प्रचण्ड-रबि का सरकार और कानुनी शासन दोनों हैं पेण्डोरा (Pandora’s Box) का बक्सा : कैलाश महतो
कैलाश महतो, पराशी । बी.ए. के अंग्रेजी कोर्ष में Pandora’ Box नामक एक कथा पढाने का मुझे भी मौका मिला । कथा में Mount Appolo से प्रोमिथियस नामक एक पात्र ने मानव प्रेम के दया भाव से ओतप्रोत होकर उसका आग चुराकर मनुष्य को दे दी ता कि मनुष्य ठण्ड में ताप पा सके और जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उसका प्रयोग कर सके । उसके उस दुस्साहसपूर्ण चोरी से आग बबूला हुए ज्यूस ने दण्ड स्वरुप उसके पूरे शरीर को जंजीरों में बांधकर वर्षोंतक सजा दी । ज्यूस इतने गुस्से में था कि दण्ड के दायरे को बढाकर प्रोमिथियस के छोटे भाइ एपिमिथियस समेत को सजा देने के हिसाब से पानी और मिट्टी सम्मिलित एक सुन्दर लडकी का निर्माण किया, जिसकी शादी एपिमिथियस से करायी गयी ।
शादी के बाद ज्यूस ने अपनी नव विवाहिता बेटी प्याण्डोरा (Pandora) को एक जादुई बख्सा भेट की, जिसे कभी भी न खोलने की हिदायत थी । Pandora का श्रीमान तक ने अपनी पत्नी से उस बक्से से बचने की नसीहत देता रहता था । मगर एक दिन Pandora ने उत्सुकतावश उस बक्से को खोल दी जब वह पूरे अकेली थी ।
Pandora ने ज्यों ही बक्सा खोली, उसमें रहे सारे दुर्गुण, विकार, आफत, अपराध और नकारातकता बाहर अन्तरिक्ष और संसार में फैल गये । चारों ओर हाहाकार, अफरातफरी, चिल्लाहट, फसाद, दु:ख, कष्ट, ठगी, बेइमानी, हत्या, हिंसा, आदि विषाक्त की दौर शुरु हो गयी । उस छोटी सी गल्ती के कारण संसार को इतने बडा दु:ख झेलने पडेंगे, उसका कल्पनातक Pandora ने नहीं की थी । जल्द से उसने बक्सा को बन्द तो कर दी, मगर सारा उत्पात संसार में फैल चुके थे ।

एपिमिथियस को संसार में फैले हलचल और बुराइयों के बारे में पता चल चुका था । वह जब घर लौटकर आया, तो Pamdora ने डरते हुए उसे सारी बात बताई । तब एपिमिथियस ने बक्सा को पून: खोलने को कहा । Pandora ने डरते हुए पून: बक्सा खोली तो बक्सा में एक अन्तिम सदस्य दिखाई दी, जिसने अपना नाम “उम्मीद” (Hope) बतायी । वह भी बक्से से बाहर निकला और कहा कि सारे दु:ख और उपद्रव के बीच वह मनुष्यों के लिए आशा का काम करेगा । तबसे आजतक दुनिया के सारे कष्टों और फरेबों के बीच मनुष्य ने आशा को पाल रखा है ।
चैत्र २१ के रात्री बस से काठमाण्डौ से जनकपुर आते हुए यात्रा बस में बगल के सीट में नेपाली कांग्रेस के एक घाघरान नेता से जान पहचान हुई । संयोग से वो नेता काठमाण्डौ के गौशाला में मेरे राजनीतिक मन्तवय को सुन चुका था । वो मुझे पहचान रहे थे । हम उन्हें नहीं जानते थे । बातों ही बातों में वर्तमान गृह मन्त्री रबि लामिछाने की एक घिनौने कर्तुत की उन्होंने पोल खोली । उन्होंने कहा कि कानुन का पक्का हवाला देने बाले गृह मन्त्री ने कुछ ही दिन पहले गृह मन्त्रालय और विभाग के सुरक्षा अधिकारियों से हुए गोप्य बैठक में सुरक्षा अधिकारियों को कडा निर्देशन देते हुए कहा है कि उन्हें हर हाल में मासिक तोके हुए राशि चाहिए, जिसकी जिक्र एक सुरक्षा अधिकारी ने मेरे बगल के कांग्रेसी नेता को बता दिया था ।
