क्या प्रधानमन्त्री को अपना ४० सुत्रीय कार्यक्रम याद हैं:
रामाशीष
माओवादी प्रधानमंत्री पंडित बाबूराम भÍरार्इ और प्रधानमंत्री की गद्दी से खिसकाए चुके माओवादी प्रधानमंत्री पंडित पुष्पकमल दहाल ‘प्रचण्ड में एक मौलिक अन्तर अवश्य दिखता है। और वह है, नेपाल-भारत संबंधों की वास्तविकता की पहचान की। पंडित ‘प्रचण्ड , जब भारतीय राष्ट्रीय झंडे एवं प्रतीकों को जूते में डाला हुआ पोस्टर चिपकाकर, नेपाल-भारत सीमा पर प्रखर भारत विरोधी रैलियां आयोजित कर रहे थे, भारत के विरोध में तरार्इवासियों को भड़का रहे थे, ठीक उसी समय पंडित बाबूराम भÍरार्इ पोखरा सहित देश के विभिन्न पहाड़ी नगरों में ”यह बता रहे थे कि जब हमें मालूम है कि यदि भारत ने केवल एक आइटम नमक ही, नेपाल में भेजना बन्द कर दे तो उससे उत्पन्न सिथति का हम नहीं कर सकते। तो फिर हमारे नेता भारत विरोधी घृणा अभियान में क्यों लगे हुए हैं ?
लेकिन, इसके विपरीत एक और आवाज भी नेपाल के बौद्ध-भिक्षु सूत्रों से सुनने को मिला है – पुष्पकमल दहाल, कहीं चीन के आर्थिक सहयोग और चीनी प्रधानमंत्री के भारी समर्थन सेे अरबो-खरब रुपये की विकास-योजना के साथ लुमिबनी प्रवेश कर, ‘भगवान बुद्ध के तिब्बति अनुगामी पंचेन लामा बनने के पथ पर तो नहीं चल पड़े हैं ? इस सिथति में नेपाल-भारत की आम जनता तथा भारत सरकार के सामने भी यह सवाल खड़ा हो गया है – क्या नेपाल के मओवादियों पर विश्वास किया जाए ? क्या, पलंग के बगल में रखे हुए माओत्से तुंग की मूर्ति की आरती उतारवाले बाबूराम भÍरार्इ की मधुर-भारत-वाणी पर विश्वास किया जाए ? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योकि नेपाली माओवादियों का एक बहुत ही सशक्त अंग, मोहन बैध समूह ने खुल्लमखुल्ला भारतीय माओवादियों का समर्थनयुक्त वक्तव्य पार्टी के आधिकारिक लेटरपैड पर जारी कर दिया है और भारतीय माओवादी नेता किसनजी की मौत को मुठभेड़ में मारे जाने की संज्ञा देते हुए, उसकी निष्पक्ष जांच कराने की मांग कर डाली है। क्या, बाबूराम-प्रचण्ड वाणी, चाउ-नेहरू ‘हिन्दी-चीनी : भार्इ-भार्इ के नारे का पूर्वाभ्यास तो नहीं है ?
घटना सन 1994 की है। नेपाल में 046 साल(1990) के सफल जनआन्दोलन के बाद गठित नेपाली कांग्रेस नेता गिरिजा प्रसाद कोइराला-नेतृत्व की सरकार मात्र साढ़े तीन वर्ष में अपनी ही पार्टी में फूट के कारण धराशायी हो चुकी थी। मध्यावधि चुनाव भी कराए जा चुके थे और प्रमुख विपक्ष नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) की अल्पमत सरकार, पार्टी अध्यक्ष मनमोहन अधिकारी के नेतृत्व में गठित हो चुकी थी। बहुदलीय संसदीय प्रणाली की सरकार के द्वितीय प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने अपने प्रथम राजकीय भ्रमण का केन्द्रविन्दु भारत को बनाया था। तदनुसार वह नर्इ दिल्ली के लिए प्रस्थान करने ही वाले थे कि ठीक दो दिन पहले भारतीय समाचार एजेन्सी यू.. एन.. आर्इ. के संवाददाता दीपक गोयल और भारतीय दैनिक नवभारत टाइम्स का संवादाता मैं ‘अपने कर्टेन रेजर (पृष्टभूमि) समाचार के लिए प्रधानमंत्री मनमोहनजी का इन्टरव्यू करने बालुवाटार सिथत प्रधानमंत्री निवास पहुंचा था।
यधपि हम दोनों ही पत्रकार, भेंटवार्ता के लिए प्रधानमंत्री सचिवालय द्वारा दिए गए समय पर ही सुबह-सुबह प्रधानमंत्री निवास पहुंचे थे, फिर भी, मुझसे पहले से किसी अन्य मुलाकाती (विजिटर) से हो रही बातचीत समाप्त नहीं होने के कारण, हम दोनों को विजिटर रूम में, बैठने को कहा गया था। वहां मुझसे से पहले से एक और व्यकित अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे जिनके बारे में बाद में पता चला कि वह नेपाल के जानेमाने बुद्धिजीवी हिमालय शमशेर थे।
