प्रचण्ड का भारत भ्रमण, महाकाल दर्शन, नागरिकता विधेयक पर विरोध और सर्वोच्च का आदेश कोई संयोग नहीं, साजिश है : कैलाश महतो
कैलाश महतो, परासी । प्रधानमन्त्री पुष्प कमल दहाल “प्रचण्ड” ने भारत भ्रमण से पूर्व दो महत्वपूर्ण सवालों को समाधान किया था : गणतन्त्र दिवस के उपलक्ष्य में बिना कसूर वर्षों से जेल में रहे रेशमलाल चौधरी का रिहाई और दम तोडते नागरिकता विधेयक को पारित करवाना । दोनों निर्णयों को देश के तमाम जनसमुदाय द्वारा प्रशंसा सहित का स्वागत होना स्वाभाविक रहा । मगर “नानीदेखि लागेको बानी” से ग्रसित कुछ राष्ट्रवादी पार्टी, नेता, समाज और व्यक्ति ने अपने अपने स्ड्याण्ड को जीवित रखने के उद्देश्य से उसका विरोध करना भी स्वाभाविक ही रहा ।
चुनाव से पहलेतक मत के पारखी नेताओं ने नागरिकता और रेशम चौधरी के पक्षों में बडे जोड तोड के साथ नारा लगाये थे । मत लेने के तुरन्त बाद गिरगिट की तरह उनके रंग और भंग दोनों में तात्विक बदलाव दिख गये । वैसे ही मधेश के नाम पर वर्षों से राजनीतिक रोटी खा रहे एक नेता ने एक बार चुनाव क्या हारे कि अपने इर्दगिर्द के चारों तरफ से कहलवाने यह लग गये कि राष्ट्रीय चिन्तन के सम्राट को संसद से बाहर होना देश और राजनीतिक समाज के लिए एक अनकही अभिशाप है । उनके अनुपस्थिति में सदन खाली खाली और सुना सुना सा है । सदन की गरिमा बढानेतक के लिए भी सदन में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होनी चाहिए और अनेक जुगार लगाकर उनको पून: सदन में प्रवेश करवाया गया, जिसका परिणाम अपाहिजता से ज्यादा कुछ नहीं दिख रहा है ।
वस्तुतः उस महान और विशाल नेतृत्व के अन्दर जातीय अहंकार और उनके कुछ रणनीतिकारों के चातुर्यता के बाहेक उनके अपने अन्दर की नेतायी गुण, योग्यता और क्षमता शुन्य है । उन्हें उनके कुछ जातीय चाटुकार और अन्धभक्तों के साथ विपक्षी उनके हुर्दङ्ग स्टण्ट्स ने उनपर मजबूरीवश जीत का पगडी चढा दिया । उनकी अपनी कोई तिलस्मी कारनामा नहीं है । उनसे सदन, सरकार और विपक्ष में रहते हुए भी न तो कुछ हुए हैं, न होना है । वह मिट्टी का बस्-एक बूत से हैं ।
प्रधानमन्त्री प्रचण्ड द्वारा राष्ट्रपति समक्ष पेश किये गये नागरिकता विधेयक पारित और रेशम चौधरी की रिहाई होना एक सवाल तो है ही । मगर उसके साथ ही सवाल कुछ और भी है कि बडे शान से संसद में पहुँचे दो राजनीतिक पार्टियों का भी मान और मूल्य कायम न होना । उसके हल्ला में थोडा मसाला बन जाना एमाले का भी बाध्यता है । क्योंकि निकट भविष्य में ही अपने नेतृत्व के सरकार के लिए उनका समर्थन लेना उसकी खास रणनीतिक मजबूरी है ।
प्रचण्ड का भारत भ्रमण राष्ट्रीय होने से ज्यादा प्रचण्डीय ज्यादा दिखाई दिया है । मोदी जी के बगल में खडे प्रचण्ड जी को राष्ट्रीय जो गरिमायी उपस्थिति जाहेर करना चाहिए था, वह किसी भी तरह से सक्षम प्रधानमन्त्री का नहीं हो है । भारतीय प्रधानमन्त्री मोदी के भाषण से प्रचण्ड के चेहरे पर पसरे अतिरञ्जित भाव भंगिमा और मोदी जी के भाषण पर प्रचण्ड द्वारा बजाये गये तालियों से यह प्रमाणित होता है कि वे देश के राष्ट्रीय समस्या समाधान से ज्यादा मोदी के साथ में खडा होना उनके लिए एक तरफ स्व-गर्व की बात थी, तो दूसरी तरफ वे अपने विरोधोयों को संभवतः यह सन्देश देना चाह रहे थे कि जिस मोदी के साथ कल्ह तुम खडे होते थे, आज वह अवसर मैंने प्राप्त कर ली है । प्रचण्ड के चेहरे पर चम्चायी झलक स्पष्ट दिख रहा था ।
