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बहुत ही छोटे परिचय के रुप में लिया जाय तो प्राचीनकाल मं मिथिला नगरी जो आज भी नेपाल के जनकपुरधाम मिथिला के केन्द्र के रुप में प्रसिद्ध है, वही आज बृहत्त मधेश के रुप  मे है। ऐसा कुछ लोग नेपाल मंे मानते हैं। परन्तु डा. कृष्ण नारायण पाण्डेय का नयन दृष्टम् ऐतिहासिक भारतम् नामक किताब के अन्तिम पृष्ठ की ओर दिये गये कुछ नक्से जो त्रेतायुग के रामायणकाल से भी पहले से दिया गया हंै, वे सब नेपाल नाम के शब्द को नहीं दर्शाते। बल्कि कहीं पर मिथिला तो कहीं पर उन ऐतिहासिक जगह सब का नाम लिखा मिलता है जो आज नेपाल में मधेश नाम से प्रसिद्ध है। वास्तव मं मधेश का सिधा अर्थ मध्यदेश होता है और कितने लोग भारत के मध्यप्रदेश को ही मधेश कह देते हैं, यह कहना अनुचित है।
डा. पाण्डेय के उपर लिखा गया किताब मंे वासुदेव श्री कृष्ण का जीवनी का सारांश दिया गया है। उस अनुसार्रर् इसा पर्ूव ३१३८ मंे महाभारत युद्ध के बादर् इ.पू. ३१३६ मंे वासुदेव श्रीकृष्ण ने मिथिला के राजा बहुलाश्व से मिलने आये थे और्रर् इ.पू. ३१३१ में श्री कृष्ण ने बारह वर्षके लिए मानसरोवर का यात्रा किया था। नेपाल के इतिहासविद् स्वयं कहते है कि नेपाल का लिखित इतिहार्सर् इ.पू. ९०० से ही पढ्ने को मिलता है। अर्थात्, उस से पहले नेपाल शब्द का भी उत्पति नहीं था और इस मंे नेपाल के पहाडी समुदाय वाले भी अपना नयाँ तर्क नहीं पेश कर पा रहें हैं जो विश्व इतिहास पर आधारित हो। महाभारत महाकाव्य में आज का काठमाण्डू घांटी के प्रवेशद्वार जो थानकोट कहलाता है, वह किसी दानासुर या वाणासुर राक्षसराज का निवास था जिस से श्री कृष्ण को लर्डाई लडने पडी थी और उन की कन्या को अपने पोते का विवाह कर बहु बनाने वास्ते हरण किया था। क्योंकि श्री कृष्ण को मानसरोवर जाने के लिए रास्ता काठमाण्डू घांटी से ही जाना परा होगा और हाँ, यह भी उल्लेखित है कि आज का काठमाण्डू घांटी का पहाड को श्री कृष्ण ने ही अपने चक्र सर्ुदर्शन से काटकर इस दह का पानी को बहा दिया और इस तरह पानी बह जाने पर सांप, बिच्छू जैसे जलचर भी निकल गए और मनुष्य के रहने योग्य बह बन गया। कहा जाता है कि उस वक्त श्री कृष्ण के साथ आये लोग ग्वाला सब ही बसोवास आरम्भ किया था जो नेपाल के वर्तमान इतिहास मंे पढ्ने का सौभाग्य मिलता है कि नेपाल का आदि राजालोग गोपालवंशी ही थे। हां, यहाँ पर नेपाल के कुछ पहाडी समुदाय वाले लोग श्री कृष्ण के इस कार्य को चुनौती देकर चीन के नागरिक मञ्जुश्री को यह श्रेय देते हैं कि वही काठमाण्डू घांटी के दक्षीणवाले चोभार पहाड को काटकर पानी बहा कर इसे बस्ती योग्य जगह बनायीं। हमे ध्यान मंे रखना होगा कि नेपाल मंे तिब्बेतीर्-बर्मन और्रर् इन्डो-आर्यन दो जाति के लोग रहते हैं। मधेशी लोगर् इन्डो-आर्यन हैं। इसलिए यहाँ पर तीव्र प्रतिस्पर्धा इतिहासकाल सेे ही चलता आ रहा है। ऐसा डा. पाण्डेय की किताब में वर्ण्र्ााकिया गया है कि त्रेतायुग में ही अर्थात् श्री राम का विवाह मिथिला का राजा जनक की पुत्री सीता से हुवा था और लक्ष्मण पुत्र चन्द्रकांत को श्री राम ने मल्लभूमी राज्य करने को प्रदान किया जो बाद में उत्तरकोशल के नाम से प्रसिद्ध हुवा। द्वापरयुग मेर्ंर् इ.पू. ३१३८ में महाभारतयुद्ध जब हुवा तो भीमसेन को पूरव दिशा में विजय यात्रा पर भेजा गया और उन्होंने बिन्ध्याचल, अयोध्या, मल्लदेश, काश्मिर, मेघालय, कौशाम्बि, भागलपुर, वर्दमान, मिथिला -जनकपुर), किराँत राज्य -दाजिर्ीलंग), राजगृह, मंुगेर, गंगासागर, ब्रम्हपुत्रनदी जीता था। इस तरह इतिहास में कब नेपाल शब्द आया वह जानने को बहुत करीब से मौका हमें मिलता है। जय श्री कृष्ण !
