बीआरआई का कर्जजाल : श्रीमननारायण
श्रीमननारायण,हिमालिनी, अंक सितंबर,२०१८
तानाशाह एवं क्रूर शासकों का भरोसेमन्द मित्र बन जाने की कला में चीन माहिर हैं । जिस देश से कर्ज उठ हीं न पावे, जिसके पास पुंजी का कोइ ठोस स्रोत नहीं, रणनीतिक साझेदारी के लिए विकल्प ढूंढ रहे देश तथा भ्रष्टाचार या मानवाधिकार उल्लंघन के कारण अनेक देशों से तिरस्कृत हो चुके देशों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाने में चीन को कभी ऐतराज नहीं रहा है । भारत के प्रति सशंकित दक्षिण एशिया के देश, अमेरिका के प्रति सशंकित उसके पड़ोसी, रुस की साया से दूर रहने वाले मध्य एसिया के देश तथा ब्रसेल्स कें द्वारा उपेक्षित यूरोप के दक्षिणी एवं पूर्वी क्षेत्र कें देशों के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने के लिए भी चीन हमेशा बेचैन रहा है । इन दिनो चीन के पास पैसों की कमी है नही और वह इन पैसों को उन्ही देशों मे निवेश करना चाहता है जो देश चीन की शर्तोवाली निवेश पर अमल कर सके । चीन के राष्ट्रपति सी जीनपींग की महत्वाकांक्षी एवं विस्तारवादी परियोजना बीआरआई (बेल्ट एण्ड रोड इनिसिएटिभ) एक ऐसा हथियार है जो चीन को तीसरी दुनिया की देशों में उसे बादशाहत दिला सके । बीआरआई के तहत चीन ने अब तक जिन देशों में निवेश किया है उन देशों की माली हालत में तो कोई बदलाव नहीं आया परन्तु वह देश खुद हीं चीन के कर्ज जाल में उलझ बैठा । यह सिर्फ कर्ज जाल हीं नही हैं एक एैसा मकड़ जाल भी हैं जिससे निकल पाना मुश्किल हो रहा है ।
एक्कीसवीं सदी में चीन खुद को विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली देश बनाना चाहता है । पूरी दुनिया में बीआरआई के तहत निवेश करके वह चारों ओर अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहता हैं । चीन के कर्ज तले दबे देशों को उसके कर्ज जाल से निकल पाना नामुमकिन होता दिख रहा हैं । आलम यह है कि कतिपय देशों को तो अपने जीडीपी का अधिकांश अंश हीं कर्ज एवं व्याज की अदायगी में चुकता करना पड़ रहा है । अब तक का विश्व अनुभव तो यही संकेत दे रहा है किं बीआरआई के कर्ज जाल से बचना चाहिए । चीन की शर्तें हमारे जैसे देशों के हित मे नहीं है । कतिपय देशों को तो अपने बन्दरगाह, सामरिक महत्व के भू–क्षेत्र, विमानस्थल एवं बहुमुल्य खानी भी चीन कें हवाले करना पडा । नेपाल को विदेशी निवेश की जरुरत है लेकिन यह अन्तरराष्ट्रीय दातृ संस्थाओं के मानक एवं निर्धारित प्रक्रिया के तहत हो न कि किसी एक देश के शर्तों पर हो । हकीकत में बीआरआई महज एक आर्थिक परियोजना न होकर राजनीतिक एवं रणनीतिक योजना का हिस्सा है और इससे सिर्फ चीन का प्रभुत्व स्थापित होगा ।
क्या है बीआरआई ?
