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उफ ! ये गरमी : जलती धरती, जलता जीवन : श्वेता दीप्ति

डॉ श्वेता दीप्ति, हिमालिनी अंक जुलाई 024 ।  अप्रैल १८१५ में इंडोनेशिया के माउंट तमबोरा में ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था । उस विशाल विस्फोट से निकली राख और गैसों के कारण सूरज की रोशनी भी पूरी तरह पृथ्वी पर नहीं पहुंच पा रही थी । इससे विश्व का औसत तापमान ३ डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया था । १८१६ के जून, जुलाई और अगस्त में पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के कुछ हिस्सों में भारी बर्फबारी हुई और पाला पड़ा । १८१६ को ‘बिना गर्मी वाला साल’ माना गया, यानी उस वर्ष गर्मी का मौसम ही नहीं आया ।



परन्तु वर्तमान में वैश्विक स्तर पर जलवायु में हुए बदलाव इंसानी गतिविधियों और हमारे जीने के तरीके की वजह से हुए हैं । पिछले २०० वर्षों में परिवहन, खेती, हीटिंग और अन्य इंसानी गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी से बढ़ा है । खासकर कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन वातावरण में जमा हो गए हैं । ये गैस सूरज की गर्मी को वातावरण में ही रोक लेते हैं । इससे पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है । इन गैसों के उत्सर्जन की एक बड़ी वजह जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल है । जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ते उत्सर्जन की वजह से दुनिया भर में तापमान बढ़ रहा है और चरम मौसमी स्थितियां बढ़ रही हैं । विश्व मौसम संगठन और यूरोपीय संघ की ‘कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस’ जैसी एजेंसियों के हालिया विश्लेषण से पुष्टि हुई है कि २०२३ अब तक का सबसे गर्म साल था । २०२४ तो सभी रिकार्ड तोड़ रहा है ।

मौसम पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन (डब्ल्यूडब्ल्यूए) वैज्ञानिक संगठनों का एक समूह है । यह दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन और चरम मौसमी घटनाओं को आपस में जोड़ने के लिए वैश्विक डेटा और जलवायु मॉडल का इस्तेमाल करता है । इस समूह ने साल २०२३ में एक दर्जन से ज्यादा आपदाओं का विश्लेषण किया । इस वैज्ञानिक साक्ष्य की मदद से बताया गया कि जीवाश्म ईंधन से होने वाला उत्सर्जन किस तरह से तूफान, सूखा, जंगल की आग और गर्म लहरों को विनाशकारी बना रहा है । २०२३ में जीवाश्म ईंधन से होने वाला उत्सर्जन चरम पर था । डब्ल्यूडब्ल्यूए ने पाया कि गर्म और शुष्क मौसम की वजह से २०२३ में कनाडा के जंगलों में भीषण आग लगी । पूरे देश में, सीरिया के आकार की एक करोड़ ८० लाख हेक्टेयर जमीन आग से तबाह हो गई । यह भी पाया कि सितंबर २०२३ में जलवायु परिवर्तन के कारण लीबिया में ५० फीसदी तक ज्यादा बारिश हुई । इससे विनाशकारी बाढ़ आई और ३,४०० से अधिक लोग मारे गए ।

तापमान १८५०–१९०० के “औद्योगिक क्रांति से पहले” के औसत की तुलना में बहुत अधिक बढ रहा है । यह लोगों को गर्मी से होने वाली मुश्किलें जैसे जलवायु परिवर्तन के खतरों की तरफ धकेल रहा है । वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ते तापमान के लिए इंसानी गतिविधियों से मौसम में हो रहा बदलाव जिम्मेदार है जिसे अस्थायी तौर पर अल नीनो (उष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत के मौसमी गर्म मौसम का प्राकृतिक बढ़ाव जो हर दो से सात साल में होता है) हवा दे रहा है ।

साल २०२३ में बढ़ती गर्मी के संकेत पूरी तरह सामने और स्पष्ट थे– भूमध्यसागरीय क्षेत्र और संयुक्त राज्य अमेरिका में लू चलना । कनाडा, ग्रीस, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया में जंगलों में आग लगना । अफ्रीका के हॉर्न में लंबे समय तक सूखे के बाद बाढ़ ।

दुनिया भर में साल १८५० से तापमान का डेटा रखना शुरू हुआ था । इसके बाद से २०२३ अब तक का सबसे गर्म साल है । वहीं सबसे गर्म जनवरी महीना भी दर्ज किया गया । विश्व मौसम विज्ञान संगठन का कहना है, “१९८० के दशक के बाद से हर दशक पिछले दशक की तुलना में ज्यादा गर्म रहा है । पिछले नौ साल रिकॉर्ड पर सबसे गर्म रहे हैं ।” यूके के मौसम कार्यालय का अनुमान था कि मौजूदा साल, पिछले साल के मुकाबले ज्यादा गर्म हो सकता है ।