इस के बाद में डा. धिरेन्द्र वर्मा का मध्यदेश किताब और हिन्दीभाषा और लिपी मंे पढें तो मध्यदेश का नक्सा ही उपलब्ध है और उस का सही वर्ण्र्ााभी। फिर काशी प्रसाद श्रीवास्तव के नेपाल की कहानी, रघुनाथ ठाकुर ‘मधेशी’ का परतंत्र मधेश और उसकी संस्कृति जिस मे उन्होंने विश्व के अन्य लेखक और उन का कार्य का अनुवाद -जैसे ः जर्मनी के मैक्स मूलर, आई बी हर्नर आदि) किया है, नेपाल के लेखक सर्ूर्यीवक्रम ज्ञवाली के किताब पृथ्वीनारायण शाह, १९४०, पृष्ठ ५७ से ६० और ६८ पर तथा मेरा अपना स्वयं का एक किताब नचिनिएका नेपालीहरु -अपरिचित नेपाली, सन २००७ में) ए सब आज के नेपाल मंे इस नेपाल से पहले से मिथिला या, बृहत अर्थ में कहा जाय तो मधेश का रुप परिचय मिलता हैं।
लेखक धर्मानन्द कोसाम्बी के किताब भगवान बुद्ध ः जीवन एवं दर्शन मे गणतान्त्रिक मल्ल राज्य वज्जी का पूरव और कोसल देश को पश्चिम मंेे था। यही बाद मंे पावा के मल्ल और कुशिनारा के मल्ल कर दो भाग में बंट गया। प्राचिनकाल के नेपाल के मिथिला, इन मल्ल राज्यों आदि को ही डा. कृष्णनारायण पाण्डेय ने विराट् नेपाल कहा है।
अंग्रेजों ने जब प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को कुचलना चाहा तो उस वक्त नेपाल में शाहीवंश के राज्य पर राणा परिवार का ग्रहण लग चुका था। उस वक्त राणाशासन के हर्ताकर्ता सब नेपाल से सैनिक भारत में पठाए और वे सैनिक अंग्रेजी हुकुमत को सहयोग किया और स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचल डाला जिस में नेपाल के आममधेशी लोग का कोइ हाथ नहीं था। उस के बाद सुगौली सन्धि, स्मरण पत्र ८ दिसम्बर सन १८१६ धारा २ और ७, १ नोवेेम्बर सन १८६० द्वारा नेपाल के राप्ति से लेकर महाकाली से पूरब और हाल के नेपाल-भारत सीमा चिन्ह दशगजा से उत्तर ब्रिटिश-भारत सरकार ने दिया हुवा भूमि इनाम, सन १९५० के सन्धि का धारा ८ वाली बात का रर्ेकर्ड सारांश निबन्धन संख्या १३०२, संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर में ग्यारहवां अध्याय का अनुच्छेद ७३ अनुसार तर्राई अस्वाशी भू-भाग है -सं.रा.सं। प्रकाशन क्त्रम्एत्रक्भ्च्।ब्रठघज्ञ च्भ्ख्।ज्ञ अंग्रेजी पृष्ठ ८, १ अप्रिल सन १९५७ मे छापे गए­)। अंग्रेजों ने नेपाल के मधेश भूमि को समथर देखकर तर्राई अंग्रेजी शब्द में सन्धिपत्र पर लिख डाला। नेपाल के अखिल नेपाल जनतान्त्रिक तर्राई मुक्ति मोर्चा के जयकृष्ण गोइत और नागेन्द्रसिंह पासमान -ज्वाला सिंह) इसि को लेकर तर्राई को पृथक राज्य नेपाल से बनाना चाहते हैं। वास्तव में देखाजाय तो इतिहास में राणाशासन से लेकर राजा महेन्द्र यानि कि कुछ ४०,५० वर्षपहले