“बेल्ड एण्ड रोड इनिसिएटिभ” (बीआरआई) चीन सरकार का विकास से जुड़ा रणनीतिक एजेण्डा हैं । सन् २०१३ कें सितम्बर में कजाकिस्तान स्थित नाजार्बाएब विश्व विद्यालय में सम्बोधन के क्रम में चीन के राष्ट्रपति सी जिनपिंग ने सिल्क रोड एकोनोमिक बेल्ट निर्माण का प्रस्ताव रखा था । फिर उसके एक महीना बाद एन्डोनेशिया के भ्रमण में राष्ट्रपनि सी ने टवाण्टी फस्र्ट सेन्चुरी म्यारिटाइम सिल्क रोड निर्माण का प्रस्ताव रखा । उसके बाद सिल्क रोड निर्माण का प्रस्ताव हुआ । वाद में दोनों नाम मिलाकर चीनी स्टेट काउन्सिलता की योजना से इसे वन बेल्ट वन रोड के रूप मे प्रस्तुत किया गया । फिलहाल इसे बीआरआई बेल्ट एण्ड रोड इनिसिएटिभ कहा जाता है ।
बीआरआई में रोड एवं बेल्ट का जिक्र है । जहाँ रोड का अर्थ समुंद्री मार्ग होता है वहीं बेल्ट का मतलब स्थल मार्ग होता है । बेल्ट के जरिए चीन कें पश्चिमी भू–भाग को मध्य एसिया, रुस, यूरोप, भूमध्य सागर, अरब सागर, दक्षिण पूर्वी एसिया, दक्षिण एसिया एवं हिन्द महासागर के साथ जोड़ा जाएगा वही रोड से समुंद्री मार्ग के जरिए चीन को यूरोप एवं अफ्रीका से जोड़ा जाएगा । यह परियोजना ६५ देश, ४.४ अरब आबादी तथा संसार के कुल जीडीपी उत्पादन का एक तिहाई हिस्सों को अपने में समेटे हुए है ।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के पुनः निर्माण हेतु अमेरिका कें द्वारा बनाए गए मार्सल योजना ुसे भी यह कई गुणा बडा हैं । अबतक इसके सैकड़ो योजना में तकरीबन एक ट्रिलियन डलर का निवेश सुनिश्चित हो चुका है । कुछ समय पहले तक सोच से परे माने जा रहे इलाकों मे भी रेल एवं सड़क का निर्माण हो रहा है ।
बीआरआई का अधिकांश निवेश चाइना डेभलपमेन्ट बैंक, एक्सपोर्ट–इम्पोर्ट बैंक (एग्जिम बैंक), सिल्क रोड फण्ड, एसियन इन्फ्रास्ट्रक्चर बैंक जैसे चीनी कोष से होता है । अब तक तकरीबन पाँच दर्जन चीनी कम्पनी बीआरआई के करिब एक हजार आठ सौ परियोजना मे निवेश कर चुका हैं । अधिकांश परियोजना में चीन सम्वद्ध देशों के साथ द्वीपक्षिय सम्झौता करता रहा है । बीआरआई ने उत्साह और आशंका दोनो को जन्म दिया है । कतिपय छोटे देशों का तो चीन के कर्ज जाल मे फंसना तय है ।
पश्चिमी राष्ट्र चीन से इस लिए भी आशंकित है कि कही बीआरआई पश्चिमी शक्ति और उसकी नेतृत्ववाली विश्व तथा क्षेत्रिय व्यवस्था को विस्थापित करने वाली कोई योजना तो नही हैं ? परन्तु वह भी खुलकर इस निवेश का विरोध नही कर पा रहा है । भारत शुरु से इस परियोजना का विरोध कर रहा है । भारत के विरोध से चीन को दिक्कत हो रही है । चाइना–पाकिस्तान इकोनोमिक कोरिडोर विवादास्पद भू–भाग मे होने के कारण भारत शुरु से कड़ा विरोध करता रहा है । नेपाल भी इसमे शामिल है । यद्यपि नेपाल नें बीआरआई के लिए २२ परियोजनाओं की सिफारिस की है परन्तु इसपर काफी काम बाकी है वैसे इस विषय पर नेपाल में समीक्षा भी हो रही हैं ।
विश्व प्रसिद्ध आर्थिक पत्रिका इकोनोमिष्ट के अनुसार अपने अनुकूल नयी विश्व व्यवस्था बनाने के लिए चीन बीआरआई योजना ले कर आया है । यह कोई परियोजना नही हैं । इसका उद्देश्य जानने के लिए जब बीआरआई का वेबसाइट खोलेंगे तो आवश्यक जानकारी नही मिल पाएगी । चीनी नेता किसी भी योजना का ब्लुप्रिन्ट बनाना पसन्द करते हैं परन्तु बीआरआई का कोई स्पष्ट ब्लुप्रिन्ट नही हैं ।
यह परियोजना गोप्य है । अब तक इसका स्पष्ट नक्सा प्रकाशित नहीं किया गया है, शुरु में युरेसिया एवं मध्य पूर्व तक हीं इसे ले जाना था परन्तु अब तो यह काफी दूर–दूर तक फैल चुका है । न्युजीलैण्ड से आर्केटिक, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका होते अन्तरिक्ष तक इस परियोजना का विस्तार किया जा रहा है । इन दिनों चीन ने बीआरआई को विश्वव्यापी परियोजना के रूप में प्रस्तुत करना शुरु कर दिया है ।