मेरे बस सहयात्री नेता के वो अधिकारी करीबी मित्र हैं । संभवत: उनके ही सिफारिस पर कभी उस प्रहरी अधिकारी ने प्रहरी की जागिर पाई थी । उस अधिकारी ने अपने नेता मित्र से खिझते हुए कहा था कि नेपाल में सारे के सारे नये नेता भी उसी भ्रष्ट और लूटेरे चरित्र के हैं । सब खाने में, लूटने में और बाहर जनता सेवा की बात करने में माहिर है । जब रबि जैसा युवा दिमाग का गृह मन्त्री मासिक कमाई कर उन्हें चुकाने का निर्देश देता है, तो फिर समान्य प्रहरी क्या करेगा ? जबतक वो जनता को नहीं लूटेगी, तो गृह मन्त्री और प्रधानमन्त्री को क्या और कहां से चुकाउएंगी ? इससे नेपाल में विकास कैसे संभव है ? जनता तवाह नहीं, तो आवाद कैसे होगी ? यह प्रहरी अधिकारी की चिन्ता है, जो चिन्ता करने की बात है ।
बातों ही बातों में २०७२ साल की संविधान जारी करने की घटना की भी उन्होंने चर्चा कर दी । उनके अनुसार विभेदपूर्ण “नेपालको संविधान-२०७२” को जारी न करने में तत्कालीन प्रधानमन्त्री सुशिल कोइराला और राष्ट्रपति रामबरण यादव एक मत थे । वे दोनों चाहते थे कि भले ही कुछ दिन बिलम्ब हो, मगर हिमाल, पहाड, मधेश और दलित, जनजाति व समस्त लिङ्गों के सहमति और साझा धारणा से संविधान का घोषणा हो । मगर एकल संविधान लेखक कृष्ण प्रसाद सिटौला के साथ प्रचण्ड, ओली, माधव, झलनाथ और शेर बहादुर लेखक सिटौला द्वारा लिखित संविधान को ही हु-बहु जारी करने के पक्ष में रहे, जबकि उसके लिए न तो राष्ट्रपति यादव, न प्रधानमन्त्री कोइराला राजी थे । गरमा गरम बहस चल रही थी ।
राष्ट्रपति यादव के संविधान जारी अस्वीकारोक्ति से बाहुनों को खास मतलव नहीं था । मतलब था तो प्रधानमन्त्री सुशिल कोइराला के अस्वीकारोक्ति से । राष्ट्रपति यादव को तो ओली, रामशरण महत, भीम रावल, लेखराज भट्ट, आदि ने साम्प्रदायिक और पेशायी गाली भी की थी । मगर प्र.म. कोइराला उन सबके लिए लोहे का चामल बने थे ।
प्रधानमन्त्री के अडान पर आक्रोशित शेर बहादुर, प्रचण्ड, ओली, माधव और झलनाथ सब एक ही गाडी में बालुवाटार के प्रधानमन्त्री निवास में पहुंचकर प्रधानमन्त्री को धमकाते हुए कहे, “तपाईं संविधान सभा हलमा जाने कि के गर्ने ?” सारे शीर्ष नेताओं के तेवर से परेशान होकर प्र.म. सुशिल कोइराला चुपचाप संविधान सभा कक्ष के तरफ चल पडे । वेचारा प्रधानमन्त्री चिन्ता और बेचैनी के कारण तीन दिन से खानातक नहीं खाए थे । उन्हें खाना खाने के लिए अनुरोध करने गई संविधान सभा सदस्य श्रीमति सीता यादव और मेरे बगल के नेता जी साथ में होने की बात उन्होंने बतायी ।
आज जो संविधान विवाद और फसाद का मूल जड है, उसमें तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री की निरीहता और सारे मधेशी और जनजाति विरोधी प्रमुख नेताओं की कृयाशिलता रही है ।
