असमंजस में मधेशी मोर्चा
हमेशा से ही लोकतान्त्रिक धार को र्समर्थन करने वाले मधेशी मोर्चा ने इस बार अपने सिद्धांतों के उलट माओवादी के साथ चार सूत्रीय सम्झौता कर सत्तारुढ गठबन्धन का निर्माण किया। देश को सरकारविहीन अवस्था से बचाने, शान्ति व संविधान में लगातार आ रहे अवरोध को हटाने, सिर्फकांग्रेस व एमाले की ब्लैकमेलिंग नीति को ध्वस्त करने तथा एक सक्षम, सुयोग्य व्यक्ति को र्समर्थन देकर सरकार में सहभागी हुआ। मधेशी मोर्चा से आवद्ध दलों को मनमाफिक मन्त्रालय भी मिला। सिर्फमोर्चा से आवद्ध दलों को नहीं बल्कि मोर्चा से बाहर रहे अन्य मधेशी दलों को भी इस बार सरकार में शामिल कराया गया। नेपाल के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि इतनी बडि संख्या में मधेशी चेहरा सिंहदरबार में देखने को मिला। यह सब मोर्चा की एकबद्धता व माओवादी की सरकार बचाने को मजबूरी दोनों का ही परिणाम था।
मधेशी मोर्चा के लिए यह एक बडÞी उपलब्धि मानी जा रही थी। मधेशी जनता में भी एक आशा की किरण दिखाई दी कि शायद अब राजनीतिक रुप से मजबूत हुए मधेशी मोर्चा मधेश आन्दोलन के दौरान उठे मांगों को पूरा कराने में कोई कसर नहीं छोडेÞगी। आखिर उन्हीं मागों को पूरा करने के लिए मधेशी मोर्चा ने माओवादी के साथ समझौता भी किया था। नेपाली सेना में मधेशी युवाओं के सामूहिक प्रवेश की बात हो या फिर नागरिकता वितरण की बात सभी को लागू करने के लिए सरकार की तरफ से कोशिश जरुर की गई। लेकिन हम शायद यह भूल चुके थे कि सिर्फराजनीतिक रुप से सक्षम व संख्या बल में अधिक होने से मधेशी, दलित, जनजाति आदिवासी पिछडेÞ व अल्पसंख्यकों को अधिकार नहीं दिलाया जा सकता है। वैसे तो इस सरकार या यूँ कहें कि मधेशी मोर्चा और माओवादी के बीच हुए गठबन्धन के समय से ही इसका तीव्र विरोध होने लगा था। माओवादी का वैद्य पक्षधर मधेशी मोर्चा से गठबन्धन छोडÞने के लिए पूरा जी जान लगा दी तो कांग्रेस व एमाले ने इसे राष्ट्रघाती गठबन्धन करार दिया। यह तो वह विरोध था जो कि सामने दिखाई देता था और जिसका जवाब दिया जा सकता था। लेकिन इस गठबन्धन को समाप्त करने के लिए इस देश की शक्तिशाली मीडिया घराना, नागरिक समाज, पत्रकारों का एक बडÞा समूह, न्याय व्यवस्था, कार्यपालिका सब के सब साथ लगे हुए हैं। इनमें से कोई नहीं चाहता कि मधेशी जनता को नेपाली सेना में प्रवेश दिया जाए। इन में से कोई नहीं चाहता कि दशकों से या पुस्तों से नेपाल में रह रहे किसी भी मधेशी को यहाँ की नागरिकता दी जाए। इसके लिए न्यायालय को आगे कर सारा षड्यन्त्र किया जा रहा है। सरकार के मधेश से संबंधित या मधेश के फायदे के लिए होने वाले हर फैसले को कोर्ट ने अन्तरिम आदेश के तहत रोक लगा दी है।
यह तो रही सरकार के फैसले की बात। नेपाल का कर्मचारीतन्त्र भी मधेश विरोधी ही है। मधेशी मन्त्रियों की बातें न सुनना, उनके आदेशों का पालन नहीं करना, मन्त्री के निर्ण्र्ााें के उलट चलना चलाना, हमेशा मन्त्रियों को नीचा दिखाने के लिए उलटी सीधी सल्लाह देना यह सब सिंहदरबार के भीतर ही नहीं जिला तक में होता है।
