Fri. Sep 13th, 2024

विकास तिवारी
अध्यक्ष, सद्भावना -गजेन्द्रवादी)



संघ का अंग्रेजी युनियन  होता है।  का मतलब इकाई होता है। ग्लष्त जब एक साथ होगा तो का स्वरूप ग्रहण करेगा। आज कल सामाजिक संघ संस्थाओं में संघ और महासंघ बनाने का फैशन सा हो गया है। वास्तव में नाम में संघ या महासंघ जैसे शब्दों को जोडÞ लेने से ही वह गुणत्व में भी संघ ही हो जाता है, ऐसी बात नहीं है। क्योंकि संघ का होना या न होना उसमें अन्तर्निहित गुण पर निर्भर करता है। फिर भी संघ और महासंघ बनाने की एक प्रवृत्ति लोगों में विद्यमान है। इसी प्रकार महासंघ के लिए फेडरेशन  शब्द का प्रयोग किया जाता है। खास कर ट्रेड युनियन क्षेत्र में यह अधिक प्रचलित है।
लैटिन का यह शब्द   से बना है, जिसका अर्थ होता है संधि अर्थात समझौता। दो या दो से अधिक पक्षों का आपस में जुडना और उसमें समझौते का गुण होना एक संघ के लिए आवश्यक होता है। अर्थात यह कहा जा सकता है कि संघ, संघीयता या संघीय शासन प्रणाली किसी राजनीतिक सम्ाझौता का परिणाम है, जो किसी भी राज्य प्रणाली में देखा जाता है। इसमें केन्द्र गुरुत्व के रूप में और इकाई परिधि के रूप में पृथक होते हुए भी आपस में जुडÞे रहते हैं। प्रत्यक्षतः राज्य शक्ति संविधान के द्वारा विभाजन किया जाता है। केन्द्रीय सरकार और प्रदेश सरकार का अधिकार स्पष्ट रहता है। एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
राज्य शक्ति का विभाजन ९म्ष्कतचष्दगतष्यल० की तरह राज्य शक्ति का पृथक्करण ९क्भउबचबतष्यल० और विकेन्द्रीकरण ९म्भअभलतचबष्शिबतष्यल० भी किया जाता है। शक्ति का पृथक्करण करना एक मौलिक कार्य है जो सभी राज्यों में किया जाता है। आधारभूत रूप में राज्य के तीन कार्य होते हैं( विधायन, नियमन और नियन्त्रण। इन कार्यों को क्रमशः विधायिका, सरकार और न्यायालय नेतृत्व करती है। शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त पर ये तीनों इकाई स्वतः ही पृथक हो जाती है। न तो ये किसी दूसरे के अधीन होते हैं न तो कोई दूसरे के हस्तक्षेप को स्वीकार करता है। खास कर इनके समन्वय के लिए शक्ति सन्तुलन का सिद्धान्त अपनाया जाता है। समझने के लिए यह बहुत बडÞा विषय नहीं है। जनवादी शासन प्रणाली में ये तीनों इकाई अलग अलग स्वरूप में दिखते तो हैं मगर मौलिक रूप में किसी अदृश्य शक्ति से नियन्त्रित और सन्तुलित होते हैं। वह अदृश्य शक्ति जनवादी शासन का मुख्य सञ्चालक या जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धान्त पर बनाया गया दल या समूह होता है। शक्ति पृथक्करण में शक्ति सन्तुलन का वास्तविक अभ्यास संसदीय शासन प्रणाली में होता है। विधायिका सरकार का गठन करती है तो
सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे हटा भी सकती है। उसी तरह सरकार विधायिका का विघटन कर नये जनादेश के लिए जनता से अपील कर सकती है। विधायिका न्यायमर्ूर्ति के खिलाफ महाभियोग पारित कर सकती है तो न्यायालय विधायिका के निर्ण्र्ााें को अवैधानिक होने की चुनौती दे सकती है। अमेरिकी गणतंत्र ने राष्ट्रपति को असीमित अधिकार दिया है मगर उस पर महाभियोग पारित करने का विशेषाधिकार संसद् -कांग्रेस) को दिया है।
शक्ति विकेन्द्रीकरण भी एक आधारभूत सिद्धान्त है। इसका अधिक प्रयोग एकात्मक शासन प्रणाली में किया जाता है। संघात्मक शासन प्रणाली में शक्ति स्वतः विभाजित होती है और एकात्मक शासन में शक्ति केन्द्र में निहित होती है। इस लिए राज्य -केन्द्र) अपने स्थानीय क्रियाकलाप के संचालन हेतु केन्द्रीय और स्थानीय इकाइयों को शक्ति विकेन्द्रीत करता है। यद्यपि संघीय शासन का भी प्रादेशिक सरकार अपने स्थानीय इकाइयों को शक्ति का विकेन्द्रीकरण करती है। शक्ति का विभाजन और विकेन्द्रीकरण में मूलभूत अन्तर यह है कि विभाजित शक्ति वापस नहीं होती है लेकिन विकेन्द्रीत शक्ति केन्द्र द्वारा ऐच्छिक समय में वापस लिया जा सकता है। नेपाल में संघीय शासन का विरोध कर रहे राजावादी/पुरातनवादी राप्रपा नेपाल तथा कुछ कम्युनिष्ट पार्टियां -जैसे जनमोर्चा, नेमकिपा, नेकपा माले) विकेन्द्रीकरण को संघीयता का विकल्प मानती है। लेकिन हमें और उन्हें भी यह समझ लेना है कि इस मुल्क में खास कर वि.सं. २०१९ -सन् १९६३) में लाया गया पर्ूण्ा राजतन्त्रात्क -पंचायती) संविधान और २०४७ -१९९१) में लाया गया संवैधानिक प्रजातंत्र दोनांे ही एकात्मक शासन का प्रतिरूप था और दोनों ही समय में विकेन्द्रीकरण का बाजा जोर शोर के साथ बजाया गया था। पंचायत काल में विकेन्द्रीकरण ऐन, २०३९ लाया गया था और प्रजातंत्र काल में भी विकेन्द्रीकरण की नीति पर आधारित “स्थानीय स्वायत्त शासन ऐन, २०५४” लाया गया था। लेकिन किसी भी समय में जनभावना और जनचाहना को यह व्यवस्था तृप्त नहीं कर सकी। गम्भीरतापर्ूवक समझने की बात यह है कि राज्य शक्ति को प्रादेशिक आधार पर विभाजित करना है। और प्रादेशिक अधिकार को स्थानीय स्तर पर विकेन्द्रित करना है। अर्थात राज्य शक्ति को व्यवस्थापन करने के सवाल में इससे संबंधित तीनों सिद्धान्तों -पृथक्करण, विभाजन और विकेन्द्रीकरण) को प्रयोग में लाना जरूरी है। परन्तु केन्द्र और प्रदेश के बीच के संबंध के आधार पर शक्ति विभाजन के सिद्धान्त को अवलम्बन करना होगा।
संघात्मक शासन-पद्धति में अब तक सामान्यतः संघांे के निर्माण की तीन प्रक्रियाएं देखी गयी हैं।
सम्मिलन ९क्ष्लतभनचबतष्यल०,
पृथक्करण ९म्ष्कष्लतभनचबतष्यल० और
इन दोनों का मिश्रति स्वरूप ९ःष्हभम ःयमभ०।ि
