सुवास नेम्वाङ ! कुछ प्रश्नों का जवाब साथ लेकर चले गए : कंचना झा

कंचना झा, हिमालिनी अंक सेप्टेंबर । यह संसार प्रकृति के नियमों के अधीन है । जिसने शरीर पाया है उसका अंत होगा ही । सुवास नेम्वाङ नहीं रहे । हाल में वो नेकपा एमाले संसदीय दल के उपनेता थे । नेपाली राजनीति में एक आदरणीय व्यक्तित्व जिसकी कभी किसी ने शिकायत नहीं की । जिनकी कभी किसी तरह की आलोचना नहीं हुई । नेपाल में बहुत ऐसे लोग हैं जो एमाले के प्रति अच्छी धारणा नहीं रखते हैं लेकिन सुवास नेम्वाङ एक ऐसी छवि जिनसे सभी प्रेम और स्नेह करते थे । ऐसा नहीं है कि वो आज हमारे बीच नहीं रहे तब ऐसी बातें हो रही है । वो जब हमारे साथ थे तब भी लोग उनका बहुत आदर और सम्मान करते थे ।



राष्ट्रीय राजनीति में सहमति, सहकार्य और एकता के सूत्रधार एवं इमान्दार छवि के स्वामी नेम्वाङ सभी के लिए एक स्तम्भ थे । उनका जन्म इलाम बजार के सुन्तला बारी में फागुन २८ साल २००९ (११ मार्च सन् १९५३) को हुआ था । नेम्वाङ इलाम क्याम्पस में पढ़ते हुए ही अनेरास्ववियु में लगकर विसं २०२९ साल में कम्युनिष्ट राजनीति में शामिल हुए । विसं २०३३ में राजद्रोह के मुद्दे में उन्हें कुछ दिन जेल में भी रहना पड़ा था । विसं २०४८ और २०५२ में राष्ट्रीय सभा के सदस्य हुए और मनमोहन अधिकारी के नेतृत्व में पहली बार कम्युनिष्ट सरकार में कानून, न्याय तथा संसदीय व्यवस्था मन्त्री बने । विसं २०६४ और २०७० में भी इलाम से ही वो चुनाव जीतकर संविधानसभा के अध्यक्ष बने । संविधान सभा से नेपाल का संविधान जारी करने में उन्होंने समन्वयकारी भूमिका की भी निर्वाह की थी । वो चार बार सभामुख बने । वो भी सर्वसम्मत से बने थे । यानी किसी ने उनका विरोध किया ही नहीं । चाहे उनकी पार्टी के लोग हों या फिर विपक्ष के लोग । पार्टीगत किसी का विरोध रहा हो मगर व्यक्तिगत विरोध किसी का नहीं था उनसे । उनके निधन से उनका जन्म स्थल शोक मग्न है । इलाम जहाँ से वो आते थे वहाँ जैसे ही नेम्वाङ के निधन की खबर पहुँची कि जिला तह के विभिन्न राजनीतिक दल, नेता, सामाजिक अभियन्ता, विद्यार्थी सभी दुःख व्यक्त करने लगे । नेम्वाङ के निधन से देश का अपूरणीय क्षति हुई है । देश और जनता के लिए जो उन्होंने योगदान दिया है वह योगदान अतुलनीय है ।
कहते हैं जो हमारे बीच से चला गया उसकी शिकायत या आलोचना नहीं की जानी चाहिए । ये सच भी है लेकिन यह भी एक बहुत बडी सच्चाई है कि एक नेता के रूप में उन्हें जो आज सम्मान मिला क्या वो उसके असल हकदार थे ? क्या देश को जो उन्होंने दिया उससे देश को फायदा हुआ या नुकसान ? क्या एक देश इस प्रश्न का जबाब उनसे नहीं मांगेगा ? जिस मातृभूमि की हम पूजा करते हैं । जिसकी मिट्टी में मिल जाने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं उस मिट्टी को सुवास नेम्वाङ ने क्या दिया ? क्या आने वाले समय में इसका हिसाब देश नहीं लेगा । हाँ उनका किसी से कोई बैर नहीं था लेकिन अगर देश के हित की बात करें तो उन्होंने देश तथा देश की जनता दोनों के ही साथ अन्याय किया है ।
लेकिन हाँ इतना होते हुए भी वो आलोचना से परे नहीं रहे । उनसे आम नेपाली जनता जो हिन्दू धर्म से सरोकार रखती हैं उनकी बहुत शिकायतें थी । कारण स्ष्पट था नेपाल जो विश्व का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था उसका अचानक से धर्मनिरपेक्ष हो जाना बहुतों को रास नहीं आया । उनके निधन पर बहुत लोगों ने उत्तर मांगा है । बहुसंख्यक हिन्दू जन संख्या रहे नेपाल में संविधान जारी करते समय संविधान में धर्मनिरपेक्ष क्यों लिखा गया ? किसके दबाब में ? किसने किसको क्या प्रलोभन दिया ? नेम्वाङ के निधन के साथ ही इस प्रश्न का जबाव भी उनके साथ ही चला गया ।