इन्ही सब कारणों से मधेशी दलों के राजनीतिज्ञ हों या फिर उनके कार्यकर्ता या फिर मधेशी जनता सभी वर्तमान सरकार से हताश या निराश हो गए हैं। और इसका खामियाजा जनप्रतिनिधियों को भुगतना पडÞ रहा है। एक तो संविधान नहीं बनने से जनता में निराशा छा रही है ऊपर से सरकार बनने का कोई प्रत्यक्ष फायदा न होता देख मधेशी जनता का गुस्सा अपने सभासदों पर उतर रहा है। और सभासद् अपना गुस्सा मन्त्री बने नेताओं पर उतार रहे हैं।
इसके अलावा मन्त्री बने नेताओं का व्यक्तिगत व्यवहार भी मधेशी पार्टर्ीीे भीतर व्याप्त असंतोष को और अधिक हवा दे रहा हैं। सरकार में सामिल नेताओं और बाहर रहे नेताओं के बीच मतभेद बढÞते ही जा रहे है। असंतुष्टि चरम पर होने की वजह से सरकार से वापस होने का भी दबाव लगातार पडÞ रहा है।
इस समय देखा जाए तो मोर्चा से आवद्ध हर पार्टर्ीीे भीतर गुटबन्दी व असंतुष्टि अपने चरम पर है। मोर्चा से आवद्ध सबसे बडÞी पार्टर्ीीmोरम लोकतान्त्रिक के दर्जनभर से अधिक सभासद् पार्टर्ीीा साथ कभी भी छोडÞ सकते है। ये अपने शर्ीष्ा नेताओं के आचरण से तो दुःखी हैं ही इन में से कुछ मन्त्री नहीं बनने की वजह से भी परेशान हैं। रही सही कसर शरद सिंह भण्डारी ने पूरी कर दी है। भण्डारी भी अलग ही पार्टर्ीीोलने की तैयारी कर रहे हैं और इसके लिए उनका गृहकार्य भी चल रहा है।
फोरम गणतान्त्रिक में भी कुछ यही हाल है। पार्टर्ीीध्यक्ष जयप्रकाश गुप्ता सरकार की कार्यशैली पर टीका टिप्पणी करते नजर आते हैं। सरकार के फैसले, सरकार की कार्रवाही, मधेश विरोधी माहौल पर अपनी टिप्पणी से चर्चा में रहने वाले जेपी गुप्ता की भी पार्टर्ीीी अन्दरुनी स्थिति ठीक नहीं है। उनके साथ उपेन्द्र यादव का साथ छोडÞकर आए सभासद उन्हीं से नाराज चल रहे है। राजलाल यादव ने तो इस्तीफा तक की धमकी दे दी है। कृषिमन्त्री नन्दन दत्त भी अपने कार्यकर्ताओं के लिए कुछ नहीं कर पाने की वजह से खुश नहीं है। पार्टर्ीीे कुछ प्रभावशाली सभासद् गुप्ता के रवैये से ही नाराज है।
तमलोपा पार्टर्ीीे वाषिर्कोत्सव के दिन ही पार्टर्ीीी तरफ से सरकार में नेतृत्व कर रहे उपाध्यक्ष हृदयेश त्रिपाठी को काला झण्डा दिखाये जाने से साफ होता है कि तमलोपा के भीतर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। महन्थ ठाकुर की पार्टर्ीीर ढÞीली होती पकडÞ, त्रिपाठी व अन्य नेताओं के बीच अनबन की खबर और पार्टर्ीीें गुटबन्दी हाबी होने की वजह से तमलोपा में जितनी संख्या में सभासद् बच गए है, उतनी संख्या बनी रह जाए, इसकी कोई भी ग्यारन्टी नहीं है।
