Thu. Mar 28th, 2024

प्रो. नवीन मिश्रा
आखिरकार ओली सरकार को जाना ही पड़ा, लेकिन राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीयस्तर पर अपनी छिछालेदारी कराने के बाद । अब तक के प्रजातान्त्रिक नेपाल में ओली सबसे खराब प्रधानमन्त्री साबित हुए । अधिनायकवादी, मधेश विरोधी और भारत विरोधी प्रधानमन्त्री के रूप में उन्होंने नेपाल के इतिहास में अपना नाम दर्ज करा लिया है । मधेश आन्दोलन के कारण जब आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हुई तो इसका दोष भारत के ऊपर मढ़ा गया कि भारत ने अघोषित नाकेबन्दी कर रखी है । इसके कारण भारत–नेपाल सम्बन्ध निम्न स्तर पर पहुँच गया । भारत के इस सुझाव को भी नकार दिया गया, जिसमें कहा गया था कि नए संविधान के निर्माण में देश के सभी वर्गों के हितो का समावेश होना चाहिए ।

फोटो साभार -ratopati
फोटो साभार -ratopati

एक ब्रिटेन की राजनीतिक संस्कृति है, जहाँ के प्रधानमन्त्री ने नैतिकता के आधार पर सिर्फ इसलिए त्यागपत्र दे दिया क्योंकि जनमत संग्रह में जिस विचारधारा की हार हुई थी, वह उस विचारधारा के समर्थक थे । जबकि ब्रिटेन में लिखित संविधान नहीं है, सब कुछ परंपरा पर ही आधारित है और एक हमारे देश की राजनीतिक संस्कृति है कि सरकार अल्पमत में आने के बाद भी सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं । वत्र्तमान संविधान के अन्तर्गत संसदीय प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया गया है, जहाँ सार्वभौम सत्ता जनता में निवास करती है । संसद जनता का प्रतिनिधित्व करता है । ऐसे में संसद में विश्वास खोना जनता में विश्वास खोना है । अतः सरकार को अल्पमत में आते ही तुरन्त प्रधानमन्त्री को अपना पद छोड़ते हुए त्यागपत्र दे देना चाहिए था । लेकिन ओली इस प्रजातान्त्तिक प्रक्रिया को छोड़ अधिनायकवादी प्रवृत्ति अपनाते हुए सरकार में टिके रहने का बहाना खोजने लगे । और कुछ नहीं हुआ तो धारा २१८ को ही विवाद में खड़ा कर दिया गया ।

यह भी कहा गया कि वर्तमान संविधान में नए सरकार गठन का प्रावधान नहीं होने के कारण यही सरकार सत्ता में बनी रहेगी । कब तक, यह पता नहीं । किसी भी संविधान में यह नहीं लिखा होता है कि किसी भी धारा का प्रयोग सिर्फ एक ही बार होगा । अतः स्पष्ट है कि जिस धारा के तहत ओली सरकार का गठन हुआ था, उसी धाराा के तहत अगली सरकार भी बनेगी । इतना ही नहीं अन्त में संसद भंग करने की भी धमकी दी गई । लेकिन स्पष्ट है कि अल्पमत सरकार की सिफारिश को राष्ट्रपति मानने के लिए बाध्य नहीं है और पहले राष्ट्रपति को दूसरी सरकार गठन का विकल्प तलाशना होगा, न कि वह संसद भंग कर दे । खैर इन सब बातों की नौबत नहीं आई । देर से ही सही लेकिन ओली सरकार को समय रहते ही अक्ल आ गई और प्रधानमन्त्री ओली ने त्यागपत्र दे दिया, नहीं तो देश में फिर एक बार संवैधानिक संकट का वितण्डा खड़ा हो जाता ।
प्रजातन्त्रिक नेपाल के प्रधानमन्त्रियों में ओली अब तक के सबसे ज्यादा मधेश विरोधी प्रधानमन्त्री रहे हैं और यही कारण है कि उनके हटने पर मधेश के कई इलाकों में जैसे कि महोत्तरी के जलेश्वर में मोमबत्ती जला कर दिवाली मनाई गई और मिठाइयाँ बाँट कर खुशी मनाई गई । मधेश आन्दोलन के समय शहादत हुए मधेशियों के विषय में ओली ने टिप्पणी की थी कि राज्यरुपी वृक्ष से अगर दो–चार पके फल (जनता) नीचे गिर भी जाते हैं तो इससे वृक्ष को कोई नुकसान नहीं होता । मधेशियों के विषय में देश के प्रधानमन्त्री के द्वारा दिए गए ऐसे वक्तव्य की जितनी निन्दा की जाए, कम है । इतना ही नहीं उन्होंने मधेशी जनता से यह भी कहा कि युपी, बिहार तुम्हारी जगह है, तुम वहीं जाओ । हम तुम लोगों को एक ईञ्च भी जमीन देने वाले नहीं हैं । मधेशी आन्दोलन को उसने बिहारियों का आन्दोलन कहा था ।