उनके निधन के बाद बहुत से आम नागरिक ने खुलकर कहा कि नेम्वाङ ने देश से ऊपर अपने आप को रखा । पहले स्वयं को रखा फिर देश के बारे में सोचा । अगर ऐसा नहीं होता तो एक हिन्दू राष्ट्र अचानक से कैसे धर्मनिरपेक्ष देश बन गया ? संविधान को जब जारी करने का आदेश हुआ तो तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राम वरण यादव ने बार बार कहा था कि यह संविधान अपूर्ण है । इसमें बहुत सी बातों का समावेश करना बाकी है । कुछ ऐसी बातें हैं जिनका उल्लेख संविधान में जरुरी नहीं है । कुछ समय और रुके तब संविधान जारी करें लेकिन नेम्वाङ ने तत्कालीन राष्ट्रपति की सुझाव की अवज्ञा की और संविधान जारी करने के लिए दबाब दिया ।
इतना ही नहीं संविधान सभा की बैठक में राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने संविधान से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाने और देश की पुरानी हिंदू पहचान बहाल करने की मांग की थी लेकिन नेम्वाङ ने यह मांग खारिज कर दी । सच में अगर देखा जाए तो उन्होंने नेपाल की जो अपनी एक अलग पहचान थी उसे दांव पर लगा दिया । विश्व का एक मात्र हिन्दू राष्ट्र होने का जो गौरव देश को रहा उसे हमने किस कारण से खो दिया वो अब कोई नहीं जानता । लेकिन जब जब ऐसी बातों का दौर चलेगा उनका नाम जरुर लिया जाएगा ।
इसके साथ ही उनपर यह भी आरोप लगता रहा कि वो अपनी पार्टी से बाहर नहीं निकल पाए । नेम्वाङ संविधान सभा अध्यक्ष थे । एक ऐसा पद जिसपर बैठा व्यक्ति अपनी छवि, अपने इष्ट मित्र की छवि को नहीं वरन राष्ट्र को प्राथमिकता में रखता है लेकिन नेम्वाङ इससे बाहर नहीं निकले । वो संविधान सभा अध्यक्ष थे । इस पद पर बैठा व्यक्ति किसी एक पार्टी का नहीं हो सकता है । वो देश और जनता की भलाई को पहले देखता है लेकिन उनके बारे में लोग खुलकर बोलते थे कि वो केवल पार्टी के लिए काम करते रहे । कभी पार्टी से उपर नहीं उठ सके । केपी शर्मा ओली के बहुत ही विश्वसनीय रहे । उनसे परे कभी हुए ही नहीं । जो हो जाते तो आज जो लोग उनकी आलोचना कर रहे हैं शायद नहीं करते ।
इसके अलावे संसद विघटन को लेकर लोगों ने प्रश्न उठाए । हालांकि संसद विघटन के बाद नेम्वाङ ने अपने एक बहुत ही करीबी मित्र से कहा था कि – मैंने ओली जी को सुझाव दिया था कि संसद विघटन अभी नहीं करें लेकिन ओली ने मेरी बात नहीं मानी । जबकि नेम्वाङ पाटी के भीतर जब कभी किसी का किसी से कोई मनमुटाव हो जाता तो मेल मिलाप करवाने का काम वो ही करते थे । उन्हें लगता था कि ओली कभी उनकी बात को इनकार नहीं करेंगे । लेकिन इसबार ओली ने उनकी बात को नजर अंदाज किया ।
नेपाल के इतिहास की जब जब बात चलेगी, संविधान को लाने की, हिन्दू राष्ट्र का धर्मनिरपेक्ष बन जाने की बात उठेगी, संसद के विघटन की बात होगी तब तब नेपाल की जनता उनकी चर्चा करेगी । आज वो हमारे बीच नहीं हैं । लेकिन आने वाले समय में उनके द्वारा किए गए कामों का जवाब नेपाल के लोग जरुर मांगेंगे । कुछ प्रश्नों के उन्हें उत्तर देने थे जो उन्होंने नहीं दिया । इसके लिए इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा ।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें ।
