ञ वीं शताब्दी के राजा कुमुद चंद्र का अभिलेख उत्कीर्ण है । यहां पास में ही पुरातात्विक स्थल अमृतागढ, पतरघट, गोलमा आदि स्थल हैं । मान्यता है कि भीम ने कीचक का वध इसी क्षेत्र में किया था । मत्स्यगंधा जलाशय के पास रक्तकाली मन्दिर मे चौसठ योगनियों की मूर्तियां हैं, योगिनी तंत्रयान की देवी है । ओकाही में एक दुर्गा मन्दिर है, दौरमा गांव में राजा विग्रह पाल तृतीय का अभिलेख प्राप्त हुआ है । कौल मत की देवी कौलेश्वरी का गीत यहां होली में गाया जाता है –
एतिहासिक व धार्मिक धरोहरों को सहेज गौरवशाली मिथिला क्षेत्र में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं । मिथिला क्षेत्र को पर्यटन के लिए विकसित किया जा सकता है । हरियाली, लहलहाते खेत, ग्रामीण परिवेश, आम के बागान, तालाब, मंदिरों एवं एतिहासिक दर्शनीय स्थलों की संख्या यहाँ बहुतायत में है । स्थानीय सरकार यदि मूलभूत सुविधाएं, सड़क, शौचालय, विश्रामालय आदि की व्यवस्था के साथ इन धरोहरों के संवर्धन पर ध्यान दे तो यहां का पर्यटन उद्योग फल फूल सकता है ।
