लोकतंत्र की उलझन: मजबूरी या जरूरत : प्रेमचन्द्र सिंह
प्रेमचंद्र सिंह, लखनऊ । 21 वीं सदी का लोकतंत्र राजनीतिक उन्माद की तूफानों के बीच खड़ा है। सत्ता के गलियारों में छिपी साजिशें और अनिर्वाचित चेहरों की गुप्त शक्ति ने जनता के विश्वास को हिलाकर रख दिया है। यह कहानी केवल अमेरिका की नहीं, बल्कि भारत जैसे विशाल लोकतंत्रों की भी है, जहां सत्ता का खेल कभी-कभी जनता की नजरों से ओझल रहता है। आइए, इस कहानी को एक ऐसी सशक्त दास्तान के रूप में सुनते हैं, जो हमें चेतावनी देती है, प्रेरित करती है और लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक नया रास्ता भी दिखाती है।

सत्ता का छिपा चेहरा नीरा टंडन –
अमेरिका, विश्व का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र होने का दावा करने वाला देश है। वहां एक भारतीय मूल की महिला, नीरा टंडन जी, सत्ता के केंद्र में एक ऐसी ताकत बनकर उभरी, जिसे कोई जनादेश नहीं था। एक बंद कमरे में, अमेरिकी कांग्रेस के सामने, नीरा टंडन जी ने एक सनसनीखेज खुलासा किया है। वह राष्ट्रपति जो बाइडेन के नाम पर ऑटोपेन चला रही थीं। यह कोई साधारण कलम नहीं थी, यह वह हस्ताक्षर था, जो कार्यकारी आदेशों, कानूनों और अरबों डॉलर के संघीय खर्च को दिशा दे रहा था। नीरा टंडन जी, जो न तो निर्वाचित थीं, न ही सीनेट द्वारा किसी बड़े पद के लिए स्वीकृत की गई थीं, फिर भी वह एक छद्म राष्ट्रपति की तरह शासन कर रही थीं। गैर- लाभकारी संगठनों (NGOs) का एक पक्षपातपूर्ण नेटवर्क उनकी उंगलियों पर नाच रहा था। यह खुलासा एक तमाचा था अमेरिकी लोकतंत्र के चेहरे पर। जनता को विश्वास था कि राष्ट्रपति जो बाइडेन उनके चुने हुए नेता हैं, लेकिन सत्ता की असली बागडोर नीरा टंडन जी जैसे अनिर्वाचित व्यक्ति के हाथों में थी। यह कहानी भारत के लिए भी एक आइना है। हमारे इतिहास में भी ऐसी मिसालें हैं, जहां सत्ता की डोर अनिर्वाचित लोगों ने थामी और लोकतंत्र की आत्मा को चुनौती दी।

भारत में सत्ता के पीछे की सत्ता –
भारत का लोकतंत्र भी इस छिपी सत्ता से अछूता नहीं रहा। दो नाम इस कहानी में सबसे ज्यादा गूंजते हैं – श्रीमती सोनिया गांधी और श्री बृजेश मिश्रा। ये दोनों अनिर्वाचित थे, फिर भी इन्होंने सत्ता के केंद्र में अपनी ताकत का लोहा मनवाया। वर्ष 2004 से 2014 तक, यूपीए सरकार के दौर में, भारत ने एक अनोखा प्रयोग देखा। श्री मनमोहन सिंह, एक सम्मानित अर्थशास्त्री और नौकरशाह, औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री थे, लेकिन असली सत्ता का केंद्र था 10 जनपथ – सोनिया गांधी जी का आवास। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) के जरिए सोनिया गांधी जी ने नीतियों को आकार दिया, कानूनों को दिशा दी और अपने वैचारिक एजेंडे को लागू किया। एनएसी को एक समानांतर सरकार कहा गया, जिसकी संवैधानिक वैधता पर सवाल उठे। सोनिया गांधी जी ने न केवल नीतियां बनाईं, बल्कि अपने सहयोगियों और एनजीओज (NGOs) को सशक्त किया, जिससे कुछ खास समूहों को लाभ पहुंचा। यह कोई रहस्य नहीं था कि भारत का असली शक्ति केंद्र प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं, बल्कि 10 जनपथ था। यह एक ऐसी सत्ता थी, जिसे जनता ने नहीं चुना, फिर भी वह देश की दिशा तय कर रही थी।
श्री बृजेश मिश्रा की एक राजनयिक से सत्ता का सूत्रधार बनने की वाक्या भी भारतीय राजनीति में कम दिलचस्प नहीं है। वर्ष 1998 से 2004 तक, एनडीए-1 सरकार में, बृजेश मिश्रा जी ने एक अलग तरह की सत्ता संभाली। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, एक करिश्माई और प्रिय नेता, ने मिश्रा जी को अपने प्रधान सचिव और भारत के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) के रूप में अभूतपूर्व शक्तियां दीं। श्री मिश्रा न केवल सलाह देते थे, बल्कि कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करते थे और वाजपेयी जी की ओर से बड़े फैसले लेते थे। जैसे-जैसे वाजपेयी जी का स्वास्थ्य कमजोर हुआ, मिश्रा जी की ताकत बढ़ती गई। वह वाजपेयी जी की आवाज बन गए, नीतियों को लागू करने और गठबंधन की जटिलताओं को संभालने में माहिरियत का दावा पेश करने लगे। लेकिन उनकी यह शक्ति विवादों से घिरी रही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भाजपा के कई दिग्गजों ने मिश्रा जी की नीतियों को पार्टी के वैचारिक एजेंडे के खिलाफ माना। 23 पार्टियों के गठबंधन की कमजोरियां और मिश्रा जी की बढ़ती शक्ति ने लोकतंत्र की पारदर्शिता पर सवाल खड़े किए।
लोकतंत्र की चुनौतियां –
नीरा टंडन जी, सोनिया गांधी जी और बृजेश मिश्रा जी की कहानियां हमें एक कड़वी सच्चाई से रूबरू कराती हैं – अनिर्वाचित शक्तियां लोकतंत्र को खोखला कर सकती हैं। भारत और विश्व के अन्य लोकतंत्रों के लिए ये कहानियां न केवल चेतावनी हैं, बल्कि एक नई शुरुआत का आह्वान भी हैं। लोकतंत्र का आधार जनता का जनादेश है। अनिर्वाचित व्यक्तियों को सत्ता की बागडोर थामने की इजाजत देना संविधान के साथ विश्वासघात है। अमेरिका और भारत दोनों को ऐसे कानून और तंत्र चाहिए, जो यह सुनिश्चित करें कि सत्ता हमेशा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में रहे। नीरा टंडन जी ने गुप्त रूप से ऑटोपेन चलाया और भारत में एनएसी जैसे तंत्रों ने भी पारदर्शिता की कमी दिखाई। नीतिगत फैसलों और वित्तीय आवंटन में पूर्ण पारदर्शिता अनिवार्य है। एक स्वतंत्र निगरानी तंत्र बनाना होगा, जो जनता को सरकार की हर निर्णय की सच्चाई से वाकिफ कराए। बृजेश मिश्रा जी के दौर में भाजपा के वैचारिक एजेंडे से समझौता हुआ। नेतृत्व को अपनी दृष्टि स्पष्ट रखनी होगी और अनिर्वाचित सलाहकारों को नीतियों को हाईजैक करने से रोकना होगा।
सोनिया गांधी जी की एनएसी ने संसद की सर्वोच्चता को कमजोर किया। भारत को ऐसी संस्थायें चाहिए, जो कार्यकारी शक्ति को संतुलित करें और अनिर्वाचित व्यक्तियों के प्रभाव को सीमित करें। संसद, न्यायपालिका और अन्य स्वतंत्र संस्थाओं को और मजबूत करना होगा। नीरा टंडन जी का खुलासा तब हुआ, जब वह गवाही देने को मजबूर हुईं। भारत में भी जनता को सत्ता की सच्चाई जानने का हक है। मीडिया, सिविल सोसाइटी और नागरिकों को ऐसी अनियमितताओं को उजागर करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। नेतृत्व की सक्रियता का अभाव मुख्यतः इनके केंद्र में दिखता है। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जो बाइडेन और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कमजोर स्वास्थ्य ने अनिर्वाचित व्यक्तियों को मौका दिया। नेतृत्व का चयन पारदर्शी और जवाबदेह होना चाहिए, ताकि सत्ता हमेशा सक्षम और सक्रिय हाथों में रहे।
निष्कर्ष –
लोकतंत्र कोई मजबूरी नहीं, बल्कि जनता की जरूरत है। नीरा टंडन जी, सोनिया गांधी जी और बृजेश मिश्रा जी की कहानियां हमें सिखाती हैं कि सत्ता का हर निर्णय जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। अमेरिकी और भारतीय लोकतंत्र को एक ऐसी व्यवस्था चाहिए, जहां सत्ता जनता की आवाज हो, न कि छिपे हुए हाथों की कठपुतली। आइए, हम एक ऐसे राष्ट्रतंत्र का निर्माण करें, जहां लोकतंत्र न केवल जीवित रहे, बल्कि फले-फूले। यह हमारा कर्तव्य है, हमारी जिम्मेदारी है और हमारी भावी पीढ़ियों के प्रति हमारा उत्तरदायित्व भी है। एक सशक्त, पारदर्शी और जन-केंद्रित लोकतंत्र ही भारत सहित विश्व के अन्य लोकतांत्रित देश 21 वीं सदी में वैश्विक नेतृत्व की दिशा और दशा तय कर पाएगा। यह कहानी खत्म नहीं हुई है – यह एक नई शुरुआत है, एक ऐसे लोकतंत्र की, जो जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा हो।
“कहते हैं वोट से बदलेगी तक़दीर मेरी,
पर हर बार वही चेहरे, वही तदबीर मेरी।
लोकतंत्र है मगर आवाज़ दबाई जाती है,
ये कैसी आज़ादी है जो मजबूरी बन जाती है”
