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हिन्दू धर्म और वैदिक संस्कृति ही नेपाल की पहचान है : डॉ. श्वेता दीप्ति

डॉ श्वेता दीप्ति, हिमालिनी अंक मई । जी हाँ ! हिन्दू धर्म और वैदिक संस्कृति ही नेपाल की पहचान है । अब इसे हिन्दू राज्य कहें या ना कहें यह अलग बात है । देश के पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली ने नेकपा एमाले के पाँचवी कमिटी की बैठक में अपने नेताओं को यह कह कर खबरदार किया है कि ‘जो यह कह रहे हैं कि नेपाल हिन्दू राज्य बन सकता है, उनके पीछे ना जाएँ क्योंकि अब नेपाल कभी हिन्दू राज्य नहीं बन सकता है ।’ ओली का यह कहना अस्वाभाविक कहीं से भी नहीं है । क्योंकि इन्हीं नेताओं के प्रश्रय में नेपाल ने अपनी पहचान, अपनी सांस्कृतिक विरासत खो दी । मजे की बात तो यह है कि अपनी संस्कृति और पहचान खोने के बाद भी शायद हमें इसका तनिक भी मलाल नहीं है । क्योंकि इसके खिलाफ ना तो कोई आवाज उठी और ना ही कोई विद्रोह हुआ । किन्तु ओली के वक्तव्य से एक बात तो जाहिर होती ही है कि यह आग कहीं–ना–कहीं दबी हुई जरुर है, जो इन नेताओं को थोड़ा ही सही किन्तु चिंतित अवश्य कर रहा है । ऐसे में स्वाभाविक सी बात है कि ये नेतागण तुष्टिकरण की राजनीति तो अवश्य करेंगे क्योंकि उन्हें देश से अधिक वोटबैंक की चिन्ता जो होती है ।



इसी वक्तव्य के साथ ही ओली ने भारत का हवाला देते हुए कहा कि, ‘हिन्दुस्थान के नाम में ही हिन्दू है फिर भी भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं है बल्कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है ।’ उनका यह कथन भी बिल्कुल सही है । पर यहाँ एक बात शायद वो भूल गए कि, नेपाल कभी गुलाम नहीं रहा, नेपाल में कभी विदेशियों का आक्रमण नहीं हुआ, ना ही यहाँ किसी अन्य समुदाय ने राज किया है, इसलिए इसकी हिन्दू राष्ट्र की पहचान अक्षुण्ण थी । जबकि इसके विपरीत भारत पर आततायियों ने सदियों से लगातार आक्रमण किए, उस पर राज किया, वहाँ के मंदिरों को लूटा, तोड़ा और अपने धर्म को थोपा, जिसकी वजह से भारत की मूल आत्मा ही मर गई । लम्बे समय तक अँग्रेजों की गुलामी ने स्वतंत्रता के बाद भी गुलाम मानसिकता से उन्हें आजाद नहीं होने दिया और यही उसके धर्मनिरपेक्ष होने की नींव बनी और यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि धर्म की वजह से ही भारत का विभाजन भी हुआ । आजादी के बाद अल्पसंख्यकों के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति ने देश की दशा ही बदल दी, जिसका खामियाजा भारत आज भी भुगत रहा है ।

