हिन्दुओं के अस्तित्व पर हमला ! : अजय कुमार झा
अजय कुमार झा, मानव सभ्यता के विकास के साथ ही धर्म और राजनीति एक–दूसरे के हाथ में हाथ डाले चल रही है । दोनों में संघर्ष भी शाश्वत है । इस ब्रह्माण्ड के विराट आयाम को मैं ‘धर्म’ की संज्ञा देना चाहूंगा । धर्म, अर्थात प्रकृति के मौलिक स्वभाव; विराट ब्रह्माण्ड के मूल स्वरूप । इस अवस्था में राजनीति बहुत पीछे छूट जाती है । मानवीय चेतना के विकास और सभ्यता का जन्म संग–संग ही हुआ करता है । हर सभ्यता तत्कालीन मानवीय चेतना के उच्चतम बिन्दु का परिचायक होता है । इसी प्रकार पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने का हर प्रयास एक नीति और नियम को जन्म देता रहता है । जो फैलते हुए धीरे–धीरे पूरे समाज और देश में व्याप्त हो जाता है । इन नीति नियमों का विस्तार ही संविधान तथा राजनीति का स्वरूप धारण कर लेता है । फिर कालक्रम में इसी से अनेक वाद और सिद्धांत का प्रादुर्भाव होता जाता है । वर्तमान में राजनीति को सभी नीतियों का राजा मान लिया गया है जिसका भीषण दुष्परिणाम के रूप में विश्व युद्ध, अराजकता, प्राकृतिक आपदा और नरसंहारक महामारियों को आज के मानवता को झेलना पड़ रहा है ।
लगभग सभी धर्मों ने अपरिग्रह को अपने एक तत्व के रूप में स्वीकार किया है । परंतु मोह के कारण स्वार्थ और स्वार्थ से स्पर्धा का जन्म होता है जो बाद में जीत के लिए तिकड़म और षडयंत्र को आदर्श मान लिया जाता है । कुटिलता स्वागत के योग्य हो जाती है और धर्म–सूत्रों को तिरस्कार दिया जाता है । यहीं से धर्म, संस्कृति और सभ्यता के ताज कूटनीति के मोहताज हो जाता है । जो पर्सिया के संस्कृति को मिटाकर इस्लामिक देश ईरान बना देता है । तो कश्यप ऋषि के तपोस्थली काश्मीर को आतंक का कलंक लगा देता है । तो कहीं तक्षशिला, विक्रमशिला और नालंदा जैसे संस्कृति के संवर्धक और ज्ञान के भंडारों को आग के हवाले कर दिया जाता है । इस तरह की मानसिक विक्षिप्तता भी किसी न किसी संस्कृति का धरोहर ही होता है । ऐसे में न वहां का धर्म बचता है न संस्कृति और न ही समाज ही ।
संस्कृति और सभ्यता के चिन्तक, विचारक कहते हैं कि सभ्यतायें बचती नहीं हमेशा बचाई जाती हैं, इनका रखरखाव बच्चे के लालन पालन की तरह होता है जो इनसे मुंह मोड़ता उसे इसके दुखद परिणाम भुगतने पड़ते हैं । ऐसा नहीं कि यह सिर्फ अनुमान है वरन इसके उदाहाण भी हमारे समक्ष प्रस्तुत है । रोमन साम्राज्य हो, या मिस्र की सभ्यता या फिर भारतीय उप–महाद्वीप में सिंधु घाटी की सभ्यता, ये इंसान की तरक्कÞी की बड़ी मिसालंस थीं । मगर इन सबका पतन हो गया । मुगल साम्राज्य जो कभी मध्य एशिया से लेकर भारत के अनेक राज्यों पर राज करता था, वो खÞत्म हो गया । वो ब्रिटिश साम्राज्य जहां कभी सूरज अस्त नहीं होता था, वो भी एक वक्त ऐसा आया कि मिट गया । आज अमरीका की अगुवाई वाले पश्चिमी देश जिस तरह की चुनौतियां झेल रहे हैं, उस वजह से अब पश्चिमी सभ्यता के किले के ढहने की चरमराहट सुनाई देने लगी है ।