बीआरआई परियोजना के सन्चालन कर रहे देश को किसी भी समय पश्चताप करना पड़ सकता हैं । चीन के अन्य पैसों के तरह हीं बीआरआई के निवेश में भी मानवाधिकार और भ्रष्टाचार जैसे सवालों को नही उठाया जा सकता । इस तरह के सम्झौतों का शर्त गोप्य होता है । फलस्वरूप आम जनता तो इसे नहीं समझ पाती परन्तु सत्ताधारी दल के नेताओं को इससे लाभ मिल सकता है । बीआरआई परियोजना का टेण्डर भी चीनी कम्पनी को हीं मिलता है और अधिकत्तम मजदूर भी चीन के ही होते हैं । परियोजना में शामिल देश को कर्ज जाल में फसाने वाला डिजाइन रहता है । बीआरआई के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण राष्ट्र में से एक पाकिस्तान कर्ज के बोझ तले इस कदर डूब चुका हैं किं उसे जमानतदार के रूप में अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष की जरुरत होगी । मोन्टेनग्रो मे निर्माणाधीन एक सड़क का निवेश देश कें कुल जीडीपी उत्पादन का एक चौथाई है । वही लाओस कें एक रेलमार्ग कें निर्माण में उसके कुल जीडीपी का आधा हिस्सा लगनेवाला है ।
इसके अलावा सुरक्षा सम्बन्धी जोखिम तो है ही । चीनी राष्ट्रपति सी जिनपिंग कभी इसे एक मात्र मार्ग कें रूप में चित्रित करते हैं तो कभी इसें शान्ति का मार्ग बताते हैं । परन्तु अगर श्रीलंका के हम्वनटोटा बन्दरगाह से चीनी नौसेनिक लाभ उठा लेता है तो क्या किया जा सकता है ? श्रीलंका की सरकार चीन का कर्ज चुका नहीं पाने के कारण हम्वनटोटा बन्दरगाह को चीनी कम्पनी के हवाले कर दिया । चीन इस तरह के बन्दरगाह का प्रयोग कर काफी दूर–दूर तक के क्षेत्रों में भी अपना सैन्य प्रभाव बढ़ा सकता हैं । इससे भारत, भियतनाम, जापान जैसे देश काफी चिन्तित है । श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना ने पूर्ववर्ती सरकार कें द्वारा चीनी निवेश को अत्याधिक महत्व देने का विरोध करते हुए इसकी समीक्षा की बात कही है वहीं मलेशिया के राष्ट्रपति महाथिर मोहम्मद ने भी मलेशिया के हित विपरित चीनी निवेश कबुल नही करने की बात कही है । राष्ट्रपति महाथिर ने कहा है कि पूर्ववर्ती सरकार के द्वारा चीनी निवेश से निर्माण कराए जानेवाले अरबो डालर कें परियोजनाओं को रद्द किया जाएगा तथा जबतक साउन चाइना सी मे मलेशिया के जहाज को बेरोकटोक नहीं जाने दिया जाएगा तबतक उसके निवेश को कबूल करना मुश्किल होगा ।
कतिपय अफ्रीकी देशों कें पूर्वाधार विकास मे भी चीन ने किया था । परन्तु समयपर कर्ज वापस नहीं कर सकने के कारण उन देशों को अपना खानी बेचकर कर्ज चुक्ता करना पड़ा । चीनी निवेश से पोखरा एयरपोर्ट के शुरुआती अनुमानित लागत से एक सौ मिलियन अधिक लागत से काम शुरु हुआ है । एक मोडेल से दूसरे मोडेल मे जाने के कारण खर्च बढ़ा । पोखरा एयरपोर्ट के तरह ही कुछ और पारियोजना अगर नेपाल में सन्चालन हुआ तो देश को कर्ज जाल मे फसना तय है ।
फिलहाल नेपाल पर ९ खर्ब कर्ज हैं जो कुल राष्ट्रीय अर्थ तन्त्र का २९.१५ प्रतिशत है । यदि चीनी निवेश से निर्माण होने वाले रेलमार्ग के लिए ५ प्रतिशत से अधिक के ब्याज पर कर्ज लेतें हैं तो नेपाल का अर्थतन्त्र भी श्रीलंका, पाकिस्तान, डिबोटी, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, लाओस और मंगोलिया के पंक्ति मे खड़ा होगा जहाँ चीन का कर्ज चुक्ता नहीं कर पाने के कारण रणनीतिक महत्व के स्थल कों चीन के हवाले करना होगा या फिर कुछ अफ्रीकी देशों के तरह खानी बेचने होंगे । तीन वर्ष पहले आए भूकम्प के कारण तहस नहस हुए रसुवा नुवाकोट जैसे क्षेत्रों की मिट्टी एवं चट्टान कमजोर हो चुके हैं