मधेश और हिन्दी के लिये कुछ करना चाहता था धनजीव मिश्रा
मुरलीमनोहर तिवारी सीपु, बीरगंज , 15 अक्टूबर ।
धनजीव मिश्रा से मेरी पहली मुलाक़ात दो-तीन साल पहले, मधेशी शहीद पार्क, बीरगंज के कार्यालय में हुई। २० साल का सुन्दर-सुडौल, हँसमुख, तेजतरार लड़के के आंखों में चमक और मधेश के लिए कुछ करने की ललक देखी। वहाँ तमरा अभियान के युवा समिति का गठन करना था, जिल्ला अध्यक्ष के लिए कई उम्मीदवार थे, किसी एक का चुनाव करना कठिन हो गया, हमने सभी उम्मीदवारों को एक साथ बैठाया और आग्रह किया, “आपलोग अपने कलेजे पे हाथ रख कर खुद ही निर्णय करें, जो मधेश के लिए ज्यादा कारगर हो, उसे आपलोग स्वयं चुने”। सभी उम्मीदवारों ने धनजीव को चुना। मैं ख़ुद आश्चर्यचकित हो गया, जहां किसी पद के लिए मारामारी होती है, वही सभी में त्याग, समर्पण और विश्वास देख के लगा, अब मधेश बदलने वाला है।
धनबाबु से काम के दौरान घनिष्टता बढ़ती गई। हमेशा नए-नए कार्यक्रम करता, मधेशी शक्तियों को एक करने, गलतियो से ख़बरदार करने का योजना बनाता। इस बार के आंदोलन में कहने लगा, “धोखा होने वाला है”, फिर देखते ही देखते पर्सा के मधेशी दलों के युवाओं को एकत्रित कर “स्वतंत्र मधेशी आंदोलनकारी समिति” बन गया। एक दिन उसने कहा “रात को बंदरगाह से ट्रक जाने वाला है, इसे रोकना ही पड़ेगा” अपने साथीयो के साथ दौड़-धुप करता रहा, रात को जब प्रशासन ट्रक निकालने की फ़िराक में था, तभी सैकड़ो ऊख लदे ट्रेक्टर आते दिखे, प्रशासन कुछ समझ पाता तब तक ट्रेक्टर आगे निकल गए और आगे जाकर सारे ट्रेक्टर रास्ता बंद कर दिए। एक दिन तो ऐसे कट गया दूसरे दिन साधु-सन्यासी को बैठा कर रास्ता रोक दिया। पुरे आंदोलन में सभी युवा नेता ख़ुद के चंदा से गांव-गांव से लेकर पटना और दिल्ली में ओली को काला झंडा दिखाने तक पहुच गए।
धनजीव का सुचनातंत्र बहुत तगड़ा था, नेता-प्रशासन-व्यपारियों के पर्दे के पीछे की सारी हरकतें मालूम कर लेता था और उसे उज़ागर करने में किसी से डरता नही था। उसने कहा “हिमालिनी, खबरें देने में किसी दबाव में नही आता, मैं हिमालिनी में खोजी पत्रकारिता करके ग़लत को बेनक़ाब करते हुए, मधेश और हिंदी की सेवा करूँगा”। जब उसने नेता-प्रशासन-व्यपारियों की काली करतूतें उज़ागर करनी शुरू की, उसे तरह-तरह की धमकी मिलने लगी। एक दिन वो अपने मित्रों के साथ बैठा था, पुलिस आई सब को पकड़ कर ले गई, रात भर हवालात में रखा गया, कई तरीक़े से सुधर जाओ की नसीहत के साथ डराया-धमकाया गया, लेकिन धनजीव ना ही डरा, ना ही झुका। अन्त में प्रशासन को झक्क मारकर छोड़ना पड़ा। वो इस तरह की समस्या ख़ुद ही सुलझाया करता था, ना ही मुझे बताता, ना ही कोई मदद को कहता।
धनबाबू कभी एक जगह स्थिर नही रहता। हमेशा भाग-दौड़ करता रहता। मैं कभी हाथ पकड़ कर रोक लेता और कहता “धन बाबु आप पढाई, एकाउंटिंग क्लास, पार्टटाइम नौकरी, पत्रकारिता, राजनीती, पुजारी का काम करते हुए अपने घर के काम में भी हाथ बटाते है, कैसे ये सब कर लेते है ?” मुस्कुराकर कहता,”जानते है तिवारी जी, किसी को इंकार कर दुःखी करना मुझसे नहीं होता, इसलिए सब काम अपने ऊपर ले लेता हूँ”।