आज यूरोप एक खुला द्वार है जिसमें इस्लाम सीना तान कर टहल रहे हैं । आज यूरोप की सेक्यूलरिज्म के प्रति गहरी आसक्ति के कारण ही चर्च खाली रहने लगा है । एक शोधकर्ता के अनुसार लन्दन में शुक्रवार को मस्जिदों में मुसलमानों की संख्या रविवार को चर्च में आने वालों से अधिक होती है । जबकि लन्दन में ईसाइयों की संख्या मुसलमानों से ७ गुना अधिक है ।
हम यह चर्चा किसी को भय दिखाने या किसी की हिम्मत बढ़ाने के लिए नहीं कर रहे बल्कि समय के साथ सचेत करने के लिए कर रहे हैं । कारण मध्य एशिया का हिंसक वर्तमान आज किसी से छिपा नहीं है । जो अब धीरे–धीरे यूरोप की तरफ बढ़ रही है । कोई भी सभ्यता चाहे कितनी ही महान क्यों ना रही हो, वो, वक्त आया तो खÞुद को तबाही से नहीं बचा पाई । आगे चलकर क्या होगा, ये पक्के तौर पर तो कहना मुमकिन नहीं मगर ऐतिहासिक अनुभव से हम कुछ अंदाजे तो लगा सकते हैं । भविष्य के सुधार के लिए कई बार इतिहास की घटनाओं से भी सबकÞ लिया जा सकता है । पश्चिमी देश, रोमन साम्राज्य, से सबक ले सकते हैं । यदि आज पश्चिमी देश आर्थिक घमंड में जी रहे हैं, तो उन्हें यह भी सोचना होगा कि संसाधनों पर बढ़ते बोझ के कारण कब तक इसे सम्हाल पाएंगे ? दूसरा कÞुदरती संसाधनों पर उस सभ्यता का दबाव और तीसरा सभ्यता को चलाने का बढता आर्थिक बोझ और चौथा योजनाबद्ध रूप से बढ़ता मुस्लिम शरणार्थी संकट कब तक समायोजन करेंगे? कब तक तुष्टिकरण के राजनीति करेंगे ? मार्क्स और मैकाले के मूढ़तापूर्ण घटिया तर्क जाल में अब यूरोप खुद ही फसता जा रहा है । परंतु उनके लिए पीछे हटना अपनी पूर्वजों के ज्ञान विरासत को लात मारने जैसा होगा । अपनी ही हाथों से पूर्वजों के कब्र खोदने जैसा होगा । गुरुकुल जैसे देवता उत्पादन करने वाले संस्थाओं को नष्ट कर कांवेंट जैसे दानव उत्पादन संस्थाओं के प्रचार प्रसार का परिणाम सिर्फ दुनिया के अन्य वर्गों को ही नहीं खुद को भी भुगतना पड़ सकता है इस विषय पर इन मूढ़ों का ध्यान ही नहीं जा सका ।
पतन के पश्चात् उत्थान एवं ध्वंस के बाद ही सृजन की असीम सम्भावनायें साकार होती हैं । पुराने खण्डहर के ढहने पर ही भव्य भवन का खड़ा होना सम्भव हो पाता है । दुनिया आज संक्रमण काल की इन्हीं कष्टकारी परिस्थितियों से गुजर रही है । संसार की सारी व्यवस्थायें टूटकर चरमराने लगी हैं । अपनी सभ्यता को सर्वप्रभुता सम्पन्न घोषित करने वाला पश्चिमी जगत भी आज पतन के कगार पर खड़ा है । रोम, ग्रीस की ही तरह यूरोप की सभ्यता और अमेरिका का बहु–संस्कृतिवाद भी अपनी टूटन और दरकन के भय से आशंकित है । अमेरिका इसके समाधान के लिए आर्थिक व तकनीकी पुरुषार्थ की बात उठा रहा है, जो नदी के तीव्र उफान के सामने बालू–सा बहता नजर आ रहा है । ऐसी विषम स्थिति में सारे विश्व की नजर पुनः भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की ओर उठ रही है । समस्त पाश्चात्य मनीषी एकमत से स्वीकार कर रहे हैं कि भारत से ही एक नई विश्व–सभ्यता जन्म लेगी ।
