मधेश की अधिकार सुरक्षित करें
श्री महन्थ ठाकुर जी तथा,
सं.लो. मधेशी मोर्चा के नेतागण,
जय मधेश !
जैसा कि आप सबों को मालूम ही है कि मैं जेल में हूं। आपमें से कुछ नेता जब जेल में मुझसे मिलने आते तो कभी कभी मुझे अपनी धारणा को आपके समक्ष रखने का मौका
मिला था। इस समय मुझे लगा कि संविधान सभा के कुछ तात्कालीन विषय वस्तु के बारे में ध्यानाकर्षा कराते हुए यह पत्र लिख रहा हूं।
नए संविधान के मसौदा, विशेषतः राज्य पर्ुनर्संरचना के संबंध में जेठ २ गते हुए चार पक्षीय सहमति से मैं अत्यन्त ही निराश हूं। मधेश आन्दोलन की उपलब्धि की रक्षा और प्राप्ति के संबंध में यह किसी दर्ुघटना से कम नहीं है। इस समय हमारे नेताओं की उपस्थिति संपर्ूण्ा विषयों के सार में सहमति, ११ प्रदेशों की संघीय संरचना में अप्रतिबद्ध फरक मत और इन सभी सहमतियों के कार्यान्वयन में बाधक नहीं बनने की मोर्चा के नेताओं की अभिव्यक्ति की निश्छलता के बारे में काफी समय बाद तक सवालों और संदेह के घेरे में रहने वाला है। और हमारा सर हमेशा ही झुका ही रहने वाला है।
ऐसे समय हमारे नेताओं की द्विविधाग्रस्त तथा किर्ंकर्तव्यविमूढ रहने की स्थिति को मैं जेल के कठिन जीवन में रहते हुए भी समझ सकता हूं। बाध्यता में होने के बावजूद सहमति होना और जितना भी विरोध करने के बावजूद कडवी सच्चाई यह है कि मधेश को विभाजित कर दिया गया। और हम इस दुखद, आत्मघाती और अनिष्टकारी मधेश विभाजन को नहीं रोक पाए। अमर्ूत रूप में ११ प्रदेश की सहमति पर वस्तुतः माओवादी के लिए ‘जातीय राज्य नहीं त्यागना’, और मधेशी मोर्चा के लिए उसी ११ प्रदेश के भीतर हमारी मांग ‘एक मधेश प्रदेश या स्वायत्त मधेश प्रदेश’ की संभावना है इस बात को बतला कर अपने शुभचिन्तक और शुभेच्छुओं को कुछ देर तक भ्रम में रखने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर सकते हैं।
मेरा निवेदन है कि, इस समय आपलोगों को ऐतिहासिक दायित्व पूरा करने के लिए साहसिक कदम उठाना चाहिए। अंधेरे में किसी डोरी या रस्सी को कोई डरपोक आदमी तब तक सांप मान सकता है जब तक कि वो उसे छुने का साहस कर यह नहीं देख लेता कि वह डोरी है या र्सप। इस समय यह साहस कौन कर सकता है – जनता का नेतृत्व करने वाले नेताओं को या फिर जनता को ही इस शाश्वत विषय के ऊपर गम्भीरतापर्ूवक विचार करना चाहिए।
संयुक्त लोकतांत्रिक मधेशी मोर्चा में शामिल होते समय ही हमने अपने ध्येय के बारे में काफी विचार विमर्श कर स्पष्ट हो गए थे। नए बनने वाले संविधान में १० मधेशी पहिचान की मान्यता को स्थापित करना, २० स्वायत्त मधेश प्रदेश की स्थापना करना, ३० समान जनसंख्या पर आधारित निर्वाचन क्षेत्र और प्रतिनिधित्व प्रणाली, ४० मधेश की भाषा को सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में मान्यता, ५० राज्य के सभी निकायों तथा अंगों में जनसंख्या के आधार में समानुपातिक प्रतिनिधित्व, ६० केन्द्र और प्रदेश के बीच में अधिकारों का समुचित बंटवारा आदि हमारा आधारभूत ध्येय था।