तमरा संयोजक जय प्रकाश गुप्ता जी को ‘सर’ कहता था, सर उसे चिढ़ाते और कहते “ये इतना गोरा और सुन्दर है, इस पर ध्यान रखना, नही तो कोई लड़की ही इसे भगा ले जाएगी”। सुनकर धनजीव शरमा जाता, और हमलोगों के ठहाको से पूरा कमरा गूंज जाता था। दशहरा से पहले, सर, मैं, ललित, और धनजीव आधी रात तक बीरगंज घंटा घर के पास टहलते रहे, उस दिन सर बहुत कुछ खिला रहे थे, सर मिठाई खिलाने ले गए, धनजीव संकोच कर रहा था, मैंने समझाया, “धनबाबू, सर ऐसे ही मिठाई नही खिला रहे है, इसमें जरूर कुछ विशेष है, ये उनका आशीर्वाद है, ये सब को नही मिलता”।
हमलोग एक ही कमरे में देर रात तक बातें करते रहे। सब अपने-अपने मन की बातें की बताने लगे, धनजीव ने कहा, “मैं मधेश में बहुत काम करना चाहता हु, उससे इतना नाम कमाना चाहता हु, की मेरे घर के लोग कांग्रेस छोड़ कर मधेश में जुड़ जाये”। सुबह सबको बिदा किए, धनजीव मेरा चश्मा लगा कर मुझसे फ़ोटो लेने को कहा, फोटो लेकर हमलोग बिदा हुए, कौन जानता था, वो मिठाई खाना, बातें करना, और फोटो…अंतिम फोटो होने वाला है।
दशहरा के दशमी के दिन शाम को फ़ोन आया, धनजीव नही रहा, सुनकर दिमाग में विस्फ़ोट सा हुआ, लगा अब कुछ सुनाई नही दे रहा, आँखों के आगे अँधेरा छा गया, कब ? कैसे ? ऐसा कैसे हो सकता है ? अपने साथियों को बताया, सब का यही हाल, जेपी जी को फ़ोन आया, मेरे गले से आवाज़ नही निकल रही था, आखों से आशु बह रहे थे, जैसे तैसे उन्हें कुछ बतलाया, वे भी झेल नही पाए, फ़ोन कट गया, बाद में साथियों से मालूम हुआ, वो भी रोते रहे। ‘हिमालिनी’ से सच्चिदानंद मिश्रा जी का फ़ोन आया, उनका भी यही हाल, फिर मुन्नाजी, ललितजी, पुष्पाजी, जयमोद जी, संतोष पटेलजी अनगिनत फ़ोन आए, सब का यही हाल। बिनेश पटेल तो मूर्छित होकर अस्पताल पहुच गए।
रात भर रोते बिलखते गुजरा, सुबह धनजीव के गांव पहुचे, सब जगह मातम पसरा हुआ था, कोई देवी माँ को दोष दे रहा था, कोई तंत्रमंत्र, कोई साजिश पर, मेरा धनजीव तो वापस आने वाला नही था, उसकी माँ हृदयरोग की मरीज़ है, पिताजी की हालत भी नाज़ुक है, उनको बचाना भी मुश्किल लग रहा था, समझ नही आरहा था, क्या सांत्वना दू ? तमरा अभियान का झंडा के साथ अंतिम संस्कार किया गया।
मैं, अभी तक इस सदमें से निकल नही पाया, ऐसा नही है की मैं बहुत भावुक हु, मैं इससे ज्यादा दर्द ख़ुद के जीवन में झेल चूका हूँ, आंदोलन के दौरान कई शहादत, प्रत्यक्ष देख चुका हूं, फिर ऐसी बेचैनी क्यों हो रही है, इसका एकमात्र कारण है, धनजीव का आदर्श जीवन। जहा मधेश के युवा नशे के कुलत में फसे है, अवसरवादिता से ग्रस्त है, चाटुकारिता, स्वार्थ और वासना से घिरे है, वहां धनजीव की जिंदादिली, सहयोग की भावना और सारे कुलत से मुक्त होना, आदर्श युवा बनाती है। इन्ही गुणों वाले धनजीव की जरूरत मधेश को है। मधेश के युवा इन गुणों को आत्मसात कर धनजीव को सदैव जीवित रख सकते है। अगर हम ऐसा कर पाए, तो यही धनजीव की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
धनजीव अमर रहे !! जय मधेश !!!