इतिहास में पांच बार हिन्दुओ का अस्तित्व समाप्त होते–होते बचा, क्योकि उस समय हिन्दुओ को जोड़ने के लिये सोशल मीडिया नही थी, पहली चुनौती बौद्ध धम्म की थी, बौद्ध धम्म कोई अलग धर्म नही था फिर भी उसने भारतवासियो में अहिंसा का बीज बोकर भारत को लंबे समय तक नष्ट किया था, तब पुष्यमित्र शुंग ने मगध की सत्ता पर कब्जा किया और वैदिक क्रांति का संचार किया था । भारतियों ने फिर से शस्त्र उठाकर लड़ना शुरू किया और सदियों तक भारत की रक्षा की ।
दूसरा दौर था जब १५७६ में हल्दीघाटी में अकबर की जीत हुई, महाराणा प्रताप के बाद अब कोई हिन्दू राजा शेष नही था जो उसे चुनौती देता पर अकबर १५८१ तक काबुल के अभियानों में उलझा रहा और धीरे–धीरे इस्लाम से उसका मोह भंग हो गया, कहने को तो अकबर का काल लगभग ५० वर्ष का था मगर वह इस्लामिक क्रांति के लिये कुछ खास नही था ।
तीसरा काल था औरंगजेब का, औरंगजेब ने भी ५० साल राज किया और शुरू के द्दछ वर्ष उसने सिर्फ रक्तपात किया । हिन्दुओं को मार–मार कर उसने अफगानिस्तान, पंजाब और कश्मीर में हिन्दुओ के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया । गुरु तेग बहादुर जी और महाराज गोकुल सिंह जाट को इस्लाम के नाम पर कत्ल कर दिया । १६८१ में उसे छत्रपति संभाजी महाराज ने चुनौती दी, यहाँ औरंगजेब ने गलती की कि उसने मराठो को खत्म करने की प्रतिज्ञा ली और अंतिम २७ वर्षों तक मराठो से युद्ध किया परिणाम यह हुआ कि मराठे विजयी हुए और औरंगजेब मारा गया । पांडवों की जिस दिल्ली को विदेशी ताकतों ने नोच नोच कर खाया, उसी दिल्ली को १७३७ में पेशवा बाजीराव ने आजाद किया और २० साल बाद उनके पुत्र पेशवा बालाजी राव ने दिल्ली में हिन्दू स्वराज्य की स्थापना की ।
इन तीनों घटनाओं से यह स्पष्ट है कि भारत में कभी हिंदू वाहक अन्य का कब्जा नहीं हो सकता है, इस देश पर कभी उनका प्रभाव ज्यादा हो जाये, शरिया भी आ जाये मगर अपने पूर्वजों पर भरोसा रखिये हम फिर से उठेंगे. सन् १६५७ में जब औरंगजेब बादशाह बना था तब किसने सोचा था कि १०० साल बाद १७५७ में मुगल ही खत्म हो जाएंगे ।