तापमान का कौन–सा रिकॉर्ड टूटा

दुनिया भर में साल २०२३ में औसत तापमान १४.९८ डिग्री सेल्सियस था । यह १८५०–१९०० के औसत से १.४८ डिग्री सेल्सियस ज्याद था । यही नहीं, पिछले सबसे गर्म साल २०१६ की तुलना में ०.१७ डिग्री सेल्सियस ज्यादा था । दरअसल, पेरिस जलवायु समझौते में धरती के तापमान में बढ़ोतरी को १.५ डिग्री के अंदर रखने पर सहमति बनी थी । लेकिन यूके के मौसम कार्यालय को लगता है कि इस साल पहली बार १.५ डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी की सीमा टूटने से इनकार नहीं किया जा सकता है ।

जनवरी २०२४ में महीने के आधार पर अब तक का सबसे ज्यादा वैश्विक सतही तापमान दर्ज किया गया । यह पिछली सदी के औसत १२.२ डिग्री सेल्सियस से १.२७ डिग्री सेल्सियस ज्यादा है । यह लगातार ८वें महीने में सबसे ज्यादा है, क्योंकि पूर्वी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में अल नीनो की स्थिति बनी हुई है । एनओएए के जलवायु पूर्वानुमान केंद्र के अनुसार ये स्थितियां अप्रैल–जून २०२४ तक रहेंगी ।
साल २०२३ इतिहास का सबसे गर्म साल था । इस साल ये रिकॉर्ड टूट सकता है । साल २०२४ सबसे ज्यादा गर्म साल का नया रिकॉर्ड बना सकता है । पिछले साल धरती वैज्ञानिकों की गणना से भी ०.२ डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म थी । नासा के क्लाइमेटोलॉजिस्ट गैविन श्मिट कहते हैं पिछले साल ने वैज्ञानिकों को हैरान किया । हमें इस साल भी यही उम्मीद है । गैविन ने बताया कि दुनिया में ४० साल से मौसमी बदलावों पर स्टडी की जा रही है । सैटेलाइट डेटा मिल रहे हैं । इन चार दशकों के इतिहास में वैज्ञानिकों को तापमान ने जो धोखा दिया है, वह कभी नहीं हुआ है ।

साल २०२३ में कई रिकॉर्ड टूट गए थे । कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (सी३एस) की रिपोर्ट के अनुसार, इससे पहले कभी भी साल के हर दिन का तापमान १८५०–१९०० के स्तर से १ डिग्री सेल्सियस ऊपर दर्ज नहीं किया गया था । लगभग आधे दिन १.५ड्ढ सेल्सियस ज्यादा गर्म थे । साल की दूसरी छमाही में हर महीना पिछले किसी भी साल के उस महीने की तुलना में ज्यादा गर्म था । इसके अलावा, २०२३ में जुलाई में पूरी तरह और नवंबर में वार्षिक चक्र के सापेक्ष रिकॉर्ड तापमान था । यही नहीं, ९ जून से लगभग सभी दिन ईआरए ५ (भ्च्ब् छ) डेटा रिकॉर्ड पर सबसे ज्यादा गर्म थे । नवंबर २०२३ में दो दिन २ड्ढ सेल्सियस से ज्यादा गर्म थे ।

दुनिया के ध्र‘वों को भी जलवायु परिवर्तन का खामियाजा भुगतना पड़ा है । एनओएए के राष्ट्रीय पर्यावरण सूचना केंद्र (एनसीईआई) के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी में अंटार्कटिक समुद्री बर्फ का दायरा घटकर पांचवें सबसे निचले स्तर पर आ गया । आर्कटिक का तापमान औसत से ऊपर रहा । धरती के गर्म होने के कारणों में इंसानी गतिविधियों के साथ–साथ प्राकृतिक वजहें भी शामिल हैं । इसे चलाने वाला प्राथमिक कारक जलवायु परिवर्तन है । २०२३ अल नीनो वाला साल था जो जलवायु में कुदरती तरीके से बदलाव लाता है । इसमें तापमान और बारिश जैसे जलवायु पर असर डालने वाले घटकों में औसत से अंतर आ जाता है । नासा अर्थ ऑब्जर्वेटरी ने तापमान बढ़ाने वाले तीन अन्य कारकों के बारे में भी बताया है– महासागर का गर्म होना, एरोसोल में कमी और २०२२ में दक्षिण प्रशांत में समुद्र के नीचे टोंगा में ज्वालामुखी विस्फोट ।
पृथ्वी की सतह के पास वायु का औसत तापमान बढ़ रहा है । इस बदलाव का बड़ा कारण कोयला, गैस और तेल जैसे जीवाश्म ईंधन के जलने से निकलने वाली अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड गैस है जो हमारे घरों, व्यवसायों और शहरों को रोशन करते हैं और हमें आवाजाही में मदद करते हैं । खेती और डेयरी पालन, भूमि के इस्तेमाल में आ रहे बदलाव, निर्माण, कचरा प्रबंधन और औद्योगिक प्रक्रियाएं मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और अलग–अलग तरह के कृत्रिम रसायनों का उत्सर्जन करती हैं । ये गैसें पृथ्वी के चारों ओर गर्मी को ढकती और रोकती हैं ।