तमलोपा नेपाल ने भी पार्टर्ीीे सभासद अपने अध्यक्ष से नाराज हैं। इसी पार्टर्ीीे कुछ सभासदों के इधर-उधर जाने की अफवाहें उडÞती रहती हैं। सबसे बुरा हाल इन दिनों सद्भावना पार्टर्ीीा है। पहले भी कई बार टूट के बाद राजेन्द्र महतो के जीतोडÞ मेहनत के बात ९ सीट जीतने में सफल रही सद्भावना पार्टर्ीीें अब सिर्फतीन सभासद रह गए हैं। पहले अनिल कुमार झा के नेतृत्व में चार सभासदों ने अपने को सद्भावना पार्टर्ीीे अलग कर संघीय सद्भावना पार्टर्ीीा गठन किया। अभी इस झटके से महतो उबरे भी नहीं थे कि रामनरेश राय यादव तथा गौरी देवी महतो ने भी पार्टर्ीीें विभाजन कर राष्ट्रीय स्दभावना पार्टर्ीीाम रख लिया। अब खबर यह भी आ रही है कि पार्टर्ीीे एक और सभासद व इस समय राज्य मन्त्री रहे सरोज यादव भी अलग प्लेटफार्ँम तलाश कर रहे हैं।
ऐसे में पार्टर्ीीालाकमान के लिए आत्म चिन्तन का समय आ गया है कि पार्टर्ीीें हुए विभाजन के लिए वो हमेशा दूसरों पर ही दोष थोपते रहेंगे या फिर अपनी कमी कमजोरी को भी देखेंगे। खैर, समग्र में देखा जाए तो मधेशी दलों के दूसरी पीढÞी के नेता में काफी दोष है। वह समझौतावादी राजनीति नहीं करना चाहते। डंके की चोट पर सरकार से बाहर होकर जनता के बीच जाने के लिए दबाव डाल रहे हैं। जब सरकार में रहकर कोई उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकती है तो फिर सरकार में रहने का औचित्य ही समाप्त होने का दावा दूसरी पीढÞी के नेता कर रहे है। ऐसे में मधेशी मोर्चा के शर्ीष्ा नेता काफी असमंजस में हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि कैसे सरकार में रहें और कैसे पार्टर्ीीो बचाया जाए। मधेशी नेताओं की हालत इस समय सांप छुछुंदर वाली हो गई है। ना तो सरकार छोडÞते बन रहा है और ना ही रहते। पार्टर्ीीे नेताओं को ऐसे में कठिन अग्नि परीक्षा की दौडÞ से गुजर रहे मधेशी मोर्चा को यह डर भी सता रहा है कि यदि खुदान खास्ते माओवादी कांग्रेस और एमाले ने एक साथ सरकार निर्माण के लिए हाथ मिला लिया तो मधेशी मोर्चा को जनता के बीच मे जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बच जाएगा। लेकिन जनता के पास जाने पर उन्हें बहिष्कार, तिरस्कार भी झेलना पडÞ सकता है।
मधेशी मोर्चा के लिए यह एक बडÞी उपलब्धि मानी जा रही थी। मधेशी जनता में भी एक आशा की किरण दिखाई दी कि शायद अब राजनीतिक रुप से मजबूत हुए मधेशी मोर्चा मधेश आन्दोलन के दौरान उठे मांगों को पूरा कराने में कोई कसर नहीं छोडेÞगी। आखिर उन्हीं मागों को पूरा करने के लिए मधेशी मोर्चा ने माओवादी के साथ समझौता भी किया था। नेपाली सेना में मधेशी युवाओं के सामूहिक प्रवेश की बात हो या फिर नागरिकता वितरण की बात सभी को लागू करने के लिए सरकार की तरफ से कोशिश जरुर की गई। लेकिन हम शायद यह भूल चुके थे कि सिर्फराजनीतिक रुप से सक्षम व संख्या बल में अधिक होने से मधेशी, दलित, जनजाति आदिवासी पिछडेÞ व अल्पसंख्यकों को अधिकार नहीं दिलाया जा सकता है। वैसे तो इस सरकार या यूँ कहें कि मधेशी मोर्चा और माओवादी के बीच हुए गठबन्धन के समय से ही इसका तीव्र विरोध होने लगा था। माओवादी का वैद्य पक्षधर मधेशी मोर्चा से गठबन्धन छोडÞने के लिए पूरा जी जान लगा दी तो कांग्रेस व एमाले ने इसे राष्ट्रघाती गठबन्धन करार