ठीक उसी वक्त एक स्मार्ट युवती के साथ एक स्मार्ट युवक भी वहाें आ धमके। वह युवक और कोर्इ नहीं, बलिक कम्युनिस्ट सांसद डा. बाबूराम भÍरार्इ और स्मार्ट युवती पम्फा भुसाल थीं। इन दोनों ही व्यकितयों को हमलोग पहचानते थे लेकिन कभी उनसे बातचीत करने का अवसर नहीं मिला था। उनलोगों के हाथ में कुछ पर्चे भी थे। उनके आसन ग्रहण करते ही मेरे मित्र गोयल जी ने उनसे पूछा कहिए भÍरार्इ जी, कैसे आना हुआ। उत्तर मिला, प्रधानमंत्री भारत जा रहे हैं इसलिए उन्हें एक ज्ञापन देने आया हूं। गोयल जी ने कहा ‘तो फिर हमलोगों को भी दीजिए न, उसकी कापी। भÍरार्इ जी ने कहा नहीं, नहीं, प्रधानमंत्री जी को देने के बाद आपलोगों को दूंगा। तो मैंने कहा भÍरार्इ जी हमलोग यहीं से तो आपके ज्ञापन की खबर को नहीं भेज देंगे, आखिर यहां से लौटने के बाद ही तो भेजेंगे, इसलिए हमें एक कापी देने में कोर्इ हर्ज नहीं। इसके बाद भÍरार्इजी ने हम दोनों लोगों को ज्ञापन की एक-एक प्रति दी।
उस ज्ञापन में कुल चालीस मांगें की गर्इ थी और सबसे पहली मांग थी 1950 में हुर्इ नेपाल-भारत शानित एवं मैत्री संधि की खारिजी। उसके बाद की लगातार छह मांगें नेपाल-भारत संबंधों से संबंधित थी तथा उन सभी में भारत संबंधी आक्रोश ही था। सरसरी तौर पर ज्ञापन पढ़ने के बाद गोयल जी ने पूछा भÍरार्इ जी, अभी आप कम्युनिस्टों की सरकार है। मनमोहन जी प्रधानमंत्री और माधव कुमार नेपाल विदेश मंत्री हैं। इसलिए क्यों नहीं इसी भ्रमण के दौरान भारत को 1950 की नेपाल-भारत संधि खारिज करने की एक साल की नोटिस देने को कहते हैं ? भÍरार्इ जी गुमसुम बैठे रहे। लगभग पांच मिनट के बाद गोयल जी ने फिर दोहराया, भÍरार्इ जी आप तो कुछ बोल ही नहीं रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम भारतीय नागरिक एवं पत्रकार भी वर्षों से यह सुनते-सुनते थक चुके हैं कि सन पचास की संधि नेपाल-हित-विरोधी है, इसे खारिज किया जाना चाहिए। इसलिए यही अच्छा अवसर है जब नेपाल-भारत मैत्री संधि को सदा-सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है। भÍरार्इ जी फिर चुप रहे।
चूंकि, भÍरार्इ जी मेरे ही बगल में बैठे थे, इसलिए मुझसे चुप नहीं रहा गया, मैंने अपने नोटबुक पर एक वर्गाकार कमरे का चित्र बनाकर, कहा देखिए भÍरार्इ जी, यह एक कमरा है और इसमें दो दरबाजे हैं। हम दोनों ही इस कमरे में रहते हैं और हम दोनों के पास एक-एक चाभी है। हमलोगों के बीच एक समझदारी है कि जरूरत के अनुसार हम अपनी चाभी से कमरा खोलकर उसका उपयोग करेंगे। वैसी सिथति में यदि मैं आपसे इस बात पर अड़ जाउं कि ‘भÍरार्इ जी आप ही अपनी चाभी से दरबाजा खोलें, तो बताइए यह कितना उचित होगा ? आप कम्युनिस्टों की सरकार कायम है ही, प्रधानमंत्री पद पर प्रखर भारत विरोधी प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी बैठे हुए हैं ही, तो फिर क्यों नहीं भारत को एक नोटिस भेजकर 1950 की संधि को रद्द करने को कहते हैं ? भÍरार्इ जी ने कहा हमलोग तो संधि को भारत के द्वारा ही री-भ्यू अर्थात पुनरावलोकन करने की बात कह रहे हैं। मैंने कहा, वास्तविकता तो यह है कि संधि में ‘पुनरावलोकन शब्द कहीं लिखा ही नहीं है, उसमें तो नेपाल और भारत, दोनों ही पक्षों में से किसी एक पक्ष के द्वारा खारिज की नोटिस जारी किए जाने के एक वर्ष के बाद, संधि के स्वत: खारिज हो जाने की बात कही गर्इ है। इसके बाद भÍरार्इ जी फिर गुमसुम होकर बैठे रहे।
