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प्रकाशप्रसाद उपाध्याय
उच्च शिक्षा के सिलसिले में दिल्ली में था । शिक्षार्जन के साथ ही नौकरी में प्रवेश करने का अवसर मिला । ग्राम्य परिवेश में पले इस पंक्तिकार का प्रारंभिक छात्र जीवन ज्यों–ज्यों भारतीय राजधानी जैसे महानगर में शिक्षा के विशाल मंदिर के वातावरण से परिचित और स्थानीय जनजीवन के विभिन्न पक्षों से अवगत होता गया त्यों–त्यों शहरी जीवन रोमांचकारी और उत्साहवद्र्घक लगने लगा । होली, दीवाली, क्रिसमस डे और नयाँ वर्ष जैसे अवसरों पर दिल्लीवालों का उत्साह और उल्लास जहाँ देखने लायक होता था वहीं नवरात्र के अवसर पर बंगाली समुदाय के लोगों के द्वारा देवी दुर्गा की पूजा के लिए जगह–जगह बनाए जाने वाले पंडाल, उनकी सजावट और देवी की प्रतिमा को विभिन्न प्रकार के आभूषणों और वस्त्रों के द्वारा किए जाने वाले श्रृंगार, रात्रि के अवसर पर पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों से निकलते रवीन्द्र संगीत एवं अन्य गीतों की ध्वनियाँ और अष्टमी से लेकर नवमी तक होने वाले धार्मिक अनुष्ठान वातावरण में जो भक्तिरस, पावनता और चहलपहल का संचार करते थे वह मन को छू लिया करते ।

विजयादशमी के अवसर पर आयोजित होने वाले इस अनुष्ठान के अलावा विभिन्न मोहल्ले में पंजाबी समुदाय के लोगों के द्वारा रात्रि के समय आयोजित किए जाने वाले वैष्णो देवी की महिमा गान, जो जगराता के नाम से जाना जाता है, वातावरण में धार्मिक रस का संचार करने के अलावा नई पीढ़ी को वैष्णो देवी की महिमा से अवगत कराने का काम भी करता है । इस पुनीत कार्य के लिए पंजाबी के प्रसिद्व गायक आमंत्रित किए जाते हैं, जो रात भर देवी की महिमा का बखान धार्मिक गीतों से करते हैं । इसके अतिरिक्त विजयादशमी के पावन अवसर पर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के द्वारा आयोजित किए जाने वाले रामलीला भी नवरात्र समारोह को चार चाँद लगाने और भक्तिरस से साराबोर करने में कोई कसर नही छोड़ती । बाल्यावस्था में समीप के गाँव मे अवस्थित छिन्नमस्ता भगवती के नित्य दर्शन और नवरात्र के अवसर पर होने वाली छुट्टियों के अवसर पर देवी की प्रार्थना के कारण मन में देवी भगवती के प्रति विद्यमान आस्था के कारण भी मैं नवरात्र के अवसर पर अपने निवास के निकट आयोजित होने वाले जगराता के कार्यक्रमों और बंगाली समुदाय के पंडालों मे माता भगवती की प्रतिमा के समक्ष नतमस्तक होने और अष्टमी के दिन होने वाली पुष्पाञ्जली कार्यक्रम में सहभागी होने जाया करता ।
इन्हीं सब कारणों से एक बार मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि दिल्ली की जनता जिस उत्साह और भक्तिभाव से अपने–अपने मोहल्ले में रात भर जगराता का कार्यक्रम आयोजित करते हुए माता रानी, त्रिकुटा एवं वैष्णवी के नाम से प्रसिद्घ माता वैष्णों देवी की महिमा गान करती रहती है, उन देवी भगवती के पावन स्थल की यात्रा पर जाकर सिर झुकाते हुए उनका आशिर्वाद प्राप्त किया जाय ।
इस भावना के साथ मैं बच्चों की छुट्टी के अवसर पर जम्मू के लिए चल पड़ा सपरिवार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से जम्मू तवी एक्सप्रेस में सवार होते हुए । ज्योंही ट्रेन प्लेटफॉर्म से रवाना हुई ‘जय माता दी’के उद्घोष से डिब्बे का वातावरण गुँजायमान हो उठा । ऐसा लगा कि सभी यात्री माता वैष्णों देवी के दर्शन के लिए जा रहे हैं । तवी नदी के तट पर अवस्थित जम्मू रेलवे स्टेशन पर उतरने पर वहाँ से बस लेकर ५०कि.मी. दूर अवस्थित कटरा नामक स्थान पर पहुँचे । वहाँँ के बस स्टैण्ड से मंदिर तक की १३कि.मी. की पदयात्रा करनी थी ।