तक नेपाल के विभिन्न मुलुकी ऐन के अध्यायों में जैसे अदालती बन्दोबस्त, बही बुझनेको, रुख काट्नेको, सट्टा-पट्टाको इन सब में तर्राई नाम का उच्चारण तक नहीं, बल्कि मधेश है। इस तरह आज के वर्तमान मधेश को नेपाल में देखाजाय तो नेपाल के दक्षिणि हरियाली उब्जाव जमिन जो समथर है, वे २४ जिले का एकत्रित भूमि है। नेपाल के कुछ थारु समुदाय, चुरेभावर क्षेत्र के लोेग और कुछ पहाडी समुदायवाले मधेश शब्द को तर्राई में उल्झाकर मधेशी कोे नेपाल में मधेश कहाँ है – वह तो भारत में है और तुम लोग भारतीय हो कह कर उस के मांग पर परदे डालने का इन्तजाम किया जा रहा है।
इस छोटे से इतिहास में जो लोग कालान्तर में आए औैर मधेशी लोगों से शासन सत्ता ही नहीं, बल्कि उनका भाषा अधिकार क्षेत्र, सम्पत्ति, राज्य में बर्चस्व हर कुछ छिन लिया गया, वे मधेशीलोग आज नेपाल में अराष्ट्रिय माने जाते हैं और उन्हें राज्य के प्रशासन, सेना, प्रहरी, संवैधानिक निकाय, विश्वविद्यालय के उच्च पदाधिकारी, अदालत और पढाइ होने वाले पाठक्रम के चयनकर्ता, विदेेशी कुटनीतिक नियोग राजदूत जैसे में, नेपाल केे आदिवासी औैर जनजाती के लिस्ट में कहिं पर नहीं ससम्मान भेजा जाता या रखा जाता है। मधेशी से ही शासनसत्ता इतिहास में छिनलिए ये गैरमधेशी या पहाडी समुदाय के लोग नेपाल के नागरिकता तक आसानी से मधेशी को नहीं देते है। नेपाल में चाहे सन १९५० में राजा त्रिभुवन ने लाया प्रजातन्त्र या फिर सन १९९० में हुवा प्रजातन्त्र का पर्ुनर्वहाली या फिर पिछले वर्षों में दिल्ली में नेेपाल के सात राजनैतिक दल और तत्कालीन हथियारधारी माओवादी नक्सली के बीच हुए बारह बँुदे सम्झौता के तहत सन २००६ अप्रिल २४ तारिख को नेपाल में आये लोेकतन्त्र की बात हो, उन सभी में मधेशीलोग सक्रियता पर्ूवक भाग लेते आरहें हैं, शहीद भी होते रहे हैं, परन्तु उन का अधिकार के मामले में फिर सभी पहाडी लोग एक होकर अंगूठा दिखला देते हैं। शायद इसी कटु अनुभव से सन २००७ फरवरी १९ तारिख को लहान शहर में मधेशी समुदाय सब अपनी मांग को नेपाल के अन्तरिम संविधान में रखाजाय पर कर रहे सडक संर्घष्ा पर एकीकृत माओवादी के मधेशी नेता के असन्तुलित व्यवहार से रमेश महतो एक विद्यालय के छात्र को शहीद होना पडÞा और वर्षों से गुमसा हुवा मधेशी आवाज विस्फोट का रुप लिया जो मधेश के हरेक गांव तक फैल गया और उस की शुरुवात जो भी किये हो, मधेश के हरेक पार्टर्ीीे आममधेशी भी सडक पर आ पहँुचे। इस तरह वह स्वतन्त्रता आन्दोलन का रुप ले लिया। हाँ, माओवादी के दश वर्षका सशस्त्र द्वन्द्व जरुर माओवादी और मधेशी का आवाज को राज्य में बुलन्द किया था पर माओवादी द्वन्द्व से हुवा उसी के कुछ पर्ूव नेता और वर्तमान नेेता के बीच का व्यक्तित्व का टकराव होकर वह लहानवाली घटना हो गयी। फिर मधेशी के आन पर रौतहट जिले के गौैर नगरपालिका मंे सन २००७ मार्च २१ त्ाारिख को हुए हिंसात्मक संर्घष्ा में कुल २९ माओवादी नक्सली मारे गए।