चौथा काल था मैकाले एंड कंपनी काः जिसने सन १८५४ से १८५४ के बीच में भारत वर्ष का सुक्ष्मतम विश्लेषण कर हिंदू, हिंदुत्व और हमारी समृद्धि के आधार गुरुकुल को जड़ से उखाड़ फेंकने का काम किया साथ ही हिंदुओ के द्वारा ही हिंदुओं के विनाश का शैक्षिक बीज बोया । इस कार्य में वह सफल दिखता है । आज मैकाले के समर्थक गली गली में मिल जाएंगे । इस काल में गुरुओं ने किसी हमारी संस्कृति को बीज रूप में अपनी जुबान पर ही सही लेकिन संरक्षित करने का प्रयास किया । जिसका सांगठनिक स्वरूप आर एस एस है । हिंदुत्व आज दो सौ वर्षो के बाद मोदी के कार्यकाल में विश्व गौरव को प्राप्त करने लगा है । २०१४ के बाद मोदी के रूप में पुनः हिंदुत्व का डंका पूरे विश्व में बजने लगा है ।
आज से सात सहस्राब्दी पूर्व हमारी की भौगोलिक सीमाएं आज के जैसी न थीं । आंध्रालय से लेकर आंध्रद्वीप तक–बाली, यवद्वीप, स्वर्णद्वीप, कुशद्वीप, लंका, सुमात्रा आदि द्वीप–समूह स्थल– संश्लिष्ट थे और इन द्वीपों में नर–नाग देव–दैत्य– असुर– मानुष–आर्य ब्रात्य सभी नृवंश के जन एकसाथ ही रहते थे । विन्ध्य के उस पार भारतवर्ष के उत्तरापथ में आर्यावर्त था, जिसमें सूर्यमण्डल, चन्द्रमण्डल नाम से दो आर्य राज्यसमूह थे । सूर्यमण्डल में मानव–कुल और चन्द्रमण्डल में इला से बना एलकुल राज्य करता था । उत्तरापद से ऊपर भारतवर्ष के सीमान्त पर पिशाचों, गन्धवों, किन्नरों, देवों और असुरों के जनपद थे । एलावर्त आदित्यों का मूल स्थान था, उरपुर और अत्रिपत्तन में देवों का आवास था और उनके पास काश्यप तट पर चारों ओर दूर तक असुर, गरुड़, नाग, दानव, दैत्यों के खण्डराज्य फैले हुए थे ।
आजकल जिस महाद्वीप को आस्ट्रेलिया कहते हैं, उस काल में उसका नाम आन्ध्रालय था । उन दिनों भारत और आस्ट्रेलिया को लंका और मेडागास्कर की भूमि आस्ट्रेलिया से जोड़ती थी । उन दिनों ये सब द्वीप भारत के अनुद्वीप माने जाते थे तथा इन द्वीपों का, जो एक–दूसरे से मिले–जुले थे, विशाल भू–भाग लंका महाराज्य के अन्तर्गत था ।
कान्यकुब्जपति कौशिक विश्वामित्र ने अपने पचास परिजनों को दक्षिणारण्य में निर्वासित कर दिया था ।आर्यजन दूषितजनों को दक्षिणारण्य में निर्वासित कर दिया करते थे । इन निर्वासित जनों के दक्षिणारण्य में बहुत जनपद स्थापित हो गए थे । इन बहिष्कृत पचास कौशिक परिजनों के सब परिवार दक्षिणारण्य में ही न बसकर आगे आंध्रालय तक चले गए और वहीं बस गए । आर्य सभ्यता और संस्कृति के कारण ही उनके जनपद सुसंस्कृत और सुसम्पन्न हो गए और इन परिवारों ने वहां की मूल जातियों से सम्पर्क स्थापित कर अपने को आंध्र घोषित कर दिया तथा उस महाद्वीप का नाम भी आंध्र ही रख लिया । इस जनपद का प्रमुख पुरुष महिदेव कहलाने लगा । आंध्रालय का प्रथम महिदेव तृणबिन्दु था । तृणबिन्दु मनुपुत्र नरिष्यन्ति का पुत्र था । इसी के काल में देवर्षि पुलस्त्य वहां गए और महिदेव तृणविन्दु के अतिथि बने । उन दिनों सभी आर्य–अनार्य जातियों में राजसत्ता और धर्मसत्ता संयुक्त ही थी । अधिकांश में ऐसा ही होता था । तृणबिन्दु भी धर्म और राज्य का अधिकारी था । ऋषि पुलस्त्य आर्य और युवक थे, सुन्दर और सुप्रतिष्ठित थे । संयोगवश उनका तृणबिन्दु की कन्या से प्रेम हो गया । तृणबिन्दु ने अपनी पुत्री इलविला उन्हें ब्याह दी तथा उनसे वहीं रहने का अनुरोध किया । पुलस्त्य भी वहीं अपना आश्रम बना पत्नी सहित रहने लगे ।
