Tue. Feb 11th, 2025

महगी हइ खबरें

कुमार सच्चिदानन्द

hindi magazineकाठमाण्डू से प्रकाशित देश के लोकप्रिय नेपाली अखबारों ने अपने मूल्य में एकबारगी दोहरी बढतरी की। अखबारों द्वारा पाठकों के नाम सूचना में बढती  महँगाई का हवाला दिया गया और असुविधा के लिए खेद की औपचारिक अभिव्यक्ति दी गई। सच है कि वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें बढ हैं। दूसरी ओर अखबारों की कीमतें कई वर्षों से नहीं बढ हैं। इसलिए इसमें वृद्धि को गैरवाजिब भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि खबरें, विशेषतः नेपाली भाषा और प्रिंट मीडिया में महँगी हर्ुइ और दोहरी महँगी हर्ुइ। महाकवि विद्यापति ने कभी कहा था ‘देसिल बयना सबजन मिठ्ठा।’ लेकिन नेपाली भाषा के समाचार पत्रों की इस मूल्यवृद्धि से देशी भाषा के मीठे होने की अवधारणा गूँगे के गुड के स्वाद की तरह मन के भीतर ही भीतर अनुभूत करने की तरह हो गई। क्योंकि नेपाली भाषा की खबरों पर अपनी रुचि प्रकट करने का अर्थ इस मद में अपनी जेब पर दोहरा बोझ डालना है। इसलिए किसी न किसी रूप में इनके प्रति आम लोगों की तटस्थता प्रोत्साहित होती है।
यह सच है कि यहाँ नेपाली अखबारों की लोकप्रियता अन्य भाषाओं के अखबारों से अधिक रही है। लेकिन अभी भी हमारा समाज उस स्तर पर नहीं पहुँचा है जहाँ अखबारों तक आम लोगों की पहुँच हो। इस मार्ग के अनेक अवरोध हैं। यथा(आम लोगों की शिक्षा का स्तर, सम्यक् चेतना का अभाव, अभिरुचि और सबसे बढÞकर उनकी कमजोर क्रयशक्ति। आम लोगों की बात तो छोडÞ भी दें, बुद्धिजीवी वर्ग की एक बडÞी जमात भी अखबारों के दैनिक और व्यक्तिगत पाठकत्व से वंचित हैं। यद्यपि इस वर्ग का आर्थिक स्तर अपेक्षाकृत बेहतर है किन्तु उनपर मोटे तौर पर जीविका का बोझ इतना गहरा है कि अखबारों के उपयोग में वे अपनी क्रयशक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहते और समाचारों की भूख या तो इलेक्ट्राँनिक संचार माध्यमों के द्वारा पूरी करते या इसके द्वितीय उपभोक्ता बनते। यही कारण है कि कई स्थानीय अखबार किसी न किसी रूप में पाठकों को यह सलाह देते नजर आते हैं कि ‘अखबार माँग कर नहीं, खरीदकर पढें।’ लेकिन यह मूल्यवृद्धि अखबारों की लोकप्रियता को गहरे रूप में प्रभावित की है। पत्र-पत्रिकाओं का व्यवसाय करने वाले व्यवसायी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि कीमतों में बढÞोतरी के बाद नेपाली में प्रकाशित दैनिक पत्रों के ग्राहक भी कम हुए हेैं।
एक विरोधाभास यह है कि एक ही प्रकाशनसमूह के अंग्रेजी अखबारों की कीमतें नहीं बढÞायी गयी। इसके दो निहितार्थ है ( प्रथम तो वे जानते हैं कि अगर अंग्रेजी अखबारों की कीमतें इस तरह दोहरी बढÞायी गई तो इसके पाठकों के ग्राफ में अप्रत्याशित कमी हो सकती है जो उनके व्यावसायिक हितों के खिलाफ है। दूसरा, वे यह भी बखूबी जानते हैं कि दैनिक समाचार पत्र पढने वालों में अधिकांश के लिए नेपाली भाषा का समाचार पत्र पढना उनकी मजबूरी है। यही कारण है कि मूल्यवृद्धि का यह बोझ नेपाली के दैनिक पत्रों को और इस माध्यम से इस वर्ग के पाठकों को झेलना पडÞा। एक बात तो यहाँ के सर्न्दर्भ में अभी भी कहा जा सकता है कि अभी भी अखबारों का इतना प्रचलन यहाँ नहीं हैं क्योंकि प्रातःकालीन चाय की दूकानों में दो-चार तरह के अखबार नहीं देखे जाते जिस पर ग्राहक अखबार के बहाने चाय की ब्रि्री बढाते हों या चाय के बहाने अखबार का मजा लेते हों। हिन्दी का एक पुराना फिल्म-संगीत है कि ‘सोना हुआ है बडÞी महँगा, मैं चाँदी ले आयी।’ निश्चय ही अखबारों की महँगी के इस दौर में चाँदी की जगह स्थानीय अखबार ले रहे हैं। अभी भी नेपाली भाषा के राष्ट्रीय अखबारों को यह यात्रा तय करनी है और कीमतों की यह बढोतरी इस मार्ग का सबसे बडÞा अवरोधक है।