हम सभी जानते हैं कि देश कोई भी हो उसकी एक सांस्कृतिक पहचान होती है और वह उसी से पहचाना जाता है । केवल भूगोल और भौतिक वस्तुएँ ही देश का परिचायक नहीं होती हैं, बल्कि वहाँ की संस्कृति, परम्परा, धर्म और रीतिरिवाज उसकी पहचान होती है । किसी भी देश का निर्माण सांस्कृतिक नींव के आधार पर होता है । धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत राष्ट्रवाद, देशभक्ति का आधार बनता है । विश्व में ऐसा कोई देश नहीं है, जिसका सांस्कृतिक आधार न हो । यदि कोई देश अपना सांस्कृतिक आधार खो देता है तो उस देश की पहचान और राष्ट्रीयता भी स्वतः समाप्त हो जाती है । एक मजबूत सांस्कृतिक आधार ही समृद्धि का सूचक बनता है । नेपाल, हमेशा से वैदिक सनातन हिंदू धर्म का केंद्र रहा है, महान संतों, तपस्वियों, देवी–देवताओं और संतों का जन्म स्थान और निवास नेपाल रहा है । हिन्दू धर्म का समागम स्थल नेपाल ही है जो कभी धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा ।
यह सर्वविदित है कि ६२÷६३ के आंदोलन में किसी ने धर्मनिरपेक्षता की मांग नहीं की थी । जब अचानक रातो रात नेपाल को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया तो अधिकांश नेता इस बात से अनभिज्ञ थे कि धर्मनिरपेक्ष शब्द को अंतरिम संविधान में कैसे शामिल कर लिया गया, जिसे आंदोलन के दौरान नेतृत्व करने वाले किसी भी नेता ने नहीं उठाया था । लेकिन पर्दे के पीछे की सच्चाई यह थी कि यह दाता देशों के प्रभाव का असर था जिसकी वजह से धर्मनिरपेक्ष की घोषणा हुई और बाद में तो दाता देशों की नियमित प्रशिक्षण, बैठकें और सलाह से सभी नेता धर्मनिरपेक्षता की वकालत करने लगे ।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य राजनीति या किसी गैर–धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे । धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आजÞादी से मानने की छूट देता है । धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है, जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है । धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूल धारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो । कुल मिलाकर ये कहें कि यह एक बहुत अच्छी अवधारणा है । परन्तु नेपाल के सन्दर्भ में एक सवाल तो जेहन में उठता है कि धर्मनिरपेक्ष घोषित होने से पहले यहाँ कभी किसी भी समुदाय के बीच मतभेद नहीं हुआ न ही दंगे हुए । सबकुछ बहुत अच्छा था, सभी मिल कर रहते थे । फिर इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी ? हम सभी देख रहे हैं कि, पिछले कुछ सालों में परिदृश्य बदल रहा है । कल तक जो भारत में होता था वह यहाँ भी होने लगा है । आखिर क्यों ? क्यों वर्ग विशेष हावी होने लगा है ? कोई तो वजह होगी ? क्या इस पर सचेत होने या मंथन करने की आवश्यकता नहीं है ?

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जहाँ तक हिन्दू धर्म की बात है तो यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है मुझे कि हिन्दू धर्म कभी साम्प्रदायिक नहीं रहा है । यह वह धर्म है जो सभी का समान भाव से सम्मान करता है । वैदिक सनातन धर्म के सिद्धांत मनुष्य को महान बनने की प्रेरणा देते हैं । फिर नेपाल के कर्णधारों को इसे धर्मनिरपेक्ष घोषित करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी ?
हमारे ग्रंथों में कहा गया है,

मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथि देवो भवः
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी,
अहिंसा परमो धर्मः,धर्म हिंसा तथैव च
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः

वैदिक शास्त्र ऐसे सिद्धांतों की शिक्षा देकर लोगों को अच्छा, बुद्धिमान और परोपकारी बनने के लिए प्रेरित करते हैं । धर्म ही सिखाता है कि चोरी नहीं करनी चाहिए, पशु–हिंसा नहीं करनी चाहिए, माता–पिता का आदर करना चाहिए और देश व राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए । विवेकपूर्ण, देशभक्त और स्वाभिमानी बनना सिखाता है । नेपाल का इतिहास गवाह है कि देश पर मिटने वाले धर्म से प्रेरित होकर ही देश के लिए अपनी जान दे दी । यहाँ तक कि राजा पृथ्वी नारायण को राज्य एककीकरण की प्रेरणा भी धर्म से ही मिली थी । उनका मुख्य उद्देश्य धर्मराज की स्थापना था । राजा युद्ध से पहले शक्तिपीठों में पूजा और मन्नतें किया करते थे । युद्ध जीतने के बाद मंदिरों, शिवालयों और शक्तिपीठों का निर्माण करवाया करते थे । धर्म में न्याय है । अधर्म में अन्याय है । आज यह परिभाषा ही बदल गई है ।

