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बागी बलिया की आवाज : 19 अगस्त 1942 की याद में

अमृत तिवारी
20 अगस्त 2018, बलिया, भारत
बलिया.. 19 अगस्त . ख़ून मे गर्मी बाकी है या चापलूसी की आबो-हवा में सब ठंडा हो गया है ? अगर बचा है तो आवाज़ दो…
जनाब हम बलिया हैं…। हमारे लिए भला कौन खड़ा हुआ है…। ना पहले कोई था और ना आज भी है। 1857 से लेकर आज तक एक ‘बागी’ का तमगा मिला और एक बागी सत्ता का कभी दुलारा नहीं हो सकता। पहले हमने अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी बाद में जेपी के नेतृत्व में स्वंतत्र भारत के मग़रूर शासकों से। छिटपुट लोगों को तो सदन से औकात दिखाने के लिए चंद्रशेखर ही काफी थे। मगर, हमारे सपूत और हमारी विरासत को स्वतंत्र भारत में वाजिब जगह नहीं मिली।
आज 19 अगस्त है तो यूं ही गुस्सा की-बोर्ड पर फोड़ता चल रहा हूं। आपको बता दें कि आज के ही दिन 1942 में बलिया ने अंग्रेजों को बाहर कर खुद को आज़ाद घोषित किया था। बैरिया से लेकर रसड़ा तक क्रांतिकारियों की गूंज थी। सेंट्रल जेल गिरफ्तारी देने वाले युवा छात्रों से भरा था। हमने तो आजादी डंके की चोट पर छीन ली थी। मगर, अफसोस इस महान क्रांति का ज़िक्र कहीं नहीं मिलेगा। कमाल की बात की बलिया के स्कूलों में भी इस संबंध में कोई ज्ञान छात्रों को नहीं दिया जाता।
उस दौर की कहानियां हमने गांव के बुजुर्गों से सुनी थी। कैसे गांव को लूटने अंग्रेजी फौज आई। तब मेरे बाबा (पिताजी के बड़े भाई) 6 महीने के थे। परिजन पड़ोसियों के साथ बाबा को गोद में लेकर खेतों और जंगलों में भटक रहे थे। दिन वहीं काटता था। गांव में आग लगाई जाती थी। यह क्रांति का दौर था। युवाओं को देखते ही गोली मारी जा रही थी। गांव-गिरान के लोग संगठित थे। जिन्हें आजादी का मतलब नहीं पता था, वे भी स्वाभिमान के लिए भाला उठाए हुए थे। चाहें परिवार की रक्षा के लिए या मिट्टी की रक्षा के लिए। लड़ाई ठनी थी और हर घर से ठानी गई थी।
लेकिन, हमारे त्याग और बलिदान को भला कौन याद करता है। हां, राजनीतिक इस्तेमाल के लिए संसद और सड़क से राजनेता इस पर बांग जरूर देते हैं। आजादी से पहले हम बागी थे। बागी-बलिया कहा गया। इसका खामियाजा भी हमें भुगतना पड़ा। ना रेल, ना रोड, ना रोजगार, ना कारोबार, कुछ भी नहीं। अंग्रेजों ने कोई विकास का ढांचा तैयार नहीं होने दिया। आजादी के बाद हमारा अस्तित्व दिखाई दे ही रहा है। जयप्रकाश से उम्मीद थी। लेकिन, वह भी तत्कालीन राजनीति के भयंकर शिकार हुए। आज उनके चेले-चपाटे अलग-अलग राज्यों में क्या गुल खिला रहे हैं। यह सभी देख रहे हैं। रही बात चंद्रशेखर की तो 6 महीने का प्रधानमंत्री जिसे विरासत में खंडहरनुमा अर्थव्यवस्था मिली, वह बलिया के लिए भला क्या करता। वैसे भी अगर करते तो बलिया के संस्कार को ही गाली दिलाने का काम करते। क्योंकि, बलिया का संस्कार बड़े कैनवास पर भारत को देखता है। हमारी संस्कृति कोई सैफई की नहीं है।