एक बात तो कबूल करने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि अंग्रेजी जानने वालों और पढने वालों का आर्थिक स्तर आमलोगों से अपेक्षाकृत बेहतर होता है। लेकिन कीमतें नेपाली अखबारों की बढÞी हैं। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि नेपाली के अखबारों तक बहुसंख्य लोगों की पहुँच थी। निश्चय ही प्रकाशगृहों के इस निर्ण्र्ाासे इस वर्ग की पहुँच अखबारों तक कमी है। उनके इस कदम से यह यथार्थ भी सामने आता है कि किसी न किसी रूप में्र इससे अंग्रेजी और अंग्रेजीयत प्रोत्साहित हर्ुइ है और देशी भाषा हतोत्साहित हर्ुइ है। अर्थशास्त्र का एक सामान्य सिद्धांत है कि कीमतों में वृद्धि से वस्तुओं की माँग कमती है और कीमतों में कमी से इसका विपरीत प्रभाव होता है। यह सिद्धान्त यहाँ भी असरदार है और इसका प्रभाव बाजार में भी देखा जा सकता है। ऐसा नहीं माना जा सकता कि इन अखबारों का प्रबन्धन और उसमें बैठे लोग बाजार के इस सिद्धान्त से अपरचित हों। इसलिए इस सर्न्दर्भ में जो कुछ निर्ण्र्ााहुआ है उसे प्रायोजित ही माना जा सकता है और इसे ज्यादती नहीं तो कमजोर वर्ग और देशिल मन की उपेक्षा रूप में लिया ही जा सकता है।
यह सच है कि मुद्रास्फीति की दर बढÞी है और वस्तु एवं सेवाओं की कीमतें बढी र्है। लेकिन इसका हवाला देकर मूल्यवृद्धि का जो औचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया गया है उसे पूरी तरह इनकार नहीं तो पूरी तरह तर्कसंगत भी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इस माध्यम में उपयोग होने वाली वस्तुएँ और सेवाएँ सिर्फनेपाली के अखबारों के लिए बढी हैं ऐसी बात नहीं। क्योंकि अं्रग्रेजी के अखबारों की कीमत यथावत है। स्पष्ट है कि यहाँ मूल्यवृद्धि के सम्बन्ध में उसके व्यावसायिक स्वास्थ्य का ध्यान अधिक रखा गया है और अंग्रेजी अखबारों की हानि की भी भरपाई नेपाली अखबारों से करने का प्रयास किया गया है जिसे न्यायोचित नहीं माना जा सकता। एक बात तो निश्चित है कि अंग्रेजीयत के प्रभाव से हमारा देशीपन र्सवाधिक खतरे में है और इसकी रक्षा हमारा सामाजिक दायित्व भी है। इस दृष्टि से भी यह मूल्यवृद्धि वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता।
नेपाली अखबारों की इस मूल्यवृद्धि का र्सवाधिक प्रभाव निम्न मध्यमवर्ग की जेब पर पडÞा है। उच्चवर्ग और उच्च मध्यमवर्ग के लिए एक तो अंग्रेजी का विकल्प खुला है दूसरी ओर आर्थिक स्तर पर यह वर्ग इतना सबल है कि पाँच-दस रुपए की मूल्यवृद्धि इन पर कोई गहरा प्रभाव नहीं डालती और निम्नवर्ग की पहुँच मोटे तौर पर अखबारों तक है भी नहीं। यह निम्न मध्यमवर्ग है जो जीवन को सुखमय बनाने के लिए परिश्रम करते हैं और और अगली पीढÞी के भविष्य को सुखमय बनाने के लिए अर्जित संसाधनों को विभिन्न रूपों में संचित करते हैं तथा हर चीज पर सोच समझ कर निवेश करते हैं। यह माना जा सकता है कि समाचारों की दृष्टि से आज इलेक्ट्रोनिक समाचार माध्यमों के दबाब के कारण सम्पर्ूण्ा प्रिंट मीडिया खतरनाक ढÞंग से प्रभावित हर्ुइ है और अखबार भी इससे पृथक