हिंदू वैदिक शास्त्रों में नेपाल देश की सीमाओं को स्पष्ट रूप से समझाया गया है । कहा जाता है कि सत्ययुग में नेपाल को सत्यवती, त्रेतायुग में तपोवन, द्वापरयुग में मुक्तिसोपानर और कलियुग में नेपाल के नाम से जाना जाता है । हिमवतखण्ड आदि में स्पष्ट उल्लेख है कि इसकी सीमाएँ पूर्व में असम से पश्चिम में कश्मीर तक तथा उत्तर में कैलाश मानसरोवर से लेकर दक्षिण में गंगा तक फैली हुई हैं । वैदिक ग्रंथों में गंडकी, कोशी, करनाली, त्रिशूली, बागमती आदि नदियों का उल्लेख मिलता है । हमारे शास्त्रों में यहां के हर पर्वत के बारे में विस्तार से बताया गया है । इसलिए हिंदू वैदिक ग्रंथ नेपाल का वास्तविक इतिहास हैं । हिन्दू धर्म और वैदिक संस्कृति ही नेपाल की पहचान है ।

नेपाल का जन्म एक धर्म राज्य की स्थापना से प्रेरित है । इस देश की नींव धर्म है । इस देश को धर्म ने बनाया है । हमारे पूर्वजों ने ऋषि मुनि के पदचिन्हों का अनुसरण किया । यह भूमि वेद भूमि, ऋषि भूमि और तप भूमि है । वेद हिमवतखण्ड नेपाल की देन है । पुराणों और शास्त्रों की रचना इस देश में नदियों और गुफाओं के किनारे बैठे ऋषियों ने की थी । नेपाल में योग, तंत्र, ज्योतिष और आयुर्वेद जैसे शास्त्रों की रचना हुई । इसीलिए नेपाल विश्व के लिए ज्ञान का स्रोत है, वैदिक सभ्यता का केंद्र है ।

माना जाता है कि हिन्दू धर्म “हिमालय के दूत” यानी “हिमदूत” (हिमालय में बैठकर तपस्या करने वाले संत) द्वारा फैलाया गया दर्शन है, इसलिए इसे हिंदू दर्शन कहा जाता है । हिम दर्शन हिन्दू दर्शन है । हालांकि, यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि हिंदू शब्द सिंधु से आया है । सिन्धु नदी का मुहाना तिब्बत का ही कैलाश क्षेत्र है । जिस प्रकार सिंधु का स्रोत कैलाश है, जिसका अर्थ हिमालय है, उसी प्रकार हिंदू दर्शन का स्रोत हिमालय क्षेत्र है । शब्दों में नहीं बल्कि दर्शन के जन्म की दृष्टि से नेपाल हिंदू धर्म का केंद्र है । उद्गम भूमि है ।

हिन्दू धर्म इसलिए भी अन्य मजहब से अलग है क्योंकि यह विश्व कल्याण की बातें करता है । भाईचारे की बातें करता है, अन्य किसी भी धर्म को मानने वालों के लिए यहाँ क्रोध नहीं है, बल्कि सम्मान है । जबकि इस्लाम को मानने वाला, इस्लाम के अलावा दूसरे को काफिर मानता है और उसे स्पष्ट तौर पर खत्म करने का आदेश देता है । उसी तरह ईसाई धर्म वाला दूसरे धर्म को मानने वालों को शैतान का दर्जा देता है । जब तक आप ईसाई नहीं बन जाते, आप उनके मित्र नहीं बन सकते, वे किसी और को अपना नहीं देख सकते । इस्लाम, इस्लाम के सिवा और कुछ भी अपना नहीं देखता । हिन्दू धर्म कोई पंथ नहीं है जो किसी पर जबरन थोपा जाए या अनुशरण करवाया जाए । एक हिन्दू होने के लिए उसका हिन्दू परिवार में जन्म लेना काफी है । वह किसी भी रूप में आराधना करे उस पर भी वह हिन्दू ही माना जाएगा । लेकिन दुर्भाग्य से आज की परिभाषा धर्म को हिंदू, ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध के रूप में परिभाषित करने लगी है । और यही वजह है कि आज की अवस्था चिन्ताजनक हो गई है । पिछले कुछ वर्षों से नेपाल में धर्मान्तरण की प्रक्रिया तेज होती जा रही है । गली–गली में ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दू धर्म के अनुयायियों को प्रलोभन और भय के माध्यम से उनकी मूल धार्मिक संस्कृति से बहकाकर उनके विचारों को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर रहे हैं । नेपाल के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्ष की परिभाषा हिन्दू धर्म को हतोत्साहित करने वाली और अन्य पंथों के प्रसार को प्रोत्साहित करने वाली समझी जानी चाहिए । यह सुनना कड़वा अवश्य लगता है किन्तु सच्चाई यही है ।