अतः बच्चों के लिए एक छोटा घोड़ा (खच्चर)किराए पर लेकर माता के दरबार की यात्रा शुरु की । संध्या काल की यह यात्रा रास्ते भर आवागमन करते हुए तीर्थयात्रियों और उनके द्वारा किए जा रहे ‘जय माता दी, जोर से बोलो जय माता दी’जैसे उद्घोषों से रोमांचकारी हो रही थी । इस भक्तिपूर्ण वातावरण में ३–४घंटे की यात्रा कब पूरी हुई पता ही नही चला । जब बिजुली के प्रकाश से आलोकित मंदिर, उस पर लहराते झंडे और आसपास भक्तजनों की भीड़ दिखाई पड़ी तो मंदिर के प्रांगण में पहुँचने का आभास होने लगा ।
समुद्र की सतह से लगभग ५,२००फीट की उँचाई पर अवस्थित माता वैष्णों देवी का मंदिर सभी शक्ति पीठों में पवित्रतम होने का जन विश्वास है । कहते हैं–इस मंदिर के संबंध में लोगों को ७००वर्ष पहले पता लगा ।

सिखों के गुरु गोबिन्द सिंह के द्वारा माँ की इस पवित्र गुफा की यात्रा किए जाने का भी प्रसंग मिलता है । गुुफा में माता महासरस्वती, माता महालक्ष्मी एवं माता महाकाली के तीन पींड अवस्थित है । यह तीनों पींड जन आस्था की ऐसी प्रतिमूतिर्याँ हैं कि यहाँ प्रति वर्ष लाखों भक्तजन शिर झुकाने और माता का आशिर्वाद प्राप्त करने आते हैं । कई भक्तजन तो प्रति वर्ष ही वहाँ सिर झुकाने जाते हैं । पर नवरात्र के अवसर पर भक्तजनों की संख्या करोड़ों में पहुँचती है ।
हम लोग रात्रि के प्रहर पहुँचे थे । मंंिदर काफी ऊँची पहाड़ी पर अवस्थित होने के कारण हम लोग ठंढ महसूस करने लगे । मंदिर के अंदर दर्शनार्थियों की भीड़ को जमा होने से रोकने के लिए कटरा में तीर्थयात्रियों को टिकट वितरण किया गया था, जिस पर अंकित संख्या के आधार पर ही मंदिर में प्रवेश करना होता था । ठंढ बढ़ती जा रही थी । मंदिर में प्रवेश का अवसर हमें रात को मिलता या सुबह यह निश्चित नही था । अतः मैं रात की सर्द से बचने की उपाय सोच रहा था ।

तभी किसी ने कहा–‘उधर जाइए, कंबल मिल जाते हैं, बच्चों को ओढ़ा दीजिए ।’ कंबल की खोज में पहुँचा । पता चला कंबलें खतम हो गई हैं । पर तब तक पता चला कि मंदिर में प्रवेश करने हमारा नंबर निकट आ रहा है । मंदिर में प्रवेश करने से पहले स्नान करना होता, अतः स्नान करने पहुँचे । पानी इतना ठंढा था कि शरीर सिहर उठा । फिर भी बच्चों को स्नान कराने के बाद हम लोग दर्शन के लिए गुफा के मार्ग से मंदिर के अहाते में पहुँचे । माता रानी के पींड के पास पहुँचने के लिए काफी देर चलना पड़ा । रास्ते में कई देवी–देवताओं की मूर्तियाँ थीं । हर स्थान पर सिर झुकाते और दक्षिणा चढ़ाते हुए जब हम मूख्य स्थल पर पहुँचे तो अनुभव किया कि सारे खुदरे पैसे समाप्त हो चुके हैं । माता रानी की पींडी के समक्ष डण्डवत करने क्या लगे पुजारी महोदय कहने लगे–‘अब चढ़ावा चढ़ाओ ।’