ओली के इन्हीं अदूरदर्शी बयानबाजी के कारण देश और भी द्वन्द्व में फँसता चला गया । ओली ने अपने प्रधानमन्त्री बनने की जल्दबाजी में बिना सभी विषयों को समेट हुए एक तरफा संविधान जारी कराने में अहम भूमिका निभाई । वास्तव में ०७२ जेठ २५ गते कांग्रेस, एमाले, माओवादी तथा मधेशी जनअधिकार फोरम के बीच हुए १६ बुँदे समझदारी के विपरित नयाँ संविधान जारी किया गया । मधेश आन्दोलन का मुख्य कारण यही था । जनता को आशा थी कि उसके हित और मर्म के अनुसार संविधान जारी किया जाएगा । इतना ही नहीं, संविधानसभा की बातें विषयगत समिति में और विषयगत समिति की बातें संविधानसभा में ला कर अधूरा संविधान जारी कर दिया गया जो मृतप्रायः है । संविधान जारी करना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है कि संविधान देश की जनता को स्वीकार्य हो । इस तरह ओली अपने सत्ता काल में मधेश विरोधी, संघीयता विरोधी, मधेश को अधिकार नहीं देने की नीतियों का अवलम्बन करते रहे । यही कारण था कि मधेशी मोर्चा ने प्रधानमन्त्री के निर्वाचन में ओली के विरुद्ध खड़े सुशील कोइराला के पक्ष में मतदान किया था और अब ओली के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव आया तो वे इसके पक्ष में खड़े थे ।
ओली सरकार के पतन के बाद नई सरकार गठन के लिए देश में नए समीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है और हो सकता है कि इस लेख के प्रकाशन तक नई सरकार का गठन भी हो जाए । नए समीकरण के दो प्रमुख दल माओवादी और नेपाली कांग्रेस के नेता प्रचण्ड और देउवा किसी न किसी रूप में मधेश आन्दोलन के पक्षधर रहे हैं और कहा है कि मधेश की मांगें जायज हैं और मधेश समस्या का समाधान जरुरी है । इन्हीं आश्वासनों के कारण इन दोनों दलों के नेताओं ने मधेशी मोर्चा के रिले अनशन को समाप्त कराया है ।

इस दृष्टिकोण से आने वाली नई सरकार से देश को और विशेष रूप से मधेश को बहुत अपेक्षा है । आने वाली सरकार के ऊपर निर्वाचन, संविधान कार्यान्वयन, मधेश समस्या समाधान जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ हैं, जिन्हेंं ईमान्दारी पूर्वक सम्पन्न करना होगा, तभी देश में स्थायित्व आ सकेगा ।
संयुक्त लोकतान्त्रिक मोर्चा के प्रमुख विषय संघीयता, प्रदेश का सीमांकन, नामांकन, समानुपातिक समावेशिता, नागरिकता, समान अधिकार, प्रान्तीय सरकार के अधिकार आदि हैं । मोर्चा ने इसे अपने ११ सूत्रीय मांग के रूप में प्रस्तुत किया है । आनेवाली सरकार से अपेक्षा है कि वह इन मांगों को पूरा करेगी । अप्राकृतिक तथा अवैधानिक रूप में सात प्रदेश विभाजन में सुधार, प्रथम संविधानसभा के समय गठित राज्य पुनर्संरचना आयोग द्वारा प्रस्तुत १० प्रदेश के आधार में सीमांकन, समानुपातिक समावेशिता, समान जनसंख्या के आधार में निर्वाचन क्षेत्र निर्धारण, उपरी सदन में समान तथा जनसंख्या के आधार में प्रतिनिधित्व, भाषा तथा नागरिकता की समस्या का समाधान आदि विषयों का कार्यान्वयन आने वाली नई सरकार किस प्रकार करती है, यह देखना होगा ।
अभी देश को एक ऐसे कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है, जो सबों को समेट कर एक साथ ले चल सके । नेपाली कांग्रेस और माओवादी के नए समीकरण से यह अपेक्षा है कि वह संविधान से असन्तुष्ट पक्षों को भी राष्ट्रीय राजनीति की मूल धारा से जोड़ने का प्रयास करे, जिससे संविधान में उल्लेखित समय के भीतर ही स्थानीय, प्रान्तीय तथा संघीय संसद का निर्वाचन सम्पन्न हो सके । यह भी बात चल रही है कि नया समीकरण इन बातों से सम्बन्धित एक लिखित दस्तावेज जारी करे । इस कारण नया समीकरण देश में अवरुद्ध संविधान कार्यान्वयन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगी । साथ ही निर्वाचित निकायों के द्वारा देश का संचालन करते हुए संघीयता के व्यवहार में लागू करने का प्रयास करेगी । नए समीकरण के निर्माण ने ‘सबै वाम एक ठाम’ की नीति को भी गलत साबित कर दिया है ।

साम्यवादी चरित्र का परित्याग कर बहुदलीय प्रतिस्पर्धा को स्वीकार करने वाली वाम शक्तियों से एकीकरण की आशा बेमानी है । आज देश तात्कालिक गतिहीन अवस्था से मुक्ति पाकर एक नए दिशा की तरफ अग्रसर हे । जनता में अब तक निराशा ही व्याप्त है । इतने लम्बे अर्से के संघर्ष के पश्चात् प्राप्त प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का लाभ अभी तक जनता को नहीं मिल पाया है । जिस तरह पिछली सरकारों से जनता को निराशा ही हाथ लगी है, उसी तरह नए समीकरण के निर्माण से भी जनता कुछ खास उत्साहित दिखाई नहीं दे रही है । अतः नई सरकार को जनहित में काम करना होगा, तभी वह जनता का विश्वास हासिल कर सकेगी । वैसे देखा जाए तो सबसे अधिक कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की हत्या माओवादी के द्वारा की गई होगी और इसी तरह कांग्रेस के शासन काल में माओवादियों की जानें गई होंगी । लेकिन आज कांग्रेस और माओवादी नए समीकरण के तहत हाथ मिलाने को तैयार हैं । राजनीति में कुछ भी अप्रत्यासित नहीं होता । जो भी हो नई सरकार देश को नई दिशा प्रदान करेगी, यही आशा की जानी चाहिए ।



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