कुछ देर बाद हम दोनों ही ने उन्हें फिर कुरेदा और कहा कुछ बोलिए तो सही भÍरार्इजी। इसपर भÍरार्इ जी झल्लाते हुए भभक पड़े और कहना शुरू किया – देखिए, क्या आपलोगों को पता नहीं है कि राजीव गांधी ने नेपाल की क्या दशा कर दी थी ? सन 1989 में नेपाल की आर्थिक नाकाबंदी किए जाने के बाद देश भर की जनता को कैसी यातनाएं भोगनी पड़ी थी ? एक लीटर किरासन तेल के लिए भी लोगों को रात-रात भर लार्इनों में खड़़ा रहना पड़ता था। इसलिए हमलोग भारत से ही संधि का पुनरावलोकन करने को कह रहे हैं ”'(हेनर्ुहोस, के तपार्इंहरूलार्इ थाहा छैन, राजीव गांधीले के गरि दियो ? नेपालको आर्थिक नाकाबंदी गरे पछि, देशभरिको जनतालार्इ कुन यातना भोग्नु प¥यो ? के एक लीटर मÍतिेलकोलागि पनि मान्छेले रात-रातभरि लाम लाग्नु परेको थिएन ? यसैले हामीले भारत द्वरा नै संधिको पुनरावलोकन गराउने पक्षमा छौं)।
इसपर मैंने कहना शुरू किया, देखिए भÍरार्इ जी, ‘चीं-चीं र मी-मी दोनों एक साथ नहीं हो सकता। सुविधा भी चाहिए और ‘आपलोगों का ”राष्ट्रीय स्वाभिमान भी – दोनों की उमीद नहीं करनी चाहिए आप ‘स्वाभिमानी राष्ट्रवादियों को। आप तो जानते ही हैं कि भारत में जब महात्मा गांधी ने जब भारतीयों से बि्रटिश नमक और कपड़े का वहिष्कार करने का आहवान किया तो उन्होंने उसके विकल्प के रूप में समुद्र और झील की पानी से नमक बनाने और चरखा से सूत कातकर बने कपड़ों से गुजर-बसर करने का स्वाभिमानी विकल्प भी दिया आम जनता को। गांधीजी ने तो यहां तक संकल्प कर डाला कि जबकि सम्पूर्ण देशवासियों को शरीर ढकने के लिए वस्त्र नहीं मिलते तबतक वह खुद चरखा द्वारा काते गए धागे से बनी केवल आठ हाथ लम्बी धोती से ही कमर और शरीर ढकने काम लेंगे। इस संकल्प के कारण सूट-टार्इ में सजे रहनेवाले बैरिस्टर गांधी ने आजीवन घुटने से उपर ही धोती पहना और आधी से शरीर ढकने का काम लिया। उन्होंने तो कांग्रेसी आन्दोलन में शामिल सदस्यों तक के लिए भी आठ हाथ लम्बी खादी की धोती पहनना अनिवार्य कर दिया जिस धोती से घुटने के उपर और कंधे से नीचे के शरीर का भाग किसी प्रकार ढक पाता था। इसी प्रकार उन्होंने नमक सत्याग्रह आन्दोलन चलाया जिसके लिए उन्हें वषोर्ं तक जेल यातनाएंं भोगनी पड़ीं। – इसलिए यदि वास्तव में आप नेपाली स्वाभिमान की बात करते हैं तो सबसे पहले भारतीय वस्तुओं के वहिष्कार का नारा दीजिए। अन्यथा, नेपाल-भारत के बीच स्वाभिमान का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि दोनों देशों की जनता के बीच ‘नख-मांस की तरह संबंध है और दोनों ही बेटी-रोटी के रिश्ते और और दोनों ही देशों की जनता पशुपति-रामेश्वरम संबंधों से जुड़ी हुर्इ हैं। इसपर भÍरार्इ चुप रहे – इसीबीच हमलोेगों को प्रधानमंत्री का इन्टरव्यू करने के लिए बुला लिया गया, हमलोग अन्दर चले गए।
इस घटना का प्रसंग हजारो निर्दोष नेपाली नागरिकों की खून से लथपथ उंगलियों के साथ नेपाल के प्रधानमंत्री की गद्दी पर आसीन नेपाल के महा ओजस्वी-तेजस्वी प्रखर व्यकितत्व के धनी (?) डा. बाबूराम भÍरार्इ जी को शायद यह प्रसंग याद नहीं है लेकिन इस प्रसंग के चश्मीद गवाह और वार्ता में शामिल पत्रकार दीपक गोयल अभी जीवित हैं तथा नर्इ दिल्ली में विराजमान हैं – एक सकि्रय पत्रकार के रूप में।
इसीका प्रतिफल हुआ कि भारत-भ्रमण के लिए प्रस्थान करने के पहले, मंसीर 2 गते को जब इन पंकितयों के लेखक ने तीन पृष्टों का एक स्मरणपत्र ”अति तीक्ष्ण स्मरण शकित वाले प्रधानमंत्री डा. बाबूराम भÍरार्इ जी को दिया, तो उसकी कुछ पंकितयों को पढ़ने के बाद, वह झेंप गए और उन्होंनेाउसका उत्तर देने की जगह, टालते हुए धीरे से कहा -‘हो, यो कुरो पुरानो भै सक्यो, कुरो अब धेरै अघि बढि़सक्यो। पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है वह स्मरण पत्र .ंैय क,़ इ,सअच्ऋ
प्रधानमंत्री डा. बाबूराम भÍरार्इ जी,
नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी जी भारत भ्रमण पर जानेवाले थे और उसके ठीक दो दिन पहले नेपाल में कार्यरत भारत के हम दो पत्रकार रामाशीष और यू एन आर्इ के दीपक गोयल प्रधानमंत्री का इन्टरव्यू लेने के लिए इसी भवन की बैठक कक्ष में अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे। उसी समय आप और पम्फा भुसाल जी भी प्रधानमंत्री को एक ज्ञापन देने आए थे। बाद में वही ज्ञापन आपलोगों के ”जनयुद्ध का आधार बना जिसके दौरान लगभग तीस-पैंतीस हजार निर्दोष नेपालियों को जान गंवानी पड़ी।
संयोग ऐसा है कि आज आप खुद इस देश के प्रधानमंत्री हैं और मैं खुद और भारतीय मीडिया के अन्य प्रतिनिधि भारत-भ्रमण पर प्रस्थान के ठीक दो दिन पहले आपसे बातचीत कर रहे हैं। इस अवसर पर हम जानना चाहेंगे कि ”आपके जिन 40-सूत्री उद्देश्यों की प्रापित में इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जान गुमानी पड़ी, उसे पूरा करने के प्रति क्या आप अभी भी दृढ़ संकल्प़ हैंं ? यदि हां तो, उस 40-सूत्री ज्ञापन में पहली मांग थी – सन 1950 की संधि सहित नेपाल-भारत के बीच सभी संधि-समझौंतो को रद्द करना ? 2. सुगौली संधि पर भी सवाल उठाए गए थे। 3. महाकाली संधि को खारिज करने की मांग की गर्इ थी। .4. भारतीय कामदारों के लिए वर्कपरमिट कानून की मांग थी। 5. हिन्दी सिनेमा पर पाबन्दी लगाने की मांग की गर्इ थी। 6.यहां तक कि भारतीय नम्बर प्लेट की गाडि़यों के नेपाल प्रवेश पर रोक लगाने की मांग की गर्इ थी – आदि आदि। उक्त सभी मांगें भारत से संबंधित थीं, क्या आप इन सवालों को भारत सरकार से उठाएंगे ?
यहां प्रश्न, प्रधानमंत्री भÍरार्इ के उक्त सवालों से भागने का नहीं है बलिक इस वास्तविकता को सभी जानने लगे हैं कि नेपाल की शासन सत्ता पर सैकड़ो वर्षो से जमे हुए ‘एक वर्गविशेष – जातिविशेष के शासक, नेपाल और भारत के बीच प्राचीन काल से विधमान बेटी-रोटी के रिश्ते से लेकर आध्यातिमक-प्राकृतिक संबंध तक को तहस-नहस करने के लिए, ‘सन 1950 की नेपाल-भारत शानित एवं मैत्री संधि को एक हथकंडे के रूप में पिछले छह दशकों से प्रयोग करते आ रहे हैं। सन 1950 में 104 वर्षों के तानाशाह राणा शासकों से मुक्त होने के बाद भारत के सहयोग से राजगद्दी के उत्तराधिकारी बने राजा महेन्द्र से लेकर, राजा वीरेन्द्र ज्ञानेन्द्र तक ने सन 1950 की नेपाल-भारत संधि को ‘राष्ट्रीय-स्वाभिमान विरुद्ध बताते हुए, उसे खारिज करने की मांग दोहराते हुए, भोली-भाली नेपाली जनता को बरगलाते रहे जबकि पंचायती से लेकर प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली के दौरान के प्रधानमंत्रियों ने भी ‘सन पचास की संधि विरोध, की आड़ में, शासन सत्ता को बखूबी भोगा। नेपाली नेताओं ने इसकी ही आड़ में प्रखर भारत विरोधी मनसा के चीन, पाकिस्तान, बि्रटेन तथा अमेरिका जैसी शकितयों मनसा का भी बखूबी ‘नगद-पृष्टपोषण किया और आज तक सत्ता का सुख भोगते आ रहे हैं।
आज के नेपाल के शासक शायद उस अत्यन्त संवेनशील घड़ी को भूल गए हैं कि तत्कालीन नेपाली शासक को सन 1950 की संधि कयों करनी पड़ी ? ऐतिहासिक पृष्टभूमि पर सरसरी निगाह डालें तो नेपाल के स्वतंत्र असितत्व की रक्षा के लिए ही संधि करनी पड़ी थी। पहले कारण के रूप में ”नेपाल के एक इतिहासकार ने लिखा है ‘सन 1950 की संधि उस संवेदनशील घड़ी में की गर्इ जब लाखों चीनी नागरिकों की निर्मम हत्याकर बन्दूक की नोक पर सत्ता हथियाने के खूनी-क्रानित में लगे तथा तिब्बत पर कब्जा जमा चुके चीनी नेता माओत्से तुंग ने यह घोषण कर डाली थी कि ”तिब्बत हमारी हथेली है जबकि नेपाल, सिकिकम, भूटान, नेफा और लद्दाख हमारी उुगलियां। इसलिए पहले हथेली तिब्बत को सिथर कर लूं, तब नेपाल, सिकिकम, भूटान, नेफा और लद्दाख जैसी उंगलियों को मोड़ूगा।
