वाम सरकार क्या मधेश के हक में होगी ? : डॉ. श्वेता दीप्ति
सवाल मुँह बाए खड़ा है कि क्या संविधान संशोधन होगा ? क्या पहचान और अधिकार के लिए किए गए आन्दोलन का प्रतिफल मिलेगा जिसके लिए इस चुनाव में मधेश की जनता ने मधेशवादी दल पर यकीन किया है ?
वही है कि क्या वाम की सरकार संविधान संशोधन होने देगी ? क्योंकि जब वो विपक्ष में थी तब भी वो संशोधन के खिलाफ थी आज जब सत्ता उनके पास होगी तो क्या उनकी नीति परिवर्तित होगी ?
नेपाल के लोकतंत्रीय व्यवस्था का महापर्व समाप्त हो चुका है । वामगठबन्धन के दो तिहाई के दावे तकरीवन सही हुए और इसके साथ ही पर्दे के पीछे के मनसूबों ने भी जीत हासिल की । पहाड़ी समुदाय ने काँग्रेस को नकारा क्योंकि, उपरी तौर पर ही सही वो मधेश के साथ चल रही थी इसलिए उन्हें राष्ट्रवाद की घुट्टी के आगे लोकतंत्र की सुरक्षा का नारा मन नहीं भाया । वहीं मधेश ने भी काँग्रेस को नहीं स्वीकार किया क्योंकि उसे काँग्रेस के नीयत का खलल पता चल चुका था । यही कारण है कि जहाँ काँग्रेस की नींव हिली वहीं मधेशवादी दल मधेश के मुद्दों को सीमित कर, अपनी सीमितता में भी विजय का जश्न मना रही है ।
मधेश की परिभाषा आठ जिलों में पहले ही सिमट चुकी है इसलिए स्वाभाविक रूप से मधेशवादी दल इतने में ही सफलता हासिल कर खुश हैं । परन्तु आगे क्या होगा यह प्रश्न जनमानस के मन को मथने लगा है । अब तक तो देश ही संक्रमणकाल से गुजर रहा था और अब तो हर प्रांत इस संक्रमण काल से अलग–अलग गुजरने वाला है । हर प्रांत को एक सक्षम नेतृत्व ही नहीं सक्षम टीम की आवश्यकता है । क्योंकि हर एक प्राँत उस नवजात शिशु की तरह होगा जिसे अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए अभिभावक को ईमानदारी से मेहनत करनी होती है । जीते हुए प्रतिनिधि के त्याग और धैर्य को परखने का वक्त है जिसकी कमी अक्सर हमारे नेताओं में दिखती आई है । वहीं केन्द्र में वामगठबन्धन की सरकार बनेगी यह भी तय है । ऐसे में यह जिज्ञासा भी जनमानस के मन में है कि क्या आगे के पाँच वर्षों में किसी एक का नेतृत्व होगा या या फिर विगत की भाँति किस्तों में कुर्सी का बँटवारा होगा ? माना यह जा रहा है कि ओली प्रधानमंत्री होंगे और प्रचण्ड एकीकृत पार्टी के कार्यवाहक अध्यक्ष । पर पार्टी एकीकरण की सम्भावना ज्यादा प्रबल नहीं दिख रही और पदमोह से प्रचण्ड भी मुक्त नहीं हैं । यह राजनीति है और इसमें एक कयास यह भी लगाया जा रहा है कि अगर पार्टी एकीकरण नहीं होता है तो ओली निश्चितता के साथ प्रधानमंत्री पद का आनन्द नहीं उठा पाएँगे क्योंकि साथी के साथ छूट जाने का डर हमेशा उनके सामने रहेगा । स्रोत के अनुसार माना यह जा रहा है कि पार्टी एकता के लिए ओली, प्रचण्ड के अतिरिक्त एमाले शीर्ष नेता माधव नेपाल, वामदेव गौतम, झलनाथ खनाल और माओवादी की ओर से रामबहादुर थापा, पम्फा भुसाल, नारायणकाजी श्रेष्ठ आदि के पद बटवारे हो चुके हैं । बावजूद इसके परिदृश्य को बदलने में देर नहीं लगेगी अगर प्रचण्ड को काँग्रेस, मधेशवादीदल प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार कर लेती है और सरकार बनाने का