नहीं। दृष्टिकोण, विश्लेषण, सूचना, विज्ञापन आदि दृष्टि से अखबारों की उपयोगिता आज भी है। लेकिन यह भी माना जा सकता है कि इलेक्ट्राँनिक मीडिया की र्सवव्यापकता के कारण विश्लेषण का भी महत्व घटा है क्योंकि हर टीवी चैनल पर कोई न कोई विशेषज्ञ विश्लेषक हमेशा विश्लेषणरत रहते हैं और और मुद्दे प्रायः घिसे-पिटे होते हैं। कभी-कभी तो इन विश्लेषणों से अच्छा लोग साबुन, सैम्पू या टूथपेस्ट का विज्ञापन देखना पसन्द करते हैं। हमारे देश की राजनैतिक दशा और दिशा भी इतना सकारात्मक नहीं है कि लोग विश्लेषण और दृष्टिकोण जानने के लिए एकबारगी दोहरा कीमत अदा करें। आम लोगों की इस स्थिति को किसी भी दृष्टिकोण से सकारात्मक नहीं कहा जा सकता।
मूल्यवृद्धि उत्पादकों की दृष्टि से जितना सुखकारक होता है, उपभोक्ता की दृष्टि से उतना ही दुखदायक। यह बात हर क्षेत्र में लागू होती है। अखबार जगत भी इससे अलग नहीं है। कल्पना करें कि अगर कृषि उत्पादों की कीमत एक साथ दोहरी की बात छोडÞ भी दें, सामान्य से कुछ ज्यादा बढती है तो चारों ओर हाय-तौबा मचने लगता है। नेपाली के अखबारों की कीमत बढÞी मगर कहीं चूँ-चप्पडÞ भी नहीं हुआ। हो भी कैसे – देश में मत-अभिमत बनाने की जिम्मेवारी मीडिया की होती है और इस विन्दु पर राष्ट्र के समादृत प्रकाशन समूह स्वयं कठघरे में है और उनका यह निर्ण्र्ाासंगठित है, इसलिए इसके विरुद्ध कहीं-कोई आवाज नहीं उठी। आवाज यहाँ भी नहीं उठायी जा रही, विरोध यहाँ भी उद्देश्य नहीं। उद्देश्य है यह जतलाना कि सिर्फनेपाली अखबारों की मूल्यवृद्धि न्यायसंगत नहीं।
आज विकसित राष्ट्रों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विकासशील राष्ट्रों में अपना उद्योग लगाती है क्योंकि ऐसे राष्ट्रों में श्रम सस्ता होता है। इसलिए उत्पादों की उत्पादन लागत कम हो जाती है। वस्तुएँ सस्ती होती है और बाजार में उसकी लोकप्रियता और माँग बढÞ जाती है। नेपाल भी विकासशील राष्ट्र है और विकसित देशों की तुलना में यहाँ भी श्रम और सेवाएँ अपेक्षाकृत सस्ती है। यह माना जा सकता है भारत का विकासदर और प्रतिव्यक्ति आय नेपाल की तुलना में अधिक है मगर वहाँ दैनिक अखबारों की कीमत आज भी समान्यतया तीन से चार रुपए के अन्दर सीमित है जबकि नेपाल के नेपाली अखबारों ने कीमतों में आशातीत बढोतरी की है। यह बात सच है कि ग्राहकों केे पैसे से अखबार नहीं चलते। अखबारों का मूल आर्थिक स्रोत उसका विज्ञापन है जिसकी दर पाठकों में उसकी लोकप्रियता और उसके नियमित सरकुलेशन के आधार पर निर्धारित होती है। निश्चय ही मूल्य वृद्धि के इस कदम से नेपाली अखबारों के पाठकों की संख्या प्रभावित हर्ुइ है। इसकी भरपाई ये अखबार कैसे करेंगे, यह एक प्रश्नचिह्न उनके लिए है।
अखबारों की भूमिका न केवल सूचना प्रेषण के लिए होती है बल्कि वह किसी भी राष्ट्र के बौद्धिक और चेतना के स्तर के निर्धारण का थर्मामीटर भी है। हमारे देश में अभी भी एक बडÞा वर्ग है जिसकी पहुँच अंग्रेजी भाषा तक नहीं है। नेपाली अखबारों को पढÞने में वे स्वयं को अपेक्षाकृत सहज महसूस करते हैं। नेपाली अखबारों की कीमतों में अप्रत्याशित वृद्धि पत्रिका की दुकानों के प्रति उनके मन में वैराग्य उत्पन्न कर सकता है और अन्य देशी भाषा की पत्रिकाओं का बाजार भी इससे प्रभावित हो सकता है। यह सच है कि कीमतें स्थिर नहीं होती, इसलिए इनकी कीमतें भी बढÞनी चाहिए मगर धीरे-धीरे।

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