बहुत जल्द टूटेगा मधेश का चक्रव्यूह : मुकेश झा
मधेश के राजनैतिक चक्रव्यूह का तीसरा घेरा मधेशवादी राजनैतिक पार्टियों में मधेशवाद की कमी । मधेश में वर्तमान में रहे राजनैतिक पार्टीयों के नेतृत्व पंक्ति शक्ल से तो पूर्ण मधेशी हैं परन्तु मानसिक अवस्था से अर्ध मधेशी । यह न तो संघर्ष के समय पूर्ण मधेशी, न सत्ता के साथ किसी प्रकार का सम्झौता करते समय पूर्ण मधेशी और न ही सम्झौता को कार्यान्वयन के समय पूर्ण मधेशी होते हैं । जिसका प्रतिफल है १२ साल के लोकतांत्रिक अभ्यास में मधेश आज भी बिना पतवार के इधर उधर हो रहा है । कभी उपेन्द्र यादव मधेश के मसीहा बन जाते हैं, तो कभी राजेन्द्र महतो तो कभी महन्थ ठाकुर । माओवादियों में माओवाद लगभग पूरा था, इसलिए उनसे जो समझौता किया गया वह लागू करवाया, एमाले में माक्र्सवाद और लेनिनवाद शायद पूरा है (?) इसलिए जिस मुद्दे को पकड़ता है उसको छोड़ता ही नहीं भले ही उसके लिए देश और जनता को कोई भी कीमत चुकानी पड़े । कांग्रेस में भी वर्चस्ववाद का सिद्धान्त कायम है, पर मधेशवादी में मधेशवाद की कमी है । यह बात सत्ता भी जानती है तभी तो उधार में सम्झौता कराती है और ये करते भी हैं । ऐसा होता इसलिए है कि वर्तमान के मधेशवादी पार्टियों के नेताओ का प्रारंभिक प्रशिक्षण काँग्रेस, एमाले जैसे पार्टीयों में हुआ है, सीधा कहे तो उनका नमक खा कर इन्होंने राजनैतिक अभ्यास किया है । तो जब मुद्दे पर अड़ने की बात होती है मुद्दा पर नमक हावी हो जाता है और मधेशवादी नेता झुक जाते हैं । अगर ऐसा नहीं रहता और वास्तव में मधेश मुद्दों प्रति मधेशी नेताओं की आस्था सुदृढ़ रहती तो वह लोग मधेश से महत्वपूर्ण सत्ता को नहीं मानते और मधेशी जनाअधिकार फोरम में फूट नहीं होती ।
यहाँ दोष सिर्फ मधेशवादी दल में ही नहीं, नेपाली काँग्रेस, एमाले, माओवादी जैसे पार्टियों में लगे आम मधेशी जनता का भी है, जो इन पार्टियों के घेरावन्दी को देख नहीं पा रहे हैं । दोष मधेश के अधिकारकर्मी और बुद्धिजीवियों का भी है जो आम मधेशी जनमानस को यह बात समझाने में असमर्थ हैं । जब मधेशी बुद्धिजीवी एमाले, माओवादी व कांग्रेस में लगे मधेशी को नहीं समझा सकते तो देश के शासक और अंतरर्राष्ट्रीय मंच को कैसे समझा सकेंगे ? वैदेशिक नियोग तो कहेगा अगर वास्तव में काँग्रेस, एमाले, माओवादी मधेश के साथ बेईमानी कर रहा है, तो उनके साथ इतने मधेशी चेहरे क्यों जुड़े हैं ? जिसका जवाब शायद मधेशी बुद्धिजीवी के पास नहीं हो, अगर हो भी तो ‘स्वार्थ के लिए’ कहने के अलावा कुछ नहीं कहेंगे ।
काँग्रेस, एमाले व माओवादी से जुड़े मधेशी नेता और कार्यकर्ता से एक सवाल है कि मधेश विद्रोह से जो नेपाल में मधेशियों को आरक्षण मिला क्या उसका लाभ काँग्रेस, एमाले व माओवादी में लगे मधेशियों को नहीं मिल रहा है ? क्या सिर्फ मधेशवादी दल के कार्यकर्ता ही लाभ ले रहे हैं ? इसी तरह अगर संविधान संसोधन करके जनसंख्या के आधार पर गांव पालिका बने, नगरपालिका बने, प्रदेश और संसद का निर्वाचन क्षेत्र बने तो मधेशियों की पहुँच हर जगह बढ़ेगी इससे मधेश को फायदा है या नुकसान ? अगर स्थानीय तह की संख्या में बढ़ोत्तरी होती है तो उसमें जो बजट आएगा उससे मधेश को फायदा है या नुकसान ? अवश्य फायदा है । तो क्या वह फायदा सिर्फ मधेशवादी दल को होगा या मधेश में जो भी है सब को ? इस बात को समझते हुए मधेश के काँग्रेस, एमाले व माओवादी के स्थानीय नेता कार्यकर्ता को अपने अपने नेतृत्व पंक्ति को दवाब देना चाहिए । शिघ्रातिशीघ्र संविधान संशोधन करके मधेश में जनसँख्या के आधार पर स्थानीय तह का संख्या बढ़ाए, प्रदेश एवम् संसद का निर्वाचन क्षेत्र भी जनसंख्या के आधार पर बनाये । अगर मधेश के हित में स्थानीय नेता कार्यकर्ता द्वारा कही हुई बात केन्द्रीय नेतृत्व नहीं मानती है तो सिर्फ झोला उठाने के लिए वैसी पाटिर्यों में क्यों रहना है ?