माओ त्से तुंग के उक्त खौफ़नाक इरादे का शिकार होने से बचाने के लिए नेपाल को यू एन ओ की सदस्यता दिलाना आवश्यक था और इस कार्य को स्वतंत्र भारत के प्रथम पंधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने हाथ में लिया था। लोग इस तत्य को भी भूल रहे हैं कि पंडित नेहरू के ही अथक प्रयास से नेपाल यू एन ओ का सदस्य बन पाया था। इसके बारे में नेपाली राजनीति विषय के एक अमेरिकी विशेषज्ञ प्रो. इ लीयोरोज ने तो अपनी पुस्तक द डेमोक्रैटिक इनोवेशन्स इन नेपाल में यहां तक लिखा है कि ”भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जब संयुक्त राष्ट्रसंघ में सदस्य दिलाने के लिए नेपाल के आवेदन को प्रस्तुत किया तो तत्कालीन सोवियत संघ ने ‘एक अत्यन्त ही संवेदनशील कारण विशेष की आड़ में अपने विशेषाधिकार का प्रयोग हुए पंडित नेहरू के आवेदन को वीटो कर दिया, अर्थात नेहरू के आवेदन पर विचार करने पर रोक लगा दी। फलस्वरूप, नेपाल को यू एन ओ का सदस्य बनाने का नेहरू का पहला प्रयास असफल हो गया। प्रोफेसर रोज ने कहा है उसके बाद पंडित नेहरू ने नेपाल को यू एन ओ मेम्बर बनाने के आवेदन को दूसरी बार फिर प्रस्तुत किया और सोवियत संघ ने उसे भी वीटो कर दिया। अन्त में पंडित नेहरू ने तीसरे प्रयास के रूप में नेपाल के साथ शानित एवं मैत्री संधि सम्पन्न कर, सोवियत संघ के तत्कालीन नेताओं को मना लिया कि ”भारत, नेपाल को एक सार्वभौमसत्ता सम्पन्न देश मानता है, जिसका प्रमाण ”नेपाल-भारत शानित एवं मैत्री सनिध 1950 है।
आज की तारीख मेाें सन पचास की संधि के असितत्व पर यदि विचार करें तो इस संधि के अधिकांश प्रावधानों को नेपाल एकतरफे रूप में खारिज कर चुका है। संधि के प्रावधानों के अनुसार आज कोर्इ भी भारतीय नागरिक नेपाल में न कोर्इ सरकारी नौकरी पा सकता है और न ही वह, कोर्इ स्थायी सम्पत्ति बना सकता है। जबकि, नेपाली नागरिकों पर भारत में ऐसी कोर्इ भी पाबन्दी नहीं है। हजारो नेपाली, भारत की सरकारी सेवाओं से लेकर अति संवेदनशील भारत की प्रतिरक्षा सेवाओं में बड़े-बड़े पदों पर बने हुए हैं। भारत सरकार का तो यहां तक कहना है कि लगभग 87 लाख नेपाली नागरिक, भारत में रोजगार पाए हुए हैं। जबकि, नेपाल सरकार द्वारा समय समय पर प्रकाशित समाचारों में यह भी बताया जाता आ रहा है कि साल में लगभग 40 लाख नेपाली सिजनल काम करने के लिए भारत के विभिन्न शहरों में आते-जाते रहते हैं। विदेशों से बड़े पैमाने पर हथियार मंगाकर नेपाल, संधि के उस प्रावधान को भी खारिज कर चुका है जिसमें नेपाल, विदेशों हथियार मंगाने की सूचना भारत को देता रहेगा। वास्तविकता तो यह है कि सन पचास की संधि के एक ही प्रावधान अभी तक जीवित बचा हुआ है जिसके तहत नेपाल-भारत सीमा खुली हुर्इ है और दोनों देशों के बीच बेटी रोटी का रिश्ता कायम है। एक तरह से देखें तो भारत एकतरफे रूप में संधि के एक-एक प्रावधान को एकतरफे रूप में मान रहा है। फिर भी, नेपाल के शासक, पिछले छह दशकों से सन पचास की संधि को एक भारत विरोधी घृणा अभियान का हथकंडा बनाए हुए हैं।
संधि के विरोध में उठी आवाजों के सिलसिले को देखें तो एक घटना मुझे याद है। भारतीय कांग्रेस के गांधीवादी नेता राजबहादुर जी नेपाल के राजदूत पद पर आसीन थे। नेपाल-भारत संबंध कटुता के सातवें आसमान पर था। प्रखर चीन-समर्थक तथा प्रजातंत्र के हत्यारा राजा महेन्द्र के जिगर के टुकड़े पंडित कीर्तिनिधि विष्ट, राजकृपा से प्रधानमंत्री की गद्दी पर विराजमान थे। उसी समय राजा की योजना के अनुसार नेपाल-भारत सन पचास की संधि की एक धारा का उल्लंघन करते हुए, विदेशों से कुछ हथियार नेपाल मंगाए गए थे। प्रधानमंत्री विष्ट ने वाहवाही में सार्वजनिक घोषणा करते हुए वक्तव्य दे डाला कि ”मैंने नेपाल-भारत शानित एवं मंैत्री संघि को कूड़े की टोकरी में फेंक दिया। तब नेपाल में संचार माध्यम का उतना अधिक विकास नहीं हुआ था और रेडियो नेपाल एवं गोरखापत्र-रार्इजिंग नेपाल ही एकमात्र जन-सूचना का सहारा था। रेडियो पर प्रसारित समाचार की जानकारी राजदूत राजबहादुर जी को भी मिली और उन्होंने भी आव न देखा ताव, उसी समय घोषणा कर दी की ”नेपाल और भारत के बीच की सीमा खुली हुर्इ है – उसी पचास की संधि के तहत। और अब, जबकि नेपाल के प्रधानमंत्री ने संधि को कूड़े की टोकरी में डाल देने की घोषणा कर ही दी है तो आज रात के बाद नेपाल-भारत सीमा स्वत: बन्द हो जाएगी।