पृथ्वी के अधिपति राजा पृथु, मनु, इक्ष्वाकु चक्रवर्ती सम्राट भरत, विश्व विजेता मांधातृ, राजा हरिश्चंद्र, श्रीरामचंद्र से लेकर सम्राट युधिष्ठिर तक शिशुनाग वंश, मौर्य वंश से होकर गुप्त वंश, संवत प्रवर्तन विक्रमादित्य, महान विश्व विजेता शालीवाहन, चोल वंश, सातवाहन, चेर, पांड्य, चालुक्य, पल्लव, होयसल, राष्ट्रकूट राजपूत, और मराठा जैसे साम्राज्यों तथा
महाराजा पोरस, चाणक्य, चंद्रगुप्त, पुष्यमित्र शुंग, समुद्रगुप्त, अफगानिस्तान हिंदु शाही राजा जयपाल, महाराजा दाहिर, बप्पा रावल, प्रतिहार नागभट्ट प्रथम, मिहिरभोज, सुहेलदेव, पृथ्वीराज चौहान, राणा कुम्भा, राणा सांगा, महाराणा प्रताप, राजा रत्नसेन, माता पद्मिनी, छत्रसाल बुंदेला, जोरावर सिंह, शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई होल्कर, रानी दुर्गावती, रानी चेन्नम्मा, बाजीराव, दुर्गादास जैसे वीरों एवम् लाखों संतो की यह पावन भूमि सदा से विश्व संस्कृति और सभ्यता का केंद्र बिंदु रहा है । कालक्रम में सत्ता के साथ अहंकार का प्रवेश स्वाभाविक है और अहंकार के बाद ईष्र्या, ईष्र्या के बाद षडयंत्र और षडयंत्र के लिए अपनी लाखों वर्षों की संस्कृति, धर्म, सभ्यता, सामाजिकता आदि को बेचने में तनिक भी शर्म नहीं महसूस होता है । दूसरों की बरबादी ही अपनी कामयाबी लगती है । पड़ोसी के विनाश में ही अपना विकास दिखाई देता है । कहीं पुत्र मोह, कही सत्ता मोह तो कहीं वंश मोह के मायाजाल के दलदल में बड़े बड़े धुरंधर धंसते जाते हैं । फिर दो भाइयों के बीच होता है ‘महाभारत’ जिस महायज्ञ में बड़े गौरव के साथ अपनों की बलि चढ़ाई जाती है । वीरता का यशगान सुनाया जाता है । और गुलामी के महापास में फसकर अपनी गरिमा, महिमा, इतिहास, धर्म, संस्कृति और पितृ के ऊपर थूकना प्रारंभ कर देते हैं । यहीं से पतन के महासागर में खोते चले जाते हैं ।
नेपाली राजनीति में बाहरी दबाव और प्रभाव पड़ना प्रकृति प्रदत्त और स्वाभाविक भी है । यहां के हिमाली प्रदेश के नागरिक अति विकट परिस्थितियों में जीवन यापन करने को मजबूर हैं वहीं पहाड़ी भूभाग में भी शहरी इलाकों को छोड़कर बाकी क्षेत्र दैनिक जीवन में आवश्यक अनेक भौतिक असुविधाओं से भरा हुआ है । इधर तराई मधेस के क्षेत्रों को केंद्रीय सरकार द्वारा षडयंत्र रचकर आर्थिक, राजनीतिक, भौतिक और प्रशासनिक अधिकार और सुविधाओं से वंचित कर गरीबी में जीने को मजबूर किया गया है । यहां के सत्ता और प्रशासन मुट्ठीभर लोगों और जातियों के हाथों में सीमित है । इन सत्ताधारियों में राष्ट्रीयता इतना ही है कि उन्हें यूरोप और अमेरिका में भिसा लगते ही नेपाल को लात मारकर उड़ जाते हैं । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नेपाल जैसे पौराणिक देश के अस्तित्व और गरिमा को बचाए रखने के लिए इन मुट्ठीभर सत्तासीन लुटेरों और भ्रष्टाचारियों के षडयंत्र तथा देशद्रोही प्रवृत्ति को आम जनता के समक्ष उजागर करना होगा, साथही इस प्रवृत्ति के कारण भविष्य में आनेवाली संभावित खतरा और भावी पीढ़ी को जीने के लिए उत्पन्न होनेवाली भीषण दुर्घटनाओं का विश्लेषण कर समझाना होगा । यह हमारा आज के लिए परम् दायित्व भी है । संभावित दुर्घटनाओं को समझनेवाले विवेकशील लोगों को कष्ट सहकर भी सत्य को उजागर करना चाहिए ।
लोकतंत्र आने के बाद देश के भौतिक, शैक्षिक और आर्थिक विकास के लिए अधिकार सहित का पूर्ण दायित्व कांग्रेस, एमाले, राप्रपा और बाद में माओवादी तथा मधेसवादी पार्टी के नेताओं तथा कर्मचारियों के हाथों में सौंप दिया गया । वि सं २०४६ के बाद राज परिवार ने देश के संपूर्ण बागडोर अपने हाथों से कांग्रेस और कामयूनिष्टों के हाथों में सहजता से छोड़ दिया । वो चाहते तो भीषण खून खराबा करा सकते थे लेकिन देश को अपना घर और देश वासियों को अपना कुटुंब समझने के कारण स्वर्गीय राजा वीरेंद्र ने एक भी हिंसात्मक कदम नहीं उठाया । जबकि कांग्रेस और कम्युनिष्ट के नेताओं ने अपनी कमजोरी और चोरी को दबाने के लिए राजा को दोषी ठहराना जारी रखा । जनता इनकी झूठ और धूर्तता को समझ रही थी । लेकिन राजनीतिक प्रणाली को पलटने के लिए कोई मजबूत और भरोसेमंद विकल्प नहीं था ।
आज देश के वर्तमान देश बेचुवा प्रणाली के विकल्प में दो दो मजबूत शक्ति उपस्थित है । एक ‘हिंदुत्व और दूसरा हृदयेंद्र’ और इन दोनों के वैचारिक तथा व्यवहारिक लक्ष्य को एक सूत्र में पिरोने के लिए प्रयास किया जाए तो आधुनिक नेपाल के लिए एक विशेष राजनीतिक तथा सैद्धांतिक क्षेत्र निर्माण किया जा सकता है । संभवतः वर्तमान समय इसकी तिब्र प्रतीक्षा में है । आम जनता में भी मौलिक परिवर्तन का गहन भाव स्पष्ट देख सकते हैं । पार्टियों से पोषित कार्यकर्ता बाहेक अन्य सभी लोग परिवर्तन के पक्ष में हैं । आम नेपाली जनता के इस सुक्ष्म परंतु मजबूत भावनात्मक धार को पहचानने की जरूरत नेताओं का है । राजनीति करनेवाले जनता के मनोभाव को भांपकर नेतृत्व ले लिया करते हैं । परंतु नेपाल में अबतक इन मजबूत पार्टियों में से किसी भी पार्टी ने हिंदुत्व का खुला नेतृत्व लेने से कतराने का मूल कारण है; भ्रष्टाचारी प्रवृति ।