आग्रह करती है । प्रचण्ड इस ऑफर को मान लेते हैं तो इन तीनों का गठबन्धन ओली की राजनीति में एक और विचलन की स्थिति पैदा कर सकती है । कमोवेश इस परिस्थिति का अंदाजा ओली को भी होगा इसलिए वो चाहेंगे कि जल्द से जल्द पार्टी एकीकरण हो जाय और वो निश्चिन्त होकर सत्ता सुख उठा सकें और तभी देश भी एक स्थिर सरकार का आनन्द ले सकेगा और जहाँ स्थिरता होगी वहाँ विकास की गति भी जरुर बढ़ेगी जो इस देश की आवश्यकता है ।
इन सबके बीच जनता की दिलचस्पी एक और विषय में है कि नई सरकार की विदेश नीति क्या होगी ? तो इस संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि कुर्सी पाने के लिए आप चाहे शब्दों के तीर चला लें पर काबिज होने के बाद सुर बदल जाते हैं, वहाँ प्रतिनिधि की स्थिति सरक्षात्मकता की होती है आक्रमकता की नहीं । ऐसे में सरकार कोई भी हो परन्तु विदेश नीति के सम्बन्ध में देउवा, ओली और प्रचण्ड तीनों की अवधारणा लगभग एक सी है । सभी अपने दोनों पड़ोसी को साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं और यही देश हित में सही होगा । हम लोकतंत्र में साँस ले रहे हैं तो उसके मर्म को भी आने वाली सरकार को समझना होगा और लोकतंत्र का सम्मान करना होगा ।
इन सबके बीच एक बार फिर से मधेश की स्थिति और भूमिका पर गौर करना होगा, क्योंकि मधेश के लिए आज भी सुरसा की तरह वही सवाल मुँह बाए खड़ा है कि क्या संविधान संशोधन होगा ? क्या पहचान और अधिकार के लिए किए गए आन्दोलन का प्रतिफल मिलेगा जिसके लिए इस चुनाव में मधेश की जनता ने मधेशवादी दल पर यकीन किया है ? वामगठबन्धन दो तिहाई मत के बहुत नजदीक है इसलिए स्वाभाविक है कि सरकार उनकी बनेगी । चुनावी प्रदर्शन में माओ से बेहतर एमाले की स्थिति है, जाहिर है कि वर्चस्व उनका ही होगा । वैसे भी दो विपरीत धार एक जगह आई थी, अब इनके सम्बन्ध की अटूटता को परखने का वक्त है । वैसे माओवादी संविधान संशोधन के मुद्दे से पहले ही पल्ला झाड चुका है एमाले से हाथ मिलाकर, इसलिए मधेश की निगाह माओ से भी कोई उम्मीद नहीं रखती । वहीं एमाले अध्यक्ष जीत के बाद स्पष्ट तौर पर बयान दे चुके हैं कि संविधान संशोधन नहीं संविधान कार्यान्वयन उनका ऐजेन्डा है । ऐसे में उनपर मधेश कितना यकीन कर सकता है ? परन्तु जीत के साथ ही राजपा नेपाल और ससफो अध्यक्ष यादव ने यह जाहिर कर दिया है कि वो वामगठबन्धन के साथ जाने को तैयार हैं । वाम गठबन्धन राजपा से अधिक ससफो को अपने साथ लेकर चलने को तैयार हो सकता है यह विगत का रुझान बताता है । वैसे तो सरकार बनाने के लिए गठबन्ध को किसी की जरुरत नहीं है, परन्तु दो नम्बर प्रदेश में अपनी कमजोर स्थिति को मजबूत करने के लिए वो ससफो को अपने साथ जरुर लेना चाहेगा ।