भारतीय राजदूत का यह बयान आल इंडिया रेडियो पर आना था कि सबसे पहले राजदरबार में हलचल मच गर्इ। बताते हैं, उसके बाद राजा महेन्द्र ने प्रधानमंत्री विष्ट को राजदरबार में बुलाकर न केवल फटकार लगायी बलिक तुरंत भारतीय राजदूत से संपर्क स्थापित कर, इस मामले को जोर पकड़ने से रोका और रफा-दफा किया।
सीधे राजा द्वारा संचालित दलविहीन पंचायती शासन प्रणाली के तीस वर्षों के दौरान नेपाल के राजा महेन्द्र, वीरेन्द्र और उनके विष्ट, गिरी, रिजाल, चन्द, मरीचमान जैसे ‘पैलेस-गार्डो और सिपहसालारों ने तो ‘सन पचास की संधि को खरिज करने के नारे का तो लुफ्त लिया ही, साथ ही 1990 के सफल जन-आन्दोलन के बाद स्थापित संसदीय बहुदलीय प्रजातांत्रिक सरकार के नेताओं ने भी समय-समय पर इसका खूब मजा उठाया। यही नहीं, नेपाल में भारत-हितैषी माने जानेवाले सूर्य प्रसाद उपाध्याय और डिल्ली रमण रेग्मी जैसे महान भारत-मित्रों को भी मरने के कुछ ही दिन पहले ”भारत-विरोधी निर्वाण प्राप्त हो गया और वे भी ‘नेपाल-भारत शांति एवं मैत्री संधि का विरेध करने से नहीं चुके। कारण मामूली सा – ‘उनकी ‘अचानक उपजी कुछ इच्छाओं की पूर्ति में भारतीय दूतावास का कथित अवरोध।
और तो और, वाराणसी में जन्मे, पले, बढ़े और पढ़े ‘गंगापुत्र कृष्ण प्रसाद भÍरार्इ एवं ‘बिहार के सहरसा में पैदा हुए गिरिजा प्रसाद कोइराला भी इसमें पीछे नहीं रहे। राजधानी से आम चुनाव हारने के बाद उप-चुनाव में खड़े कृष्णप्रसाद भÍरार्इ ने यहां तक कह डाला कि भारत तो नेपाल को सिकिकम बनाना चाहता है जबकि गिरिजा प्रसाद कोइराला ने विदेश भ्रमण से लौटने के बाद त्रिभुवन हवार्इ अडडे पर पत्रकार सम्मेलन में घोषणा कर दी कि ‘जबतक भारत, कालापानी को नेपाल के सुपुर्द नहीं करता, वह भारत की धरती पर पांव ही नहीं रखेंगे। लेकिन, उसके बाद हुआ क्या, के.पी. भÍरार्इ के प्रधानमंत्री रहते हुए ही पाकिस्तान द्वारा भारतीय विमान का काठमांडू एयरपोर्ट से अपहरण हुआ और गिरिजा प्रसाद कोइराला को आर्यघाट पहुंचने के पहले कितनी बार भारतीय धरती पर पांव रखना पड़ा, वह संख्या भी याद नहीं।
विदेश मंत्री बनने के पहले इसी माधव कुमार ने सन पचास की संधि खारिज करने की मांग तथा ‘तथाकथित भारत समर्थक गिरिजा प्रसाद कोइराला को गद्दी से खिसकाने के आन्दोलन में, अनेकों बार राजधानी की सड़कों को गरमाया तथा तोड़फोड़ किया, कराया। यही नहीं, पार्टी महासचिव मदन भंडारी के कार-दुर्घटना में मारे जाने का दोष भी भारत पर मढ़ते हुए नेपाल बन्द के आयोजन के कराने से भी माधव नेपाल नहीं बाज नहीं आए।
और, इन माओवादियों के ‘विद्रोह एवं जनयुद्ध का तो पहला आधार ही सन 1950 की संधि की खारिजी रहा है, उनके पार्टी दस्तावेज में ‘भारत का स्थान दुश्मन नम्बर एक है और भारत का स्वाभिमान तिरंगा झंडा एवं आशोक-चक्रयुक्त तीन सिंहोंवाला ‘राष्ट्रीय प्रतीक, माओवादियों की नजर में ‘जूते में डालने के योग्य रहा है।
इस रूप में यदि नेपाल-भारत संबंधों का सिंहावलोकन करें तो यही भान होता है कि नेपाल के नेता जबतक गद्दी पर आरूढ़ रहते हैं तबतक भारत-जिन्दावाद का नारा लगता है और गद्दी से हटते ही उन्हें, उनके हटाए जाने में भारत का हाथ दिखने लगता है। उसके बाद वह फिर वही ‘भारत विरोधी महामंत्र का जाप करने लगते हैं। लेकिन हां, प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए उन्हें भारत-विरोधी-जाप का सहारा तो लेना ही पड़ता है, सन पचास की संधि को रद्द करने का नारा लगाना पड़ता ही पड़ता, इस सीढ़ी के सहारा लिए बिना कल्याण नहीं कयोंकि उनकी मानसिक रगों में राजा महेन्द्रद्वारा डाला गया ‘भारत-विरोधी नेपाल राष्ट्रवाद का खून जो दौड़ रहा है।