जलवायु में बदलाव के चलते बढ़ने वाली गर्मी जलवायु परिवर्तन के असर को बढ़ाती है । अल नीनो वायुमंडलीय प्रवाह को इतना बदल देता है कि दुनिया के कई हिस्सों में ६ से १२ महीनों के लिए स्थानीय मौसम बदल जाता है । दक्षिणी दोलन नामक मौसमी घटना के साथ यह जुड़ा हुआ है जो ताहिती द्वीप और ऑस्ट्रेलिया के डार्विन के बीच दक्षिणी प्रशांत महासागर में समुद्र स्तर के वायु दबाव पैटर्न में बदलाव को दिखाता है । अल नीनो की स्थिति बनने पर, ताहिती की तुलना में डार्विन में औसत वायु दबाव ज्यादा होता है और ला नीना नामक वैकल्पिक ठंडे चरण के दौरान ठीक इसके उलटा होता है । अल नीनो साउथर ऑसिलेशन (भ्ल्क्इ) कहलाने वाली, प्राकृतिक जलवायु में बदलाव की यह घटना दुनिया के दूरदराज के हिस्सों में स्थानीय मौसम के पैटर्न को प्रभावित करती है । अल नीनो वाले साल में, भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून दब जाता है । समुद्र का अस्थायी तापन प्रशांत जेट स्ट्रीम को दक्षिण की ओर धकेलता है, जिससे उत्तरी अमेरिका और कनाडा के हिस्से गर्म और शुष्क हो जाते हैं ।

उष्णकटिबंधीय महासागरों में तापमान से जुड़ी विसंगतियां २०२२ में नकारात्मक से २०२३ में सकारात्मक में स्थानांतरित हो गईं । यह जो प्रशांत महासागर पर ला नीना के अल नीनो में परिवर्तित होने और गर्म अटलांटिक और हिंद महासागरों से प्रभावित होने के मुताबिक है, जो सभी महासागरों में सबसे गर्म है ।

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हवा के तापमान से जुड़ी विसंगतियां समुद्र की सतह के तापमान की विसंगतियों से बहुत करीब से जुड़ी हुई हैं । कोई विसंगति रेफरेंस के लिए लिए गए डेटा या दीर्घकालिक औसत से विचलन को दिखाती है । इस मामले में, सकारात्मक या नकारात्मक विसंगति रेफरेंस के लिए लिए गए डेटा की तुलना में गर्म या ठंडे तापमान को इंगित करती है । महासागर के ऊपरी हिस्से में जमा गर्मी (समुद्र के सबसे ऊपर २,००० मीटर में संग्रहीत गर्मी की मात्रा) और समुद्र की सतह के तापमान ने २०२३ में नए रिकॉर्ड बनाए । महासागर में जमा गर्मी प्रमुख जलवायु संकेतक है, क्योंकि महासागर पृथ्वी की ९०% अतिरिक्त गर्मी को संग्रहीत करते हैं और दुनिया भर के महासागरों में, यह अब तक के सबसे बड़े अंतर से बढ़ा है ।

हवा में मौजूद छोटे कण जैसे धुआं, कालिख, ज्वालामुख की राख और समुद्री स्प्रे जिन्हें एरोसोल कहा जाता है, सूर्य के प्रकाश को अवशोषित या प्रतिबिंबित कर सकते हैं और हवा को क्रमशः थोड़ा गर्म या ठंडा कर सकते हैं । गहरे एरोसोल आम तौर पर गर्मी को अवशोषित करते हैं और हल्के एरोसोल इसे प्रतिबिंबित करते हैं । उनका अक्सर ठंडा करने वाला असर होता है । हालांकि, यह असर न्यूनतम और सीमित निश्चितता और मौसम के पैटर्न पर जटिल प्रभाव के साथ होता है । जैसा कि दुनिया भर में नए सरकारी मानदंडों ने वायु प्रदूषण में कटौती की है और हवा को साफ किया है, दुनिया भर में एरोसोल की सांद्रता कम हो रही है, जिससे संभवतः एक छोटा–सा गर्मी बढ़ाने वाला असर हो रहा है जिसे वैज्ञानिक बेहतर ढंग से समझने की कोशिश कर रहे हैं ।

बहुत ज्यादा गर्मी के संभावित असर क्या हैं ?

हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की विशेष रिपोर्ट में तापमान के १.५ डिग्री सेल्सियस के पार होने पर सामने आने वाले गंभीर असर का अनुमान लगाया गया है । इनमें ज्यादा और तेज बारिश, सूखा और लू शामिल है । एक हालिया अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि २ डिग्री सेल्सियस की “महत्वपूर्ण सीमा” को पार करने से हमें जलवायु परिवर्तन जैसे वायु तापमान, वर्षा (बारिश, बर्फ आदि), सापेक्ष आर्द्रता, सौर विकिरण और हवा की गति जैसे मिले–जुले असर का सामना करना पड़ सकता है । उनका कहना है कि बदली हुई जलवायु में गर्मी का तनाव और आग लगने का खतरा ज्यादा होगा ।

आईपीसीसी के डेटा पर आधारित एक रिपोर्ट के अनुसार, भीषण लू और सूखा दो सबसे स्पष्ट प्रभाव हैं जो १.५ डिग्री सेल्सियस गर्म होने पर हर पांच साल में कम से कम एक बार लगभग १४ प्रतिशत लोगों को प्रभावित करते हैं । वहीं २ डिग्री गर्म होने पर ३७ प्रतिशत लोगों को प्रभावित करते हैं ।

लू का मतलब किसी बड़े क्षेत्र में हवा का स्पष्ट रूप से बहुत ज्यादा गर्म होना या ऐसी हवा का आना है । विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) के मुताबिक इसमें साल की गर्म अवधि के दौरान लगातार कम से कम दो दिनों तक असामान्य रूप से मौसम गर्म होता है जो स्थानीय सीमाओं से ज्यादा होता है । आबादी का पांचवां हिस्सा पहले से ही कम से कम एक सीजÞन में तापमान में १.५ड्ढऋ से ज्यादा बढ़ोतरी का अनुभव कर रहा है । वैज्ञानिक बताते हैं, “२ डिग्री सेल्सियस तापमान पर, २०१५ में भारत और पाकिस्तान में देखी गई घातक लू हर साल आ सकती हैं ।”

शहरों का स्वरूप पिछले कुछ दशकों में काफी बदला है । यहां की हरियाली में दिनों–दिन कमी आ रही है । धड़ल्ले से पेड़ काटे जा रहे हैं । इमारतों की संख्या बढ़ रही है । घरों में एसी का इस्तेमाल बढ़ रहा है । पक्की सड़कों का विस्तार तेजÞी से हो रहा है । और यही वजह है कि तापमान भी उसी रफÞ्तार में बढ़ रहा है । ऐसे में शहर को अब ‘अर्बन हीट आइलैंड’ या फिर ‘हीट आइलैंड’ कहा जाने लगा है । अगर हवा की गति कम है तो शहरों को अर्बन हीट आइलैंड बनते आसानी से देखा जा सकता है । शहरों में जितनी जÞ्यादा जनसंख्या होगी, हीट आइलैंड बनने की गुंजÞाइश उतनी ही जÞ्यादा होगी । अक्सर जब हम शहरों की सीमा पार करते हैं, हमें राहत महसूस होती है ।

विशेषज्ञ का मानना है कि शहरों में बढ़ते निर्माण कार्यों और उसके बदलते स्वरूप के चलते हवा की गति में कमी आई है । हरियाली वाले क्षेत्र कम हो रहे हैं । तारकोल की सड़कों का विस्तार हो रहा है । यही वजह है कि तापमान तेजÞी से बढ़ रहा है । तापमान वृद्धि में ग्लोबल वार्मिंग एक वजह जÞरूर है, लेकिन अगर हम शहरों का अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि जमीन का बदलता उपयोग भी इसकी बड़ी वजह है । तारकोल की सड़क और कंक्रीट की इमारत ऊष्मा को अपने अंदर सोखती है और उसे दोपहर और रात में छोड़ती है । नए शहरों के तापमान तेजी से बढ़ रहे हैं । पहले से बसे महानगरों की तुलना में ये जÞ्यादा तेजÞी से गर्म हो रहे हैं । शहरों में बढ़ते तापमान को लोग ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ कर देखते हैं । लेकिन इसके लिए सिर्फÞ वह ही जÞिम्मेदार नहीं है । तापमान को देखने से पहले हवा के रुख को भी देखना चाहिए । अगर हवा राजस्थान की तरफ से आ रही है तो जÞाहिर सी बात है ये जÞ्यादा गर्म होगी ।