आज मधेशी का मांग समग्र मधेश एक स्वायत्त प्रदेश को ओझेल मेें डालने के लिए ए पहाडी बहुलवाले कांग्रेस, एमाले, माओवादी, राप्रपा जैसे दल मधेश को बहुप्रदेश में बांटना चाहते हैं, तो कोइ नेपाल के नक्सा को उत्तर-दक्षिण यानिकि उपरनीचे विभाजन कर मधेेश को टुकडेटुकडे करना चाहते हैं। ताकि सब मधेशी कभी एक न हो पाएं और हम पहाडीलोगों का उन पर आधिपत्य हमेशा जमा रहे। इन सभि के बावजूद भी मधेशी जनता को आंख में धूल झोंका जा रहा है। मधेशवादी दल के नेेतागण भी संविधानसभा निर्वाचन के पश्चात हरेकवार कांग्रेस, एमाले और माओवादी के साथ सत्ता का शयर करते हैं, हरेक बार मधेशी का मांग पूरा कराने के वास्ते कुछ बँुदा वाली सम्झौते किए जाते हैं पर मांग सम्बोेधन नहीं हो पा रहा है।
मधेश एक प्रदेश का आधार मधेश में उब्जाऊ जमीन, धार्मिक और पर्यटकीय स्थल, कृषि व हुलाक पक्कि सडक, शिक्षा, नेपाल का सवर्ाीधक भन्सार कर उठने वाली बहुत सेे नाकाऐं आदि हैं। त्रिभुवन विश्वविद्यालय के साठ आंगिक क्याम्पस में से कुछ मधेश मे हैं जिसे कल्ह विश्वविद्यालय का रुप दिया जा सकता है तो फिर राजषिर् जनक विश्वविद्यालय, लुम्बिनी विश्वविद्यालय सब भी हैं या हो सकते हैं। मधेशी कोे आज अपना मधेशी का परिभाषा बनाकर मधेशवाद को शिक्षा में रखकर अपना संस्कृति, भाषा का संरक्षण हेतु शब्दकोष, व्याकरण आदि बनाने हैं। वहीं केन्द्र सरकार के प्रतिस्पर्धा में अपना शिक्षालय, पाठक्रम चयन कर मधेश का आर्थिक प्रगति, रोेजगार सिर्जना कर के उन्नति के मार्ग पर चलना है। आज मधेश के प्राकृतिक स्रोत साधनों कोे राज्य प्रयोग में लाता है पर मधेश को विकास के लिए बजेट भीक्षाट के रुप में दिया जाता है। हाँ, मधेश प्रदेश में रह रहे पहाडी समुदायवालों की हकहीत के लिए जनसंख्या के आधारपर समानुपातिक प्रतिनिधित्व या लोप हो रहे जात या समुदाय के संरक्षण के लिए कोटा निर्धारण या फिर आरक्षण की व्यवस्था किया जा सकता है। वहीं पे मधेश के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए अपना प्रान्तिय या प्रादेशिक अदालत, योजना नीति निर्माण की जरुरत है। अतः आत्मनिर्ण्र्ााका अधिकार सहित मधेशियों को इस नेेपाल में संघीयता सहित समग्र मधेश-एक स्वायत्त प्रदेश की जरुरत है।

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