समावेशी प्रजातांत्रिक राष्ट्रवाद:
डा. प्रकाशचन्द्र लोहनी
वि.सं. २००७ साल से पहले धार्मिक परम्परा व सांस्कृतिक दृष्टि से तर्राई-मधेश में रही सांस्कृतिक संरचना काठमांडू के शासकीय सांस्कृतिक परिधि से कुछ खास अलग नहीं थी मुख्यतः हिन्दू धर्म तर्राई की सांस्कृतिक पहिचान का एक सबल पक्ष था और इस अर्थ में काठमांडू के शासक वर्ग की सांस्कृतिक मूल्य व मान्यता से कुछ खास अलग नहीं थी शायद इसी कारण से तर्राई के सामन्ती जमीन्दार वर्ग तथा काठमांडू के शासक वर्ग के बीच तादात्म्य एक हद तक सरल व स्वाभाविक रूप में विकसित हो गई थी लेकिन इतना होते हुए भी भूगोल व भाषा के कारण मधेश की अपनी मौलिक पहचान थी यद्यपि इसके भीतर भी वर्गीय तथा जातीय शोषण व्याप्त था पहाड में निर्माण होती गई पहाडी सांस्कृति से तर्राई मधेश की संस्कृति अन्तरसम्बंध व अन्तरसंवाद को जोडने की प्रक्रिया को राणा शासन के समय में भी कल्पना नहीं की गई
राजा महेन्द्र के शासनकाल व उसके बाद २०६४ साल तक नेपाली राष्ट्रीयता का निर्माण शासकीय वैधानिक्ता के केन्द्रविन्दु में रही इसके लिए मुख्य तीन रणनीति अपनाई गई पहले अंतर्रर्रीय क्षेत्र में नेपाल की स्वतंत्र व्यक्तित्व को आगे ले जाने का पूरा प्रयास किया गया नेपाल का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है और यह किसी की छत्रछाया में रहने वाला राष्ट्र नहीं हैं इसी संदेश को प्राथमिकता दिया गया
अपने राष्ट्रीय पहचान को अंतर्रर्ाा्रीय स्तर पर प्रस्तुत किए गए इस नए प्रयास से नेपाल में क्रमशः विकसित मध्यम वर्ग को आकषिर्त किया इसी के साथ आर्थिक अन्तरसम्बंध भी बढाने का प्रयास हुआ लेकिन राष्ट्रीयता के नाम पर अपनायी गयी ‘एउटै भाषा, एउटै भेष’ से देश की विविधता की उपेक्षा हर्ुइ एक्ता के नाम पर, देश की सांस्कृतिक व जातीय विविधता के प्रति एक ही भाषा एक ही भेष के नाम पर आँख बन्द कर अपनायी गई नीति से औपचारिक राष्ट्रीयता के भीतर विविधता को व्यवहार में स्वीकार नहीं किया जा सका
सामान्यतया भाषिक, सांस्कृतिक या क्षेत्रीय जो भी स्थानीय पहचान से जुडÞी हर्ुइ, ऐतिहासि, कल्पना व प्रतीक के साथ सामंजस्य कायम न करने के बाद स्थानीय राष्ट्रीयता के नए आवरण में रूपांतरण होने और देश के संकट में आने की स्थिति पैदा हो सकती है ऐसी अवस्था में स्थानीय पहचान और राष्ट्रीय पहचान को एक दूसरे का पूरक बनाकर नए सामंजस्यता का निर्माण करने से यह राष्ट्रीयता का अभिन्न अंग हो सक्ता है इससे ही समावेशी राष्ट्रीयता अर्थात समावेशी दर्शन में आधारित राष्ट्रीयता हो सकती है पंचायत काल में औपचारिक राष्ट्रीयता को ही समावेशी राष्ट्रीयता समझी गई जो कि एक भयंकर भूल साबित हर्ुइ औपचारिक राष्ट्रीयता से जातीय, क्षेत्रीय व सांस्कृतिक पहचान तथा इसके आधार