अर्थात दक्षिणा चढ़ाओ । जब मैने कहा कि सारी रेजगारियाँ आते हुए रास्ते की मूर्तियों पर चढ़ाने के कारण खतम हो गए तो पुजारी निष्ठूर स्वर में कहने लगे–‘अब चलो यहाँ से, बड़े आए हैं दर्शन करने ।’ उनकी इन रुखी बातों से मन इस कारण खिन्न नही हुआ कि माता रानी के दर्शन पाने काु सुख प्राप्त हो चुका था, देवी को चढ़ाने के लिए रखी रेजगारियाँ भी मंदिर के अंदर की विभिन्न देवी–देवताओं की मूतिर्यों पर ही अर्पित कर चुका था और अपनी यात्रा का उद्येश्य पूरा हो चुका था । पर आज जब पुजारी महोदय की बातों का स्मरण हो उठता है तो लगता है कि पूजा स्थल भी संबंधित लोगों के लिए व्यावसायिक केन्द्र होते जा रहे हंै, जहाँ भक्त जनों की श्रद्घा और भक्ति भावना से अधिक महत्व उनके द्वारा चढ़ाए जाने वाले दक्षिणा और उसकी राशि को दिया जाता है । अब सुनते हैं कि श्री जगमोहन के द्वारा जम्मु– कश्मीर के राज्यपाल बनने के बाद वहाँ सुधार के कई कार्यक्रम लागू किए गए और पहले की तरह अब अनियमितता नही है ।
देवी के दर्शन पश्चात बाहर आए तो पौ फट चुकी थी । अब जम्मू लौटने की जल्दी थी, क्योंकि हम लोगों का अगला कार्यक्रम श्रीनगर जाने का था । इधर–उधर घोड़े की तलाश में नजर दौड़ाने लगे,ताकि बच्चों की वापसी यात्रा सरल हो । पर घोड़े नही दिखे । पूछने पर एक यात्री कहने लगे –‘यहाँ घोड़ा मिलना मुश्किल है । एक–दो आते हैं, पर लौटने वाले बहुत होने के कारण आसानी से नही मिलते । अतः सुबह–सुबह पैदल ही निकलना ठीक रहेगा ।’ उनकी बात जँच गई और हम लोग निकल पड़े । चढ़ाई न होने के कारण उतरने में आसानी हो रही थी । बच्चे भी उत्साहित हो रहे थे । सबसे छोटी बिटिया को हम पति पत्नी बारी–बारी से गोद में उठाते । कभी वह भी अपने भाई–बहनों के साथ चलने को मचलती तो उतार देते । उसका फुदक–पुदक कर चलना सभी को अच्छा लगता । इस तरह हम लोग बाणगंगा होते हुए जम्मु लौटे । रास्ते में जलपान करने के बावजूद भूख लग रही थी । अतः एक ढाबे में पहुँचे । मुख्य भोजन राजमा और चावल था । खाकर भूख मिटाई और पहुँचे जम्मू रेलवे स्टेशन पर । बच्चों को कुर्सी में बिठाने के लिए उठाने लगे तो पाया कि बड़ी बेटी ज्वर से तप रही है । रात का स्नान और थकानपूर्ण यात्रा शायद ज्वर के कारण रहे हाें । फिर भी ऐसी हालात में श्रीनगर जाना उपयुक्त नही लगा । दिल्ली लौटने का रेल टिकट भी ३–४ दिन बाद का था । सारी यात्रा स्थगित करते हुए जम्मू में ही विश्राम करने की नियत से एक होटल में पहुँचे । दिन भर का विश्राम और रात की गहरी नींद के बाद भी सुबह पैरों में सूजन और दर्द का अनुभव होने लगा । दो दिन के विश्राम के बाद जब राहत महसूस होने लगी और बेटी का बुखार भी उतर गया तो सोचा जम्मू के भी कुछ दर्शनीय स्थलों की यात्रा की जाय । होटलवालों से पूछा तो पता चला कि वहाँ का रघुनाथ मंदिर एक प्रसिद्घ दर्शनीय स्थल है । अतः हम लोग वहाँ पहुँचे ।
महाराज रणजीत सिंह के आदेश पर तवी नदी के तट पर बनाई गई यह मंदिर जम्मू शहर के मध्य में है और उत्तर भारत के विशालतम मंदिरों में एक मानी जाती है । सन् १८२२–१८६०में निर्मित इस मंदिर को महाराज रणवीर सिंह के शासन काल में पूर्णता मिली । इस मंदिर के शिखारे सात विभिन्न पीठों के प्रतीक माने जाते हैं । मंदिर में प्रमुख देवी–देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित की गई है । यद्यपि यह प्रमुख रूप से भगवान राम के प्रति समर्पित है । पर यहाँ शिवलिंगों और नेपाल की गंडक नदी से लाए गए शालिग्रामों की जिस सज्जा के साथ स्थापना की गई है वह भक्त जनों के समक्ष एक अदभुत् दृश्य प्रस्तुत करता है । लेकिन इसे एक विडंवना ही यह मानी जानी चाहिए कि ऐसा पावन स्थल जिसमें सिख और मुस्लिम स्थापत्य कला का भी प्रभाव विद्यमान हो, सन् २००२में लस्करे तोईबा जैसे आतंकवादी के निशाने का केंद्र बना ।
मंदिर के दर्शन के बाद हम लोग खाना खाने गए और अपनी यात्रा को मनोरंजक बनाने स्थानीय सिनेमा गृह में पहुँचे । बेटी बीमार न होती तो शायद हम लोग श्री नगर में होते पर उसकी अस्वस्थता ने हमें कुछ और ही अवसर दिया । शायद यही देवैच्छा थी । आज भी जब माँ वैष्णों देवी के दर्शन की पावन स्मृति होती है तब वह सारी घटनाएँ फिर ताजी हो उठती है जो माता रानी के दर्शन के अवसर पर हमें अनुभव करने पड़े ।
संदर्भ सामग्रीः–
१.रेडियो जिन्दगी
(प्रकाशक– घोस्ट राइटिंग, काठमांडू)
२.गुगल्स



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