हालांकि, इन 70 सालों में धीरे-धीरे बहुत कुछ छूटता चला गया। हमारी खुद्दारी, हमारी समझ, चुनौतियों से भिंड़ने की क्षमता सरीखे कई आदतों से हमने पिंड छुड़ा लिया। गदर काटने वाली पर्सनाल्टी के विपरीत बलिया से हद दर्जे के चापलूस, निहायत ही बेईमान, महाकलंकी, चमचाछाप लोगों की फौज सामने आ गई। यह जमात दो ही जगहों पर दिखाई दिखाई देती है। सदन के गलियारों में या सड़क किनारे लगे पोस्टर और बैनरों में। दशहरा के मौके पर– लुड्डन उर्फ़ मोनू बाबा की तरफ से ढेरों बधाई…जैसे बैनरछाप लंठों से भला क्या अपेक्षा रखना।
इन्होंने बलिया के कई बड़े कॉलेजों सतीश चंद्र कॉलेज, टाउन डिग्री कॉलेज, वीर कुंवर सिंह कॉलेज में तो चरस बोवा दिया। छात्र राजनीति के नाम पर अपने लठैत पैदा किए। जिनका इस्तेमाल उनकी जवानी भर किए। बाद में छात्र नेता फटेहाल कहां गया किसी को नहीं पता। किसी ने बताया कि 90 के दशक के कई छात्र नेता दिल्ली और सूरत की फैक्टरियों में घंटा बजा रहे हैं और जो बच गए वह रंगबाजी और रंगदारी की वजह से जेल काट रहे हैं। आज पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे को गाजीपुर ही रोक दिए सब। किसी के जुबान तक नहीं खुली। सब चापलूसछाप ब्रांड के प्रतिनिधि बने बैठे हैं। कोई अखिलेश, तो कोई मायावती तो कोई मोदी का है….। चाबस…बोलने की देरी है कि ये भौंकना शुरू कर देंगे…।
आप कह सकते हैं कि आप सिर्फ नकारात्मक बात कर रहे हैं। इस चरस से सभी वाक़िफ हैं। तो भईया यही तो टेंशन है। सब जानते हुए भी खुद की लंका लगाए बैठे हैं। ताल ठोककर दुनिया को क्यों ना बता दिया जाए कि हम अपनी औकात में आ गए हैं। जब आकाल पड़ा था तो बलिया ने खुद का पेट खुद से पाला था। कोई सरकारी मदद नहीं मिली थी। बलिया ने जब अंग्रेजों को भगाया तो भाड़े के कार्यकर्ता ट्रेन भरके नहीं आए थे। 19 अगस्त इतिहास के अंकों में दर्ज हमारा सबसे बड़ा दस्तावेज है और प्रेरणाश्रोत दिन भी है। 1857, 1942, 1977, 1991, 1999…कब हमने लोहा नहीं मनवाया है। 1857 में जब मंगल पांडे ने अंग्रेजों पर गोली दागी उसके बाद से तो हमें सेना में लिया ही नहीं जाता था। लिया भी गया तो कभी अधिकारी नहीं बनाया गया। आजादी के बाद इंफ्रास्ट्रक्चर ऐसी तबाही में रहा कि पूछो ही मत। दशकों तक हम बाढ़ जैसी आपदा से जूझते रहे। आज भी जूझते हैं। केरल की पीड़ा हम बलिया वालों से बेहतर कौन जानता है। लेकिन, इस आपदा का कोई हो-हल्ला शायद ही कहीं मचता है। लेकिन, हम इससे भी लड़ते रहे हैं, भिंड़ते रहे हैं।