दिया। यह तो वह विरोध था जो कि सामने दिखाई देता था और जिसका जवाब दिया जा सकता था। लेकिन इस गठबन्धन को समाप्त करने के लिए इस देश की शक्तिशाली मीडिया घराना, नागरिक समाज, पत्रकारों का एक बडÞा समूह, न्याय व्यवस्था, कार्यपालिका सब के सब साथ लगे हुए हैं। इनमें से कोई नहीं चाहता कि मधेशी जनता को नेपाली सेना में प्रवेश दिया जाए। इन में से कोई नहीं चाहता कि दशकों से या पुस्तों से नेपाल में रह रहे किसी भी मधेशी को यहाँ की नागरिकता दी जाए। इसके लिए न्यायालय को आगे कर सारा षड्यन्त्र किया जा रहा है। सरकार के मधेश से संबंधित या मधेश के फायदे के लिए होने वाले हर फैसले को कोर्ट ने अन्तरिम आदेश के तहत रोक लगा दी है।
यह तो रही सरकार के फैसले की बात। नेपाल का कर्मचारीतन्त्र भी मधेश विरोधी ही है। मधेशी मन्त्रियों की बातें न सुनना, उनके आदेशों का पालन नहीं करना, मन्त्री के निर्ण्र्ााें के उलट चलना चलाना, हमेशा मन्त्रियों को नीचा दिखाने के लिए उलटी सीधी सल्लाह देना यह सब सिंहदरबार के भीतर ही नहीं जिला तक में होता है।
इन्ही सब कारणों से मधेशी दलों के राजनीतिज्ञ हों या फिर उनके कार्यकर्ता या फिर मधेशी जनता सभी वर्तमान सरकार से हताश या निराश हो गए हैं। और इसका खामियाजा जनप्रतिनिधियों को भुगतना पडÞ रहा है। एक तो संविधान नहीं बनने से जनता में निराशा छा रही है ऊपर से सरकार बनने का कोई प्रत्यक्ष फायदा न होता देख मधेशी जनता का गुस्सा अपने सभासदों पर उतर रहा है। और सभासद् अपना गुस्सा मन्त्री बने नेताओं पर उतार रहे हैं।
इसके अलावा मन्त्री बने नेताओं का व्यक्तिगत व्यवहार भी मधेशी पार्टर्ीीे भीतर व्याप्त असंतोष को और अधिक हवा दे रहा हैं। सरकार में सामिल नेताओं और बाहर रहे नेताओं के बीच मतभेद बढÞते ही जा रहे है। असंतुष्टि चरम पर होने की वजह से सरकार से वापस होने का भी दबाव लगातार पडÞ रहा है।
इस समय देखा जाए तो मोर्चा से आवद्ध हर पार्टर्ीीे भीतर गुटबन्दी व असंतुष्टि अपने चरम पर है। मोर्चा से आवद्ध सबसे बडÞी पार्टर्ीीmोरम लोकतान्त्रिक के दर्जनभर से अधिक सभासद् पार्टर्ीीा साथ कभी भी छोडÞ सकते है। ये अपने शर्ीष्ा नेताओं के आचरण से तो दुःखी हैं ही इन में से कुछ मन्त्री नहीं बनने की वजह से भी परेशान हैं। रही सही कसर शरद सिंह भण्डारी ने पूरी कर दी है। भण्डारी भी अलग ही पार्टर्ीीोलने की तैयारी कर रहे हैं और इसके लिए उनका गृहकार्य भी चल रहा है।
फोरम गणतान्त्रिक में भी कुछ यही हाल है। पार्टर्ीीध्यक्ष जयप्रकाश गुप्ता सरकार की कार्यशैली पर टीका टिप्पणी करते नजर आते हैं। सरकार के फैसले, सरकार की कार्रवाही, मधेश विरोधी माहौल पर अपनी टिप्पणी से चर्चा में रहने वाले जेपी गुप्ता की भी पार्टर्ीीी अन्दरुनी स्थिति ठीक नहीं है। उनके साथ उपेन्द्र यादव का साथ छोडÞकर आए सभासद उन्हीं से नाराज चल रहे है। राजलाल यादव ने तो इस्तीफा तक की धमकी दे दी है। कृषिमन्त्री नन्दन दत्त भी अपने कार्यकर्ताओं के लिए कुछ नहीं कर पाने की वजह से खुश नहीं है। पार्टर्ीीे कुछ प्रभावशाली सभासद् गुप्ता के रवैये से ही नाराज है।