जहाँ तक सरकार गठन के लिए आँकड़ों का सवाल है तो वह गठबन्धन के हक में जा चुका है । प्रत्यक्ष की ओर से १६५ में से नेकपा एमाले ८०, माओवादी केन्द्र ३६, काँग्रेस २३ जगहों पर विजयी हो चुकी है । राजपा नेपाल ने ११ पर और संघीय समाजवादी फोरम ने १० तथा एक स्वतंत्र और अन्य पाँच ने विजय प्राप्त किया है । एमाले और माओवादी के वाम गठबन्धन ने प्रत्यक्ष में ७० से अधिक सीट जीता है और समानुपाती में भी उनका मत ५० प्रतिशत है । समानुपातिक निर्वाचन प्रणाली से विगत के दो संविधान सभा में २२ हजार या २५ हजार मत लाने वाले दल प्रतिनिधित्व पाते थे । पर इस मरतबा यह बात सम्भव नहीं है । अब बनने वाले प्रतिनिधि सभा में समानुपातिक निर्वाचन प्रणाली की ओर से कुल सदर मत का न्यूनतम तीन प्रतिशत लाने वाला राजनीतिक दल ही सिर्फ समानुपातिक सीट से प्रतिनिधित्व पा सकता है । विगत में कम मत लाने वाले और एक सीट पाकर भी समानुपाती में संसद में प्रतिनिधि करने वाले आधा दर्जन से भी अधिक सदस्य थे । परन्तु इस बार तीन लाख से अधिक मत लाने की व्यवस्था तय हो चुकी है । निर्वाचन आयोग के अनुसार प्रतिनिधि सभा और प्रदेश सभा निर्वाचन में देश भर के एक करोड़ पाँच लाख सतासी हजार पाँच सौ मतदाताओं ने मतदान किया है । यह अनुमान पर आधारित आँकड़ा है जिसमें परिवर्तन सम्भव है । संख्या बढ़ भी सकती है और कम भी हो सकती है । निर्वाचन कानून ने समानुपातिक की ओर से प्रतिनिधि सभा के लिए तीन तथा प्रदेश सभा के लिए १.५ प्रतिशत मत का थ्रेसहोल्ड निर्धारित किया है । प्रतिनिधि सभा निर्वाचन ऐन के दफा ६०(११) और प्रदेशसभा निर्वाचन ऐन के दफा ६०(९) में इस प्रावधान का उल्लेख है । इस परिप्रेक्ष्य में अगर परिणाम देखें तो अब तक के ५८ लाख मतगणना होने की स्थिति में समानुपातिक की ओर से सिर्फ पाँच दल थ्रेसहोल्ड की परिधि के भीतर हैं । जिसमें एमाले सबसे आगे है उसे ३४.८८ प्रतिशत मत मिले हंै वहीं माओवादी ने १३.४८ प्रतिशत प्राप्त किया है । दोनों को मिला कर देखें तो ४८.५ प्रतिशत मत इनका है । समानुपाती में भी एमाले की अग्रता कायम है । तथ्य यह है कि प्रतिनिधि सभा में और संसद में वर्चस्व एमाले का है और माओवादी उनके साथ सहकार्य में शामिल है ।
ऐसे में सवाल पुनः वही है कि क्या वाम की सरकार संविधान संशोधन होने देगी ? क्योंकि जब वो विपक्ष में थी तब भी वो संशोधन के खिलाफ थी आज जब सत्ता उनके पास होगी तो क्या उनकी नीति परिवर्तित होगी ? अगर एमाले अध्यक्ष के उपरोक्त कथन पर ध्यान दें कि संविधान संशोधन नहीं संविधान कार्यान्वयन ऐजेंडा है तो ऐसे में मधेशवादी दलों का इनके साथ जाना कहाँ तक औचित्यपूर्ण है ? संसद के परिदृश्य में अगर कोई बदलाव दिख रहा है तो यह कि सरकार बदल गई है पर कल जिनकी वजह से संशोधन नहीं हुआ था आज वो सिरमौर हैं तो क्या आज वो संशोधन होने देंगे ? क्योंकि संशोधन को उन्होंने सिर्फ मधेश से नहीं जोड़ा था, उसे विदेशी साजिश करार दिया था और वहीं से राष्ट्रवाद का नारा बुलन्द हुआ और वही इनकी जीत का परचम लहराने में सहायक सिद्ध हुई है, ऐसे में जिस आधार पर उनकी जीत कायम हुई है क्या उसे वो खंडित करेंगे ? अगर वो संशोधन के पक्ष में नहीं होते हैं तो उनके साथ मधेशी दलों का जाने का भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि तब मधेशी दल मधेश की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे होंगे । इसलिए उन्हें कोई भी कदम उठाने से पहले इस विषय की संवेदनशीलता को समझना होगा । हिमालिनी , दिसम्बर २०१७ \