राष्ट्रीय मर्यादा और समस्या को लेकर भारत पहुँचे प्रधानमन्त्री प्रचण्ड के उज्जैन के महाकाल दर्शन ने उनके राजनीतिक दर्शन, सिद्धान्त और योजनाओं पर शंका का पहाड खडा कर दिया है । सिद्धान्तत: कोई भी कम्युनिस्ट दर्शन और नेता देश/जन सेवा से बडा किसी मन्दिर या ईश्वर पूजा पर भरोसा नहीं करता । इसिलिए भले ही मार्क्स के जरिये ही क्यों न हो, साम्यवादी चिन्तक ईश्वर को तो मानते नहीं, धर्म को भी “अफीम” मानते हैं । थप आश्चर्य की बात यह कि मोदी ने सारे साम्यवादी सिद्धान्तों और पद्धतियों को अपना धार्मिक जामा पहनाकर प्रचण्ड वदन पर भगवा वस्त्रतक धारण करवा दिये । यह राजनीतिक विचलन ही नहीं, प्रचण्ड का अपने साम्यवादी चिन्तन से हो रहे खिस्कन और राजनीतिक पद लालच का पराकाष्ठा भी है ।
अपनी सरकार और राजनीतिक आयु के दीर्घकालीन रक्षक उन्होंने भी उस भारत को मान ही लिया है, जिसे कभी वे विस्तारवादी का संज्ञा देते नहीं थकते थे । प्रचण्ड के भारत भ्रमण ने अमेरिकी विदेश मन्त्रालय के नेपाल पर हिन्दु राज्य और हिन्दुत्व की धार्मिक कट्टरता के आंकलन को प्रमाणित कर ही दिया है । भारत भ्रमण, महाकाल की दर्शन, भगवा वस्त्र और अमेरिकी खोज तथा यूरोपीयन चाहत और चीन-भारत के बीच का नेपाल कहीं वह जोकर न बन जाये, जो मधेश के गाँव देहात में होने बाले नाच के मंचों पर एक जोकर होता है, जिसे जितने बार लोग मारते (ठूनका देते) रहते हैं और वह जोकर हर बार यही कहता है कि “अब तु माइरके देखा त !” वह फिर और फिर मार खाता है और वह फिर और फिर वही बोलता जाता है । समग्र में उस जोकर का एक कौडी का भी इज्जत नहीं होता है ।
इसे संयोग से ज्यादा तौलताल किया षड्यन्त्र ही मानें तो बेहतर होगा शासक यह तय कर लेते हैं कि सरकार नागरिकता विधेयक पारित करेगा, हमारे कुछ लोग सर्वोच्च में मुद्दा डाल देना । हम रेशम चौधरियों को छोडेंगे, दूसरी ओर पीडित कहे जाने बालों से रीट डलवा देना । हुआ भी वही है । आश्चर्यचकित होने की बात नहीं है । डेढ दशक से ज्यादे लमहे से शान्त और अनमिन द्वारा रिजेक्टेड चार्ज्ड फायलों को पुनर्जीवित कर गौर काण्ड को खडा करना गम्भीर दशा और दिशा का आहट है । अब मधेशियों को गम्भीर होने का समय करीब है ।
इधर नेपाल के संसद में २०८० जेठ २१ के दिन रास्वपा, एमाले और राप्रपा द्वारा प्रधानमन्त्री प्रचण्ड के भारत भ्रमण से पूर्व के रेशम चौधरी रिहाई और नागरिकता विधेयक पारित काण्डों को मुद्दे बनाकर संसद अवरोध होना और भारत भ्रमण से फिर्ता हुए प्रधानमन्त्री प्रचण्ड के नागरिकता विधेयक सफल करने के बदले भारत से प्राप्त किये भैसीं उपहार का विरोध एयरपोर्ट पर बेशुमार होना कोई न कोई अनहोनी का संकेत खडा कर सकता है । कहीं ऐसा न हो कि अमेरिका, यूरोप और चीन के सह में प्रचण्ड को भारत भ्रमण और भगवा वस्त्र धारण व ईश्वर दर्शन कोई लेनी का देनी बन जाये ।