नेता, गुंडे और भ्रष्ट अधिकारियों के आगे लेट चुके स्वाभिमान को खड़ा करना होगा। यह हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। क्योंकि, यह स्वाभिमान अकेले हमारा नहीं बल्कि हमारे पूर्वजों के संघर्ष का है।  इस छोटे से बलिया जिले को कम से कम अपने पूर्वजों का मान-सम्मान बनाए रखना होगा। इसके लिए हमें अब किसी से लड़ना नहीं है। अब हमें गोलियां नहीं दागनी है। अब हमें किसी थाने को नहीं फूंकना है। क्योंकि, अब कोई यहां अंग्रेजी शासन नहीं है। हमारा शासन है। सरकारी संपत्तिया हमारी हैं। बस इसमें लगने वाले घुन को साफ करना है। कीड़े-मकोड़ों का सफाया करना है। बलिया के जितने फतिंगे हैं, जिन्होंने हमारे स्वाभिमान को चापलूसी के फ्लेवर से कंलकित किया है उन्हें धकिया के समाज की मुख्य धारा से बाहर करना है। जो हमारी अस्मिता को हर मोर्चे पर दांव पर लगाते आए हैं। ऐसे कथित समाजसेवियों और राजनेताओं की लंका लगानी है। इसके लिए संविधान ने हमें कई मारक लोकतांत्रिक हथियार दिए हैं। उसी ब्रह्मास्त्र के इस्तेमाल से सभी को चित्त कर देना है।
पहले हमारी लड़ाई खुद से है। हमारे ही मनोबल से है। हमें अपने शैक्षणिक संस्थानों को फिर से नंबर-1 क्लास का दर्जा दिलाना होगा। जहां पर लेक्चर समय पर लगे। लाइब्रेरी में दुनिया की बेस्ट किताबे हों। ऑनलाइन लाइब्रेरी का भी मार्ग प्रशस्त हो। एग्रो-इंडस्ट्री को बढ़ावा दें। दूसरे उद्योगों का भी स्वागत करें। दूसरे देशों में रहने वाले बेटे-बेटियां कम से कम बलिया का दौरा जरूर करें। अपनी एक्सपर्टीज के हिसाब से एक काम जरूर हाथ में लें। आपकी ख़ास जरूरत है। क्योंकि, आज के दौर में बलिया की जनता आप सभी को नहीं पहचानती। वह पोस्टरों में छपे बागड़-बिल्लों को अपना आदर्श मानती है। बलिया के कॉरपोरेट समाज से भी अपील है कि एक हाथ मिट्टी के नाम भी करिए…। जिस गांव से जुड़े हैं कम से कम उसकी भलाई के लिए निस्वार्थ एक कदम आगे बढ़ाएं। परधानी का चुनाव तो चिरकुटों का है। लड़ने-मरने दीजिए….।। बलिया शिक्षा, बाज़ार, एग्रीकल्चर और कॉस्मो-कल्चर का बड़ा हब बने। दूसरों की रौशनी से चौंधियाना छोड़ अपने उजाड़ घरों में रौशनी डालें।
जैसे हमने 1942 से पहले अलग-अलग आंखों से आजादी का एक ही सपना देखा था। आज बलिया की सभी आंखों से दरकार है कि श्रेष्ठ बलिया और विकसित बलिया के लिए एक ही सपना देखे। कोई चापलूसी पर मजबूर करे तो बलिया की औकात क्या है, ऑन द स्पॉट दिखा दें। बिंदास बोल दें- फक ऑफ— याद रखिए सचिन तेंदुलकर के स्टारडम का बोझ उनसे ज्यादा उनके बच्चे पर है…। बाप बड़ा आदमी हो और बच्चा नालायक निकल जाए तो पूरे ख़ानदान को लानत मिलती है। हमें यह लानत बर्दाश्त नहीं। हमारे पूर्वजों ने बड़े कीर्तिमान स्थापित किए हैं। कम से कम इतना करें कि उनकी नाक ना कटे और नाक की अस्मिता क्या होती है…यह बलिया के लोगों से बेहतर कौन महसूस कर सकता है।
1942 के महाक्रांति में आहुति देने वाले पूर्वजों को नमन और वादा— आपकी विरासत मिटने नहीं देंगे, जहां रहेंगे…ठोक-बजाकर रहेंगे।

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