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आज पाश्चात्य देश हिन्दू वैदिक धर्म की महिमा का अध्ययन कर रहे हैं और समझ रहे हैं । वृन्दावन की गलियों में हरे राम हरे कृष्ण, का भजन कर रहे हैं, सात्विक जीवन जी रहे हैं । कल तक जो दूसरों को शैतान माना करते थे, उन्होंने अहिंसा, सत्य और दया का उपदेश देते हुए योग का अभ्यास करना शुरू कर दिया है । ईसाई मिशनरियों की तरह गोरों के घर जाकर उनसे गीता पढ़ने को नहीं कहा जा रहा, ना ही आचार–विचार पढ़ने को कहा जा रहा है, फिर भी वे स्वयं पता करके हिन्दू प्रथाओं को अपना रहे हैं, गीता का पाठ कर रहे हैं । वे धर्म का मतलब समझ रहे हैं, लेकिन हम भूल रहे हैं ।

नेपाल को केवल इस आधार पर हिंदू राज्य नहीं होना चाहिए कि नेपाल में हिंदू आबादी अधिक है बल्कि, इसलिए होना चाहिए कि हिंदू धर्म नेपाल की राष्ट्रीय पहचान है । नेपाल लाखों हिंदुओं की आस्था का केंद्र है । यह दुनिया भर के हिंदुओं द्वारा पूजा की जाने वाली एक पवित्र जगह है । जैसे जेरूसलम (इजÞराइल) इब्राहीमी धर्म को मानने वालों के लिए पवित्र भूमि है, वैसे ही नेपाल ओंकार परिवार के सभी हिंदुओं के लिए आस्था का केंद्र है । इसकी सांस्कृतिक पहचान और वैदिक पहचान को बनाए रखना हमारा कर्तव्य है ।