लोकतंत्र के बाद पिछले ३५ वर्षो में नेपाल के राजनीतिक और प्रशासनिक अधिकारियों ने सिर्फ एक ही आविष्कार किया है; वो है देव दानव का निकृष्ट गठबंधन । अर्थात् देश को लूटने और बदनाम करने में सब एक दूसरे के साथ हो जाएं । मिल जुलकर देश को लूटने और बेचने के काम में दक्षिणपंथी, वामपंथी, यथास्थितिवादी और मधेसवादी सबके सब एक हो जाते हैं । यह अदभुत रसायन सिर्फ और सिर्फ नेपाल में ही आविष्कार किया गया है । यह निम्न मानसिक और क्षुद्र वैचारिक गठबंधन इस पूरे भूखण्ड को तार–तार करके रख देगा । जल्द ही जनता त्राहिमाम करते शरणस्थली के लिए तड़पते हुए दिखेंगे । रामायण के यह पंक्ति जो मारीच से कहलाया गया है, वह हमारे जीवन में जल्द ही प्रमाणित होनेवाला है ।
“दुई प्रकार भए मृत्यु हमारा ।
वहां राम यहां रावण मारा ।”
क्या आपको नहीं महसूस होता है कि उपरोक्त कथन को पूर्ण करने के लिए आपके मतों से निर्मित आपकी सरकार आपके सामूहिक विनाश के लिए आधुनिक महाभारत और नए काश्मीर फाइल के लिए आधार भूमि तैयार करने में सफल होता जा रहा है । वैसे शुतुरमुर्ग शिकारी रूपी मृत्यु को देखकर अपनी गर्दन को मिट्टी में घुसेड़ लेता है; ताकि शिकारी दिखाई न दे । मैंने आज से तीन साल पहले हिमालिनी पत्रिका के लिए एक लेख का शीर्षक ही रखा था “शुतुरमुर्गे बुद्धिमत्ता” जो अब गतिमान और मूर्तिमान होते दिख रहा है ।
ध्यान रहे, सावधान हमें रहना है । जो लुटेरा संस्कार का है, देश बेचूवा प्रवृत्ति के पोषक है; स्वभावतः उसके लिए इज्जत, प्रतिष्ठा और ईमानदारी का कोई मूल्य नहीं । वैसे लोगों को न अपनी अस्तित्व, जाती, धर्म, संस्कार और संस्कृति से कोई लेना देना होता है न किसी के भावना से । उन्हें सिर्फ और सिर्फ पैसा चाहिए । धन और पद चाहिए । ऐशो आराम चाहिए । भोग विलास चाहिए ।
उपरोक्त कुसंस्कारों से सज्जित मानव शरीर वास्तव में दानव है । शरीर से तो जरूर मानव दिखता है लेकिन भीतरी प्रवृत्ति से वह दानव है । दानव का अर्थ कोई विकराल शरीरधारी जंगली जानवरों जैसा भयानक नहीं होता है । अरे महा पंडित, वैश्विक विद्वान रावण भी तो राक्षस ही था न । तो क्या उसका शरीर मानव जैसा नहीं था ? ऐसा नहीं है बंधु ! हम ही लोभ और अहंकार के बस होकर दानव बन जाते हैं और उदार तथा करुणावन होकर हम ही देवता भी बन जाते हैं । यह हमारी मानसिकता का परिणति है । हिटलर जैसे हजारों मानव ने लाखों निर्दोष मानवों को मौत के घाट उतार दिया । यह कैसा संकेत है? देवता या दानव का? अभी भी हजारों हिटलर हमारे बीच मौज कर रहा है, मौके की तलास कर रहा है । एक माहौल बनेगा और उसका अभीष्ट सिद्ध हो जाएगा और लाखों के भविष्य उजाड़ दिया जाएगा । इस गंभीर विषय पर संगोष्ठी, विमर्श, संभाषण, मंतव्य आदि के आयोजन की आवश्यकता है । खुले तौर पर वैचारिक आदान प्रदान किया जाना जरूरी है । प्रज्ञवानों का कर्तव्य है; समय से पूर्व संभावित दुर्घटनाओं का विश्लेषण कर संभावित समस्याओं के बारे में आगाह कराते हुए समाधान के उपायों को उजागर करना । यहां मैने अपना कर्तव्य निर्वाह कर दिया है । धन्यवाद