इसमें भारत विरोध के नये खिलाड़ी माओवादी नेता पुष्पकमल दहाल का तो कहना ही क्या ? आज लोग पूछने लगे हैं क्या उनके ही नेतृत्व में पिछले दस वर्षों तक किए गए नर-संहार के बाद उनका हृदय परिवर्तन हो गया है ? क्या, उन्हें प्रधानमंत्री पद से खिसकने से लेकर बाबूराम भÍरार्इ के प्रधानमंत्री बनने तक ”खुद के नेतृत्व में संचालित ‘भारत विरोध् ाी घृणा अभियान की गलती महसूस हो चुकी है ? क्या, बुद्ध धर्म को विश्वभर में फैलानेवाले मगध सम्राट अशोक के ‘अशोक-चक्र को, जूते में डालकर पोस्टर छापनेवाले पुष्पकमल दहाल बुद्धगामी हो चुके हैं कि वह अरबो रुपये के चाइनीज सहयोग से राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ के जन्म-स्थल लुमिबनी, के विकास में तन-मन से जुट गए हैं ?
40-सूत्री ज्ञापन का हिन्दी अनुवाद
1. सन 1950 की नेपाल-भारत संधि सहित सम्पूण्र् ा असमान संधि-समझौतों को खारिज करनापड़ेगा।
2. राष्ट्रघाती टनकपुर समझौते पर पर्दा डालने और नेपाल के सम्पूण्र् ा जल-सम्पदाओं पर भारतीय विस्तारवाद का एकाधिकार सौंपने के उददेश्य से, 2052 साल माघ 15 गते को सम्पन्न ‘नेपाल-भारत महाकाली संधि के ‘और अधिक राष्ट्रघातीतथा ”दीर्घकालीन दृषिट से अधिक खतरनाकहोने के कारण् ा, उक्त संधि को अविलम्ब खारिज करना पड़ेगा।
3. नेपाल और भारत की ख्ुाली सीमा को नियंत्रित और व्यवसिथत करना होगा। नेपाल के अन्दर भारतीय नम्बर-प्लेट की गाडि़यां चलाने पर अविलम्ब रोक लगानी पड़ेगी।
4. गोरखा भर्ती केन्द्र को रदद करना पड़ेगा और नेपालियों के लिये स्वदेश में ही सम्मानजनक रोजगार की व्यवस्था करनी होगी।
5. नेपाल के विभिन्न क्षेत्रों में काम के लिये स्वदेशी कामदारों को ही प्राथमिकता देनी होगी और विदेशी कामदारों को विशेष अवस्था में काम पर लगाते समय ‘वर्क परमिट प्रथा कोलागू करना होगा।
6. नेपाल में उधोगों से अधिक व्यापार और वित्तीय क्षेत्र में विदेशी एकाधिकार पूंजी का आधिपत्य समाप्त करना होगा।
7. आत्मनिर्भर राष्ट्रीय अर्थतंत्र के विकास को ध्यान में रखकर सीमाशुल्क नीतियों का निर्माण् ा और उसे लागू करना पड़ेगा।
8. साम्राज्यवादी तथा विस्तारवादी संस्कृतिक प्रदूषण् ा अतिक्रमण् ा को समाप्त करना होगा और अनुशासनहीन (आवारा) हिन्दी सिनेमा, वीडीओ तथा पत्र-पत्रिकाओं के आयात और वितरण् ा पर अविलम्ब रोक लगाना पड़ेगा।
9. एन.जी.आ.े और आइ.एन.जी.ओ.के नाम पर देश के अन्दर हो रही साम्राज्यवादी – विस्तारवादी घुसपैठ का अन्त करना पड़ेगा।
10. जनगण् ातंत्रात्मक प्रण् ााली की स्थापना के लिये निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारानये संविधान का निर्माण् ा-नियंत्रण् ा करना पड़ेगा।
11. राजा और राजपरिवार के सभी विशेषाधिकारों को समाप्त करना पड़ेगा।
12. सेना, पुलिस, प्रशासन को पूण्र् ारूप से जनता के नियंत्रण् ा में रखना पड़ेगा।
13. सुरक्षा ऐन सहित सभी दमनकारी कानूनों को खारिज करना पड़ेगा।
14. राजनीतिक प्रतिशोध के कारण् ा झूठे मुकदमों में फंसाकर रुकुम, रोल्पा, जाजरकोट, गोरखा, काभ्रे, सिन्धुपालचौक, सिन्धुली, धनुषा और रामेछाप जिला सहित अन्य जिलों में बन्द कैदियों को अविलम्ब रिहा करना होगा। और, सभी झूठे मुकदमों को खारिज करना होगा।
15. जिले-जिले में हो रहे सशस्त्र पुलिस आपरेशन दमन और राज्य आतंक को अविलम्ब बन्द करना पड़ेगा।