तमलोपा पार्टर्ीीे वाषिर्कोत्सव के दिन ही पार्टर्ीीी तरफ से सरकार में नेतृत्व कर रहे उपाध्यक्ष हृदयेश त्रिपाठी को काला झण्डा दिखाये जाने से साफ होता है कि तमलोपा के भीतर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। महन्थ ठाकुर की पार्टर्ीीर ढÞीली होती पकडÞ, त्रिपाठी व अन्य नेताओं के बीच अनबन की खबर और पार्टर्ीीें गुटबन्दी हाबी होने की वजह से तमलोपा में जितनी संख्या में सभासद् बच गए है, उतनी संख्या बनी रह जाए, इसकी कोई भी ग्यारन्टी नहीं है।
तमलोपा नेपाल ने भी पार्टर्ीीे सभासद अपने अध्यक्ष से नाराज हैं। इसी पार्टर्ीीे कुछ सभासदों के इधर-उधर जाने की अफवाहें उडÞती रहती हैं। सबसे बुरा हाल इन दिनों सद्भावना पार्टर्ीीा है। पहले भी कई बार टूट के बाद राजेन्द्र महतो के जीतोडÞ मेहनत के बात ९ सीट जीतने में सफल रही सद्भावना पार्टर्ीीें अब सिर्फतीन सभासद रह गए हैं। पहले अनिल कुमार झा के नेतृत्व में चार सभासदों ने अपने को सद्भावना पार्टर्ीीे अलग कर संघीय सद्भावना पार्टर्ीीा गठन किया। अभी इस झटके से महतो उबरे भी नहीं थे कि रामनरेश राय यादव तथा गौरी देवी महतो ने भी पार्टर्ीीें विभाजन कर राष्ट्रीय स्दभावना पार्टर्ीीाम रख लिया। अब खबर यह भी आ रही है कि पार्टर्ीीे एक और सभासद व इस समय राज्य मन्त्री रहे सरोज यादव भी अलग प्लेटफार्ँम तलाश कर रहे हैं।
ऐसे में पार्टर्ीीालाकमान के लिए आत्म चिन्तन का समय आ गया है कि पार्टर्ीीें हुए विभाजन के लिए वो हमेशा दूसरों पर ही दोष थोपते रहेंगे या फिर अपनी कमी कमजोरी को भी देखेंगे। खैर, समग्र में देखा जाए तो मधेशी दलों के दूसरी पीढÞी के नेता में काफी दोष है। वह समझौतावादी राजनीति नहीं करना चाहते। डंके की चोट पर सरकार से बाहर होकर जनता के बीच जाने के लिए दबाव डाल रहे हैं। जब सरकार में रहकर कोई उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकती है तो फिर सरकार में रहने का औचित्य ही समाप्त होने का दावा दूसरी पीढÞी के नेता कर रहे है। ऐसे में मधेशी मोर्चा के शर्ीष्ा नेता काफी असमंजस में हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि कैसे सरकार में रहें और कैसे पार्टर्ीीो बचाया जाए। मधेशी नेताओं की हालत इस समय सांप छुछुंदर वाली हो गई है। ना तो सरकार छोडÞते बन रहा है और ना ही रहते। पार्टर्ीीे नेताओं को ऐसे में कठिन अग्नि परीक्षा की दौडÞ से गुजर रहे मधेशी मोर्चा को यह डर भी सता रहा है कि यदि खुदान खास्ते माओवादी कांग्रेस और एमाले ने एक साथ सरकार निर्माण के लिए हाथ मिला लिया तो मधेशी मोर्चा को जनता के बीच मे जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बच जाएगा। लेकिन जनता के पास जाने पर उन्हें बहिष्कार, तिरस्कार भी झेलना पडÞ सकता है।
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