अब नया सवाल यह है कि तकरीबन एक दशकतक उसी पहचान विरोधी, जाति विरोधी और विभिन्न राष्ट्रियता विरोधी संविधान के तले अनेक चुनाव लड चुके, प्रदेश सरकार बना चुके, राष्ट्रपति और मुख्यमन्त्री बन चुके, संघ और प्रदेशों में सरकार चला चुके लोग अब पुन: पहचान की बात, सहभागिता की चर्चा, पहचान की वकालत, संविधान का विरोध, बहुल राष्ट्रियता की लडाई की जो बात कर रहे हैं, उससे हक और अधिकारविहीन लोगों के मांग, मुद्दे और नारे मजबूत हो रहे हैं या कमजोर ? इस पर जनता को चिन्तन करना चाहिए ।
या देश में स्वतन्त्र और सवल रुप में उठ सकने बाले भावी सशक्त आन्दोलन को मत्थर करने का षड्यन्त्र, जिसे कहीं राज्य द्वारा ही तो नहीं पोषक तत्व खिलाए जा रहे हैं ? भावी सशक्त आन्दोलन पर ब्रेक लगाने के लिए कहीं राज्य के लगानी में ही तो लोगों को भटकाने और थकाने की साजिश नहीं है सरकारी पक्षों से ? सरकार और सत्ता के भक्त द्वारा जन-प्रदर्शन होना या करबाया जाना अपने आपमें एक सवाल है ।
तबियत को थर्मा मिटर से नापा जाय, तो यह स्पष्ट होना अवश्यंभावी होगा कि आज जो सडकों पर आन्दोलन दिख रहे हैं, उसमें कोई बैंक से राहत चाहता है, कोई मीटर ब्याज पीडित के नाम पर महाजनों से छुटकारा चाहता है, कोई लघुवित्त और सहकारी के धन कमाई को रोकना चाहता है तो कोई चुनाव हारने, तो कोई चुनाव जीतकर भी उसके अनुसार के मन्त्रालय न ले पाने के झोंक में आन्दोलन के लाठी थामे खडे हैं ।
हां, इतना जरुर है कि मुक्ति के आश और लालच में कुछ वे लोग, जो यह मान बैठे हैं कि पैसे के बिना आन्दोलन नहीं हो पाएगा, इसिलिए पैसे बालों से मिलकर मुक्ति का आन्दोलन करें । ऐसे चिंतन के लोगों को इतना होश नहीं कि हक का आन्दोलन और अवसर के राजनीतिक छलावों में फर्क होता है । मीटर ब्याज पीडित, लघुवित्त और सहकारी तथा बैंक व वित्तीय संस्था के शिकार लोगों को यह समझना जरुरी है कि देश में, और खास करके मधेश में सारे उपरोक्त झगडे और वित्तीय घोटाला राज्य के संलग्नता में जारी है, जिसका शिकार ऋणी और महाजन दोनों है और राज्य का प्रतिनिधी दोनों तरफ लूट मचाये हुए हैं ।
झगडे लगाने और झगडे सुलझाने दोनों में राज्य को ही लाभ है, जनता मार से नहीं उबर सकती । कारण राज्य ने यह सब करवाकर अपने अपराध विरुद्ध हो सकने बाले सारे संभावित विद्रोहों को समाप्त करने की रणनीति अख्तियार की है । जनता का ध्यान चारों तरफ भटकाकर एकत्रित होने से रोकने की सरकारी खुराफाती नियत को जबतक हम समझ नही सकते, हम राजनीतिक मूल मुद्दों से दूर भटकते रहेंगे और सरकार समस्या समाधान के सहमति करते रहेंगे । हम उसी में उलझते जायेंगे और सरकार जनता को उल्लू बनाती जायेगी ।
राज्य और सरकार हमें हमारे सहमतियों के बक्से उपहार में देते जायेंगे, जो गरीबी, बेवकूफी, जातपात, बेरोजगारी, हिंसा, धर्मान्धता, चुनाव, महंगाई, भ्रष्टाचार, आदिका पेटारा (बक्से) थमाते जायेंगे । उत्सुकतावश हम जब जब खोलेंगे, Pandora के बक्से सा ही उपरोक्त दु:ख, कष्ट और प्रपञ्च हमारे जीवन में फैलता जायेगा । प्रचण्ड-रबि का कानुनी शासन राज्य भी पेण्डोरा के बक्सा से किसी भी मायने में कम नहीं है ।