16. विभिन्न समय में हिरासत से लापता कर दिये गये दिलीप चौधरी, भुवन थापामगर, प्रभाकर सुवेदी सहित व्यकितत्वों के बारे में निष्पक्ष जांचकर अपराधियों पर कड़ी कार्रवार्इ करनी होगी। और, पीडि़त परिवारों को उचित क्षतिपूर्ति प्रदान करनी होगी ।
17. जन-आन्दोलन के क्रम में मारे गये व्यकितयों को शहीद घोषित करना होगा। शहीदों के परिवारों तथा घायल और विकलांगों को उचित क्षतिपूर्ति देनी होगी और हत्यारों पर कड़ी कार्रवार्इ करनी पड़ेगी।
18. नेपाल को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करना पड़ेगा।
19. महिलाओं के पितृसत्तात्मक शोषण् ा का अन्त करना पड़ेगा। पुत्रियों को भी पुत्र के समान पैतृक सम्पतित पर समान अधिकार देना होगा।
20. सभी प्रकार के जातीय शोषण् ाों और उत्पीड़नों का अन्त करना होगा। जनजाति-बहुल क्षेत्रों में जातीय स्वायत्त शासन की व्यवस्था करनी होगी।
21. दलितों के साथ भेदभाव का अन्त करना होगा और छूआछूत प्रथा को पूण्र् ा रूप से बन्द करना होगा।
22. सभी भाषा-भाषियों को समान अवसर और सुविधा देनी पड़ेगी। उच्च माध्यमिक स्तर तक मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना होगा।
23. वाक तथा प्रकाशन स्वतंत्रता की पूण्र् ा गारन्टी देनी होगी। सरकारी संचार माध्यमों को पूण्र् ारूप से स्वायत्त बनाना होगा।
24. बु़िद्धजीवी, साहित्यकार, कलाकार और संस्कृति-कर्मियोंकी एकेडेमिक स्वतंत्रता की पूण्र् ा गारन्टी देनी पड़ेगी।
25. पहाड़ तरार्इ के क्षेत्रीय भेदभाव का अन्त करना होगा। पिछड़े हुए इलाकों को क्षेत्रीय स्वायत्तता प्रदान करनी होगी। गांव और शहर के बीच सन्तुलन कायम करना पड़ेगा।
26. स्थानीय निकायों को अधिकार और साधन सम्पन्न बनाना पड़ेगा।
27. जमीन का मालिक जोतनेवालों को ही होना पड़ेगा। सामन्तों की जमीन जब्तकर भूमिहीन तथा सुकुम्बासियों मे वितरण् ा करना होगा।
28. दलाल और नौकरशाह पूंजीपतियों की सम्पत्ति जब्तकर उसका राष्ट्रीयकरण् ा करना होगा। अनुत्पादक क्षेत्रों में फंसी पूंजी को औधोगीकरण् ा में लगाना होगा।
29. सभी को रोजगार की गारन्टी देनी होगी। रोजगार नहीं पाने तक बेरोजगार भत्ता दिये जाने की व्यवस्था करनी होगी।
30. उधोग, कृषि सहित सभी क्षेत्रों में काम करनेवाले मजदूरों की निम्नतम मजदूरी निर्धारितकर उसे कड़ार्इ के साथ लागू करने की व्यवस्था करनी होगी।
31. सुकुमवासियों(भूमिहीनों) के बसोवास की व्यवस्था किये बिना उन्हें विस्थापित करने की कर्रवार्इ पर तुरन्त रोक लगानी होगी।
32. गरीब किसानों को पूण्र् ा रूप से ऋण् ामुक्त करना होगा। कृषि विकास बैंक द्वारा छोटे किसानों द्वारा लिये गए ऋण् ाों को माफ करना होगा। छोटे उधोगों को समुचित कर्ज उपलब्ध कराने की व्यवस्था करनी होगी।
33. खाद-बीज सस्ती और सुलभ होनी चाहिए, किसानोेंं को उनके उत्पादनों का उचित मूल्य और उसके लिये बाजार की व्यवस्था करनी होगी।
34. बाढ़पीडि़तों और सूखाग्रस्त क्षेत्रों में उचित राहत की व्यवस्था करनी होगी।
35. सभी को नि:शुल्क और वैज्ञानिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की व्यवस्था करनी शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त व्यापारीकरण् ा का अन्त करना होगा।
36. महंगार्इ नियंत्रण् ा करना होगा। महंगार्इ के अनुपात में मजदूरी में वृद्धि करनीहोगी। दैनिक उपभोग की वस्तुएं सस्ती और सुलभ तरीके आपूर्ति की व्यवस्क्था करनी होगी।
37. गांव-गांव में पेयजल, मार्ग और बिजली की व्यवस्था करनी पड़ेगी ।
38. कुटीर तथा छोटे उधागों को विशेष सुविधा और संरक्षण् ा देना होगा।
39. भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, तस्करी, घूसखोरी, कमीशनतंत्र का अन्त करना होगा।
40. अनाथ, विकलांग, वृद्ध और बाल-बालिकाओं की उचित संरक्षण् ा की व्यवस्था करनी होगी।