पर नयाँ सामाजिक संवाद व शासकीय संरचना में सहभागिता की आकांक्षा को कोई स्थान नहीं दिया गया यही कारण है कि समावेशी राष्ट्रीयता पर दबाव बनता गया २०४६ साल के जनआन्दोलन के बाद नेपाल के विभिन्न जातीय समुदाय की अपनी-अपनी मौलिक सांस्कृतिक पहचान है और इन सभी के बीच सामंजस्य तथा समन्वय की राजनीतिक संरचना में रहकर नए राष्ट्रीय पहचान कायम की जाए यह स्पष्ट संदेश मिला अर्थात ‘एउटै भाषा एउटै भेष’ की अवधारणा ही गलत थी विविधता में एक्ता को ही राष्ट्रीयता के रूप में परिभाषित करने की अवस्था का निर्माण हुआ
२०४७ साल के संविधान निर्माण के पश्चात नेपाल की औपचारिक राष्ट्रीयता से समावेशी राष्ट्रीयता के तरफ लम्बी यात्रा की शुरुआत हर्ुइ इस क्रम में शासकीय सांस्कृतिक व आर्थिक विभेद व असमानता के बहस का विषय बना दिया विभिन्न जाति, जनजाति के बीच राष्ट्रीयता जीवन में देखी गई असमान स्थिति को हल करने की जिम्मेवारी के रूप में है दलित समुदाय द्वारा अब तक भोगी गई बहिष्करण व बंचितीकरण की समस्या समावेशी राष्ट्रीयता के निर्माण के रूप में अभी भी एक चुनौती है राष्ट्रीय जीवन में अब तक दबा कर रखी गई मधेशी समुदाय अब पहाडÞी पहचान की छत्रछाया में रहने को विलकुल भी तेयार नहीं थी मधेशी समुदाय के भीतर भी मधेशी के नाम पर उच्चजाति की सांस्कृतिक, आर्थिक व शासकीय हैकम के विरुद्ध आवाज उठने लगी है ओर इसके बढÞते जाने की बात भी निश्चित है
प्रजातन्त्र पुनर्स्थापना के बाद भी समावेशी राष्ट्रीयता के विकास के लिए नई संभावनाएँ होने के बावजूद इसमें अपेक्षित प्रगति नहीं हो पाई है यद्यपि पहले जनआन्दोलन ने इस दिशा में आगे बढÞने का आधार तैयार किया है लेकिन प्रशासन सेवा से राजनीति स्तर तक सभी क्षेत्रों में रही उच्च जाति के प्रभाव व उपस्थिति में अभी भी कमी नहीं आई है अभी भी मधेशी, आदिवासी, जनजाति, दलित तथा अन्य अल्पसंख्यक को सम्मानजनक स्थान नहीं मिला है इससे ये बात तो तय है कि प्रजातंत्र की पुनर्स्थापना के बाद भी सत्ता संरचना तो बदला, जातीय चेतना तथा सहभागिता की स्थिति में नयाँ अलाम शुरु हुआ लेकिन इससे व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया फलस्वरूप औपचारिक राष्ट्रीयता से समावेशी राष्ट्रीयता की यात्रा कठिन होती गई
समावेशी राष्ट्रीयता के निर्माण के क्रम में दो आधारभूत तत्व अनिवार्य है पहला विभिन्न जाति, समुदाय, व संस्कृति को जोडÞने का राजनीतिक, वैचारिक आधार अनिवार्य है ये वैचारिक आधार का निर्माण प्रक्रिया व अनुभव एक दूसरे देशो के बीच अलग-अलग हो सकती है यही कारण है कि संसार के विभिन्न सांस्कृतिक व सभ्यता से आए व्यक्ति को भी समान राष्ट्रीय चेतना में ढालने के लिए इस समय आसान है
-लेखक राष्ट्रीय जनशक्ति पार्टर्ीीे सहअध्यक्ष तथा सभासद हैं)