उपर्युक्त सर्ंदर्भ में हमें क्या मिला – इसकी तथ्यपरक विवेचना होनी चाहिए। शासकीय स्वरूप में प्रत्यक्ष राष्ट्रपतीय प्रणाली और कार्यकारी प्रधानमंत्री का निर्वाचन संसद से होना किसी भी रूप से मधेश के लिए अनुकूल नहीं है। राष्ट्रपति पद का अवश्यंभावी चरणबद्ध निर्वाचन और अन्ततः कूल मतदाता का ५१ प्रतिशत से निर्वाचित होने की परिस्थिति। इसी तरह १७१ लोगों के सांसद निर्वाचन से बनने वाली विधायिका में मधेश का प्रतिनिधित्व और भागीदारी भी घटेगी इस में कोई भी दो मत नहीं है। इस तरह से देश के कार्यकारी प्रमुख में मधेश के किसी व्यक्ति के आने की संभावना एक सपना ही रह जाएगा। संक्षेप में कहा जाए तो मधेश की भागेदारी भी नहीं रह जाएगी।
समान जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन प्रणाली की कोई चर्चा तक नहीं की गई है। विगत में हुए तीनों संसदीय निर्वाचन में मधेश के २० जिलों को मिलाकर किसी भी संसद में १९-२० प्रतिशत से अधिक मधेशी का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया। इसी कारण संविधान सभा के निर्वाचन में हमने मधेश के ८८ निर्वाचन क्षेत्र रहने की अवस्था में उसे बढा कर ११६ निर्वाचन क्षेत्र बनवाने में सफल रहे थे। अभी प्रत्यक्ष निर्वाचन से १७१ लोगों की केन्द्रीय विधायिका बनाई जा रही है। यह मधेश के लिए एक दूसरी निराशाजनक स्थिति है।
भाषा, निसंदेह मधेश आन्दोलन का एक अहम सवाल था। केन्द्र सरकार की औपचारिक भाषा में पर्ूववत् नेपाली ही बनी रही। प्रदेश के सरकारी कामकाज की भाषा को टालते हुए उसे भाषा आयोग बनाकर बनने वाली विधायिका पर सौंप दिया गया है। नए बनने वाले संविधान में हमने भाषा को लेकर भी कोई अधिकार नहीं लिखवा पाए -यथार्थ यही है।
देश की शक्ति परिचालन के निकायों शासकीय एवं संवैधानिक अंगों का गठन जनसंख्या के समानुपातिक आधार पर होने की कोई भी संभावना नहीं बन पाई। विद्यमान प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में वरिष्ठतम दो न्यायाधीश, कानून मंत्री और नेपाल बार एशोशिएसन के प्रतिनिधि को मिलाकर बनने वाले न्याय परिषद की सिफारिश जिससे समानुपातिक समावेशीकरण को सैद्धांतिक रूप में ही तिरस्कार किया गया है- अब न्यायालय का समावेशीकरण एक असंभव विषय हो गया है। सुरक्षा निकाय खासकर नेपाली सेना का समावेशीकरण और लोकतांत्रिकीकरण जैसे अहम महत्व के विषय को सभी पक्षों से अछूता रखा गया है। नए संविधान में समावेशीकरण राज्य का निर्देशक सिद्धांत से बाहर आने की स्थिति में नहीं रह जाएगा।