सम्मिलन वह प्रक्रिया है, जिसके अनुसार कई स्वतंत्र राज्य समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मिल कर एक शासन का निर्माण करते हंै, जिसे संघीय-शासन ९ँभमभचब न्ियखभचnmभलत० कहते हंै और ऐसा राज्य संघ ९ँभमभचबतष्यल० कहलाता है। अर्थात ये स्वतंत्र राज्य कतिपय विषयों के शासन-प्रबंध में परस्पर मिल जाते हंै। विश्व के प्रमुख संघों- संयुक्त राज्य अमेरिका, अष्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड इत्यादि का निर्माण इसी प्रक्रिया से हुआ है। दूसरी प्रक्रिया पृथ्ाक्करण की प्रक्रिया है। इसके अनुसार एकात्मक राज्य के ढाँचा को परिवर्तन कर विभिन्न जाति, समुदाय, वर्ग और क्षेत्र को भूगोल ९न्भयनचबउजथ०, इतिहास ९ज्ष्कतयचथ०, संस्कृति ९ऋगतिगचभ०, जनघनत्व ९म्भलकष्तथ० के आधार पर विभिन्न इकाईयों -प्रदेशों) में विभक्त कर संघीय प्रणाली में लाया जाता है। इसप्रकार एकात्मक सरकार ९ग्लष्तबचथ न्यखभचnmभलत० संघात्मक सरकार ९ँभमभचब न्ियखभचnmभलत० में परिवर्तित हो जाती है। जर्मनी, स्पेन, बेल्जियम, इथोपिया, नाइजेरिया आदि ऐसे मुल्क इनके उदाहरण हैं। नेपाल आज इसी पथ का अनुगामी है। लेकिन भारतीय और कैनेडियन संघ तीसरी प्रक्रिया का उदाहरण हैं जिसमंे ऊपर के दोनों सिद्धान्तों का प्रयोग देखा जाता है। इसे मिश्रति स्वरूप कहा जाता है।
संघीय शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषता यह होती है कि इस प्रणाली में शासकीय अधिकार का विभाजन किया जाता है। राज्य की भूमि को एकर् इकाई मान कर उसे प्रशासनिक व्यवस्था के लिए अनेक उपर् इकाईयों में विभाजन करने का काम एकात्मक शासन प्रणाली मंे भी किया जाता है। लेकिन उन इकाईयों को कानून बनाने का अधिकार -विधायिका), कानून को लागू करने का अधिकार -सरकार) या अव्यवस्थाओं को नियंत्रित करने का अधिकार -अदालत), जिसे राज्य का अधिकार पृथक्करण के सिद्धान्त अर्न्तर्गत व्यवस्थित किया जाता है, एकात्मक शासन प्रणाली में निर्माण की गयी इकाईयों को प्रदान नहीं की जाती है। जबकि संघीय शासन प्रणाली में राज्य में निर्माण की गयी इकाइयों -प्रदेशों) को भी विधायिका, सरकार और अदालत गठन करने का अधिकार दिया जाता है। केन्द्र और प्रदेश के बीच राज्यसत्ता और आन्तरिक र्सार्वभौमसत्ता विभाजन की नीति
लागू होती है। जिससे समाज के सभी पक्षों को यहाँ तक की सीमान्तकृत वगार्ंर्ेेो भी सत्ता में सहभागी होने का अवसर प्राप्त होता है। इसका एक उदाहरण भारत की संघीय व्यवस्था भी है। आज भारत के कई प्रदेशों में समाज के अति पिछडेÞ समुदाय के व्यक्ति भी राजनीतिक नेतृत्व तह में औरों से आगे है। और, मुख्यमंत्री जैसे महत्वपर्ूण्ा पदों में आसीन हुए है।
नेपाल में संघीयता
नेपाल में संघीयता की धारणा नयी नहीं है। गोरखा राज्य विस्तार के क्रम में इसमें शामिल किया गया भू-भाग विभिन्न स्वतन्त्र राज्यों के रूप में स्थापित था। काठमाण्डू घाटी में नेवारी राज्य, पर्ूर्वी पहाडÞ में किराती राज्य, पश्चिम पहाडÞ में बाइसी/चौबीसी राज्य तथा मधेश में मधेशियों का राज्य था। इन सभी राज्यों को एक शासन के मातहत लाकर मेची से महाकाली तक एकात्मक केन्द्रीकृत शासन कायम किया गया। नेपाल एक बहुराष्ट्रीय राज्य था परन्तु इसकी बहुराष्ट्रीयता को समाप्त कर देने की शासकों की चाहत के परिणामस्वरूप ही देशवासियों ने संघात्मक प्रणाली की ओर रुख किया है। नेपाल में राणाशाही के खात्मे के बाद कुलानन्द झा ने सप्तरी में सन् १९५० -वि.