देखा जाए तो नेपाल में ईसाइयों का इतिहास सौ साल पुराना भी नहीं है । व्यापार के उद्देश्य से मल्ल काल के दौरान और नेपाल के एकीकरण के दौरान लाए गए कुछ मुस्लिम परिवारों का इतिहास ईसाइयों से थोड़ा पुराना अवश्य है । लेकिन इस राष्ट्र के निर्माण से पहले हिंदू मौजूद थे, इस राज्य का निर्माण हिंदुओं ने किया था । इस देश की सभ्यता और संस्कृति हिन्दुओं की देन है । शुरू से ही, इब्राहीमी संप्रदायों (मुसलमानों और ईसाइयों) ने दुनिया को अपना बनाने की कोशिश की । मुसलमानों द्वारा दुनिया को मुस्लिम राज्य बनाने और ईसाइयों को दुनिया को ईसाई राज्य (यहोवा का राज्य) बनाने के अभियान दुनिया में लगातार जारी है । ऐसे में कि हिन्दू राष्ट्र को उसकी पहचान से हटा देना कहाँ तक न्यायोचित था ? जिस समय संविधान को लागू किया गया था, तत्कालीन प्रधान मंत्री सुशील कोइराला ने कहा था कि उन्हें नहीं पता था कि नेपाल धर्मनिरपेक्ष राज्य बन रहा है । इससे साफ है कि किस तरह नेपाल को धोखे से धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है । अधिकांश नेताओं और बुद्धिजीवियों ने स्वीकार किया है कि नेपाल को विदेशियों के लिए एक खेल का मैदान बनाने की योजना के साथ धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाया गया है ।
जिस तरह से नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किए जाने के साथ ही देश के हर वार्ड में चर्च बनाए जा रहे हैं, मदरसे बनाए जा रहे हैं यह विचारणीय विषय तो है ही चिन्ता का भी विषय है । इन मदरसों और चर्चों के लिए फन्ड कहाँ से आ रहे हैं ? यह जाँच का विषय है । दो वर्ष पहले मधेश प्रदेश में मुस्लिमों की धर्मसभा हुई थी । जहाँ लाखों लोग आए थे । जिनके न तो आने का कोई रिकार्ड सरकार के पास है न ही लौटने का । उस सभा में मीडिया को भी वहाँ जाने पर पाबंदी थी । आज सर्वेक्षण बताता है कि नेपाल दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जहाँ सबसे ज्यादा संख्या में धर्मान्तरण हो रहा है । यहाँ की गरीबी, अशिक्षा और सरकार की अनदेखी ने इसे और भी फलने फूलने में मदद की है । धर्म की स्वीकारोक्ति स्वेच्छिक है, किन्तु अफसोस कि यह स्वेच्छा से नहीं बल्कि प्रलोभन के तहत हो रहा है । यदि यह इसी गति से चलता रहा तो यह निश्चित है कि निकट भविष्य में नेपाल की बची–खुची पहचान भी समाप्त हो जाएगी । नेपाल में ईसाइयों और मुसलमानों की बढ़ती संख्या न केवल नेपाल बल्कि चीन और भारत के लिए भी खतरा है । चीन और भारत दोनों ही खुद को नेपाल से पहले से ज्यादा असुरक्षित मान रहे हैं ।
सच तो यह है कि धर्मनिरपेक्षता की आड़ में नेपाल की धार्मिक संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है । खासकर यहां के बौद्ध, किराती और प्रकृति पूजकों को भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है । बौद्ध और किराती जो हिंदू राज्य होने पर अपने धर्म और संस्कृति का गरिमापूर्ण तरीके से आनंद ले रहे थे, अब ईसाई बन रहे हैं । यदि हम अपने मूल धर्म और संस्कृति को बचाना चाहते हैं, तो नेपाल को संवैधानिक रूप से एक हिंदू राज्य घोषित करने की तरफ अवश्य सकारात्मक सोच बनानी चाहिए । प्रलोभन, भय पर आधारित धर्मांतरण बंद होना चाहिए । नहीं तो नेपाल की राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय अखंडता पर बड़ा संकट आना तय है ।

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तथ्य बताता है कि विश्व में अधिकांश देश किसी ना किसी धर्म के द्वारा ही पहचाना जा रहा है । यहुदियों की संख्या बहुत कम है किन्तु उनका भी अपना देश है इजराइल । बौद्धों के लिए ६÷७ देश हैं । मुस्लिमों के लिए ५५ से अधिक देश हैं और ईसाइयों के तो ८० से भी अधिक देश हैं । किन्तु विडम्बना देखिए कि विश्व की कुल जनसंख्या का १५ प्रतिशते अवलम्बन करने वाला, तीसरा बड़ा हिन्दू धर्म के लिए विश्व में एक भी देश नहीं है । क्या यह असहनीय नहीं है ? जब नेपाल हिन्दू अधिराज्य था तो विश्व में नेपाल को हिन्दू आस्था के केन्द्र के रूप में देखा जाता था । किन्तु डॉलर की चमक ने नेपाल की प्रतिष्ठा और पहचान को दलदल में धकेल दिया ।