केन्द्र और प्रदेश के बीच में अधिकार बंटवारे के हाल के प्रस्तावित स्वरूप में देखा जाए तो यह कहने में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि नेपाल की संघीयता दुनियां भर में हास्यास्पद एवं केन्द्रमुखी तथा सबसे कमजोर संघीयता होगी। केन्द्र और प्रदेश में विभाजित अवशिष्ट अधिकार का प्रावधान, राष्ट्रीय एकता और अखण्डता तथा शान्ति सुव्यवस्था के नाम पर सामान्य प्रक्रियागत खानापर्ूर्ति के आधार पर प्रादेशिक सरकार तथा विधायिकाओं के विघटन का प्रावधान, केन्द्र और प्रदेश तथा प्रदेश के भीतर के अधिकार क्षेत्र संबंधी विवाद समाधान अविचलित एकात्मवादी न्यायालय के ऊपर छोडना एक गम्भीर निरपेक्षता के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
उपर्युक्त ऐतिहासिक एवं अक्षम्य परित्याग के बावजूद भी एकीकृत अथवा स्वायत्त मधेश प्रदेश की स्थापना हमारे लिए आशा की एक किरण थी। एक सुषुप्त शक्ति थी, जिसके आत्मबोध एवं पीछे की शक्तिबोध के कारण जीवित मधेश हासिल की जा सकती थी। इसका आधार भी हमने खो दिया है। कल के दिनों में हमने अन्तरिम संविधान में व्यवस्था की गई राज्य पर्ुनर्संरचना आयोग/समिति को वषर्ाें तक अस्वीकार करते आए, जबकि उसके अधिकार एक प्रारूप की सिफारिश करने तक सीमित थी। इसके बावजूद हमने अवरोध ना बनते हुए रास्ता खोला तो उस बनाई गई समिति और वहां देखी गई ध्रुवीकरण को विस्मृत कर इस समय मोर्चा के नेतागण प्रस्तावित ‘केन्द्रीय संघीय आयोग’ में सहमत हो गए। जबकि इसका क्षेत्राधिकार प्रदेशों की सीमांकन, नामांकन, प्रदेशों को जोडने या फिर प्रदेश से ही दूसरा प्रदेश का निर्माण हो सकने या प्रदेश का कोई हिस्सा दूसरे प्रदेश में विलय किए जा सकने आदि सभी विषयों पर समाधान ढूंढने की जिम्मेवारी इस आयोग को दिया गया है। मजे की बात यह है कि इस आयोग की सिफारिश पर अन्तिम निर्ण्र्ाालेने का अधिकार उस केन्द्रीय विधायिका को दिया गया है जो कि भविष्य में मधेशी पक्ष अनुराग और प्रेमभाव के लिए भी भीक्षाटन करने की आवश्यकता पडÞनेवाली है।
मैं एक बार फिर से यह निवेदन करना चाहता हूं कि यदि मोर्चा ने मधेश के विभाजन को स्वीकार किया है तो इस विभाजन के विरूद्ध सशक्त प्रतिरोध में नहीं आए तो यह अक्षम्य हो सकता है। यहां जेल में ही मुझे पता चला कि मोर्चा द्वारा इन सभी विषयों पर एक ठोस और स्पष्ट धारणा बनाकर वैशाख १५ गते तक की समयावधि तय की है। लेकिन क्यों जेठ २ गते तक भी मोर्चा के नेता किर्ंकर्तव्यविमूढ की स्थिति में है। किस द्विविधा ने हमारे नेताओं को निष्फलता की सहयात्रा पर मजबूर कर दिया है –
अन्त में हमें इस सच को कभी भी इंकार नहीं करना चाहिए ना तो हम मधेश आन्दोलन की आदिशक्ति ही हैं और ना ही हमारे साथ ही मधेश आन्दोलन का खात्मा हो जाएगा। इसलिए हमें निष्ठापर्ूवक और इमानदारी के साथ काम करना चाहिए। यदि आशातीत सफलता नहीं मिल पायी तो आन्दोलन को कलंकित ना करें। भावी पीढÞी के लिए अनिणिर्त आन्दोलन हस्तांतरण करना चाहिए।
आप सबों को सादर जय मधेश।
२०६९ जेठ ४ गते आप सबों का स्नेही
जयप्रकाश प्रसाद गुप्ता
अध्यक्ष फोरम गणतांत्रिक
डिल्लीबाजार जेल