सं. २००७) में तर्राई काग्रंेस की स्थापना की थी। जिसके महामंत्री बाबा रामजन्म तिवारी थे। तर्राई कांग्रेस के गठन के बाद कुलानन्द झा जी का निधन हो गया और पार्टर्ीीे अध्यक्ष उनके भाई वेदानन्द झा बने।
तर्राई कांग्रेस ने राज्य के समक्ष मुख्यतः तीन मांगे रखी थी।
१. तर्राई को स्वायत्त राज्य ९ब्गतयलomयगक क्तबतभ० बनाया जाय।
२. हिन्दी को क्षेत्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी जाय।
३. नागरिक सेवा, सैनिक, प्रहरी में मधेशियों को सम्मानजनक सहभागिता का अवसर दिया जाय।
देश में उस समय राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त थी। राजा महेन्द्र तथा राजनीतिक दलों के बीच सत्ता की छिनाझपटी मची हर्ुइ थी। अस्थिरता के उस दौर में सविधान सभा का निर्वाचन कठिन हो गया था। राजा महेन्द्र एवं नेपाली कांगे्रस के बीच समझदारी के आधार पर संविधान सभा की मांगों को दबा दी गई और नेपाल राज्य को शाहवंश की पैतृक सम्पत्ति मानते हुए राजा के द्वारा नेपाल अधिराज्य का संविधान २०१५ लागू कर आम निर्वाचन कराया गया। वैसी परिस्थिति में तर्राई कांगे्रस की स्वायत्तता की मांग निष्प्रभावी रह गई।
परन्तु क्रान्तिवीर शहीद रघुनाथ ठाकुर ने मधेश मुक्ति आन्दोलन का सूत्रपात किया। उन्हांेने सन् १९५८ में मधेश जनक्रान्तिकारी दल बनाया। उन्होंने ‘परतन्त्र मधेश और उसकी संस्कृति’, ‘भूमिसुधार कानून और नेपाली नागरिकता’, ‘मधेश आन्दोलन के प्रस्ताव और उनकी व्याख्या’, ‘मधेश को पर्ुनर्गठन करने का अधिकार मधेशियों का है’ नामक पुस्तकें लिखी और मुक्ति आंदोलन को आगे बढाया। मधेश जनक्रान्तिकारी दल, मधेश राष्ट्र निर्माण के पक्ष में था। विसं २०३८ मंे रघुनाथ ठाकुर शहीद हुए। और यह मधेश मुक्ति का आंदोलन भी नेतृत्वविहीन होकर समाप्त हो गया।
इसके बाद बाबा रामजन्म तिवारी तथा श्रद्धेय गजेन्द्र नारायण सिंह ने अपने हाथों से फिर से मधेश आंदोलन का मशाल जलाया। और, इन महापुरुषों ने वि.सं. २०४० में नेपाल सद्भावना परिषद् की स्थापना कर मधेश आंदोलन को आगे बढाया। परिषद् का उद्देश्य था मधेश को अधिकार सम्पन्न बनाना। २०४६ साल में पंचायती व्यवस्था खत्म होने के बाद परिषद् राजनीतिक दल में परिणत हो गया और नेपाल सद्भावना पार्टर्ीीा जन्म हुआ।