इस बीच कुछ संस्थाएँ हैं जो नेपाल की खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से वापस लाने के लिए प्रयत्नशील है जिसे अमेरिका नहीं पचा पा रहा है क्योंकि अमेरिका ने दावा किया है कि भारत की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से संबंध रखने वाले धार्मिक समूह नेपाल में हिंदू राष्ट्र के पक्ष में बोलने के लिए प्रभावशाली राजनीतिक दल के नेताओं को भुगतान कर रहे हैं । अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी जे. ब्लिंकन द्वारा जारी ‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट’ में नागरिक समाज के नेताओं का हवाला देते हुए दावा किया गया है कि नेपाली नेताओं को हिंदू राष्ट्र के पक्ष में बोलने के लिए भुगतान किया जा रहा है । दावा किया गया है कि यह रिपोर्ट कई शोध के पश्चात् तैयार किए गए हैं । हम अपने आस पास रोज धर्मांन्तरण की प्रक्रिया देखते हैं किन्तु उन्हें सिर्फ यह दिखाई दे रहा है कि नेपाल में इसाईयों के प्रति सख्ती बरती जा रही है । रिपोर्ट में नेपाल में विभिन्न धर्मों का पालन करने वाली जनसंख्या, विभिन्न धर्मों के प्रति सरकार के व्यवहार और कानूनी स्थिति पर चर्चा की गई है । इसी तरह, धार्मिक स्वतंत्रता के लिए सामाजिक सम्मान की स्थिति और अमेरिकी सरकार की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की गई है । जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता का हनन करने वाली घटनाओं का विवरण रखा गया है ।

उल्लेखनीय है कि काठमांडू में अमेरिकी दूतावास ने सरकारी अधिकारियों, धार्मिक समूहों, गैर–सरकारी संगठनों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, मीडिया और अन्य स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर रिपोर्ट का प्रारंभिक मसौदा तैयार किया है । वहीं इसके जवाब में नेपाल में तिब्बती बौद्ध नेताओं ने कहा है कि हालांकि हाल के वर्षों में हमारे लिए धार्मिक गतिविधियों को करना आसान हो गया है, लेकिन ईसाइयों के लिए यह मुश्किल होता जा रहा है । रिपोर्ट में नेपाल में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति पर चर्चा करते समय यह उल्लेख किया गया है कि तिब्बती बौद्ध गैर–राजनीतिक कार्यक्रम करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन ईसाइयों पर जबरन धर्म परिवर्तन के नाम पर कानूनों के अत्यधिक उपयोग का उल्लेख किया गया है । इस विषय पर ईसाई समुदाय के नेताओं ने ईसाई धर्म के खिलाफ नेपाल में फैली भावनाओं को लेकर गंभीर चिंता जताई है ।
इस बीच भारत सरकार ने अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट पर असंतोष जताया है । रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को सरकारी एजेंसियां खुद प्रताडि़त कर रही हैं । भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने धार्मिक स्वतंत्रता पर रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण बताया । बागची ने कहा, “इस तरह की रिपोर्ट भ्रामक सूचना और गलतफहमी पर आधारित है ।”

स्वाभाविक सी बात ही कि जनता का जागरुक होना कहीं ना कहीं इन्हें परेशानी में डाल रहा है । क्योंकि हाल के दिनों में गली–गली बाइबिल लेकर प्रचार करने वालों को स्थानीय जनता की नकारात्मकता और विरोध झेलना पड़ रहा है । सोशल मीडिया में भी ऐसे विषयों को स्थान मिल रहा है । यानि जिस इसाईकरण को आसान बनाने के लिए धर्मनिरपेक्षता के एजेंडे को आगे बढ़ाया गया था और नेपाल से नेपाल होने की पहचान छीन ली गई थी उस पर इन विदेशी ताकतों को लग रहा है कि खतरा मँडरा रहा है जिसका आरोप खुले तौर पर भारत के ऊपर लगाया जा रहा है । वक्त सच को पहचानने का है और सही निर्णय लेने का है । संविधान का निर्माण देश हित और जनता के हितों के लिए किया जाता है जिसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन होना कोई असंभव बात नहीं है हाँ मानसिकता तैयार होने में समय लग सकता है किन्तु असंभव कुछ भी नहीं है ।



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