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अगर तूफान की दिशा बदल जाती है तो शहरों का तापमान भी बदल जाता है । गर्मियों में मौसम बदलने की वजह से हादसों और लोगों की मौत के बारे में भी चर्चा की । गर्मी आते ही लू लगने से मौत की खÞबरें आनी शुरू हो जाती हैं । इसके दोषी हम सब हैं । हमें बदलते मौसम के अनुसार अपना खाना–पीना और कपड़े पहनने का तरीका बदलने की जÞरूरत होती है । ऐसे हादसे इसलिए भी होते हैं क्योंकि हम अपनी जÞिंदगी में जÞरूरी बदलाव नहीं करते । गर्मियों के मुताबिक अपनी जीवनशैली में जÞरूरी बदलाव करना जरूरी है ।

जलवायु परिवर्तन पर बनी संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी ने कहा है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग को नहीं रोका गया तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं । संस्थान की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर के देशों को इस पर तुरंत लगाम लगाने की जÞरूरत है । अगर ऐसा नहीं होता है तो २०३० तक धरती के कई हिस्से रहने लायक नहीं होंगे । आईपीसीसी ने एक रिपोर्ट जारी की थी । इस रिपोर्ट में धरती के बढ़ रहे तापमान पर अभी तक की सबसे कड़ी चेतावनी दी गई है । रिपोर्ट कहती है कि अगर तापमान १.५ डिग्री सेल्सियस भी बढ़ता है तो इससे वंचित और कमजÞोर आबादी सबसे जÞ्यादा प्रभावित होगी । उन्हें भोजन की कमी, आमदनी, महंगाई, आजीविका के साधन, स्वास्थ्य और जनसंख्या विस्थापन की समस्याएं झेलनी पड़ सकती हैं । अगर ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से समुद्र का जल स्तर बढ़ता है तो कई हिस्से बर्बाद हो जाएंगे । तटीय क्षेत्रों में रहने वाले और आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर रहने वाले लोग सबसे जÞ्यादा प्रभावित होंगे । हालांकि, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अभी देर नहीं हुई है । अगर तापमान को बढ़ने से रोका गया तो संभावित क्षति को कम किया जा सकता है ।

लेकिन यह दक्षिण एशियाई देशों के लिए आसान नहीं होगा । रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि २०१५ से २०५० के बीच ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए देशों को ९०० बिलियन डॉलर खर्च करने होंगे । लेकिन ऐसा लगता है कि ये बहुत कम पड़ जाएंगे । जब नया अंतरराष्ट्रीय समझौता, इंटेंडेड नैशनली डेटरमाइंड कॉन्ट्रीब्यूशन अग्रीमेंट के तहत देशों से साल २०२० के बाद ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए खÞर्च का ब्यौरा मांगा गया तो कई देशों ने अनुमानित खÞर्च से कहीं अधिक राशि का जÞिक्र किया ।

उच्च तापमान के बावजूद, दुनिया के कुछ हिस्सों में लोग अभी भी नियमित रूप से कड़ाके की ठंड का सामना कर रहे हैं । यह भी जलवायु परिवर्तन का ही एक हिस्सा है । दुनिया में उत्सर्जन की मौजूदा स्थिति के हिसाब से संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट जारी की है । इससे पता चलता है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से वर्ष द्दज्ञण्ण् तक वैश्विक तापमान पूर्व–औद्योगिक स्तर से २.९ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की आशंका है ।
अगर हमें लगता है कि हम दुनिया के किसी ऐसे हिस्से में रहते हैं, जहां जलवायु परिवर्तन का गंभीर प्रभाव नहीं पड़ रहा है और हम इससे प्रभावित नहीं होंगे, तो यह हमारी गलतफहमी है । जैसे–जैसे धरती गर्म होती जाएगी, प्रवासन बढ़ता जाएगा, खाना महंगा होगा और पूरी दुनिया अस्थिर होने लगेगी । कोई भी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से अछूता नहीं रहेगा । इसलिए समय रहते हमें अपने असपास के पर्यावरण पर ध्यान देना होगा और अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना होगा ताकि हम अपनी आने वाली पीढी को साँसे दे सकें ।

डॉ श्वेता दीप्ति
सम्पादक, हिमालिनी

 



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