नेपाल सद्भावना पार्टर्ीीे विभिन्न मांगों में संघीयता प्रमुख मांग रही है। नेपाल सद्भावना पार्टर्ीीारा २०४७ साल आषाढ २० गते को तत्कालीन ‘संविधान सुझाव आयोग’ को पे्रषित पत्र में उल्लिखित है, ‘संविधानमा संघात्मक सरकार को व्यवस्था गरी सम्पर्ूण्ा तर्राईलाई एकर् इकाई मानेर प्रान्तको रूपमा घोषित गर्नु उपयुक्त हुनेछ।’ इसीप्रकार २०४७ साल आषाढ १६ गते नेपाल सद्भावना पार्टर्ीीे जनकपुर में सम्पन्न प्रथम महाधिवेशन में पार्टर्ीीध्यक्ष गजेन्द्र बाबू द्वारा दिया गया प्रथम अध्यक्षीय भाषण में कहा गया है कि ‘संविधान में संघात्मक सरकार की व्यवस्था कर सम्पर्ूण्ा तर्राई को एकर् इकाई मानकर इसे स्वायत्त प्रान्त घोषित किया जाय।’ इतिहास साक्षी है कि नेपाल सद्भावना पार्टर्ीीेश में संघीय शासन व्यवस्था की स्थापना के लिए २०४७ साल के बाद निरन्तर आवाज उठाने वाली पहली पार्टर्ीीै।
इसीप्रकार विसं. २०५४ में स्थापित मधेशी जनअधिकार फोरम जो कि सामाजिक संस्था के रूप में कार्यरत था। संघीयता के मुद्दो को अपनी मुख्य मांग बनाया।
वि.सं. २०५६ में नेकपा माओवादी ने संघीयता में जाने का निर्ण्र्ााकिया। और आत्मनिर्ण्र्ााके अधिकार सहित जातीय तथा क्षेत्रीय स्वायत्त क्षेत्रों का प्रस्ताव
को आगे बढाया। माओवादी ने जातीय आधार पर प्रदेश निर्माण का प्रस्ताव आगे लाया।
नेपाल में दूसरा जनआंदोलन सम्पन्न होने के बाद निर्मित अन्तरिम संविधान में परम्परागत एकात्मक शासन व्यवस्था समाप्त होने की घोषणा की गयी लेकिन संघीयता को आत्मसात करने की कोई चर्चा नहीं हर्ुइ। मधेशी जनअधिकार फोरम ने इस सवाल को उठाया और संघीयता के लिए मधेश आन्दोलित हुआ। २६ दिनों के मधेश व्रि्रोह और २७ मधेशी नौजवानों की कर्ुबानी के बाद नेपाल के अन्तरिम संविधान ने संघीयता को आत्मसात किया। जिसे बाद में संघीय लोकतान्त्रिक गणतन्त्र के रूप में स्वीकार किया गया। बाद के दिनों में अस्तित्व में आई तर्राई मधेश लोकतान्त्रिक पार्टर्ीीैसे मधेशी दल भी संघीयता को अपना मुख्य एजेण्डा बनाया।
इसप्रकार यह देखा जाता है कि नेपाल में संघीयता की स्थापना के लिए मधेश ने आज से ६ दशक पर्ूव ही मांग करना शुरू किया और इसके लिए निरन्तर संर्घष्ा करते रहने के परिणाम स्वरूप ही संघीय शासन प्रणाली की स्थापना का रास्ता खुला है। यद्यपि आज भी संघीयता पर संकट के काले बादल मंडरा रहे है।
जनआन्दोलन और मधेश आन्दोलन के कारण देश में व्यवस्था बदली है। परन्तु अवस्था नहीं बदली। देश में संघीय लोकतांत्रिक गणतन्त्र की स्थापना पश्चात भी विकास निर्माण से जुडÞे स्थानीय निकायों का संरचना पंचायतकालीन ही है। जो कि लोकतंत्र के सिद्धान्त पर आधारित न होकर गोरखालीतंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। इसीप्रकार राज्य का संरचना उसके चरित्र, नीति और नीयत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। फलस्वरूप मधेश का शोषण एवं विभेद और अधिक गहरा होता जा रहा है। इसलिए राज्य की पुनर्संरचना आज राष्ट्र का सबसे बडÞा एजेण्डा है, जिसके लिए संघीय संरचनाओं का निर्माण होना आवश्यक है। -ँसंघीय नेपाल में स्वायत्त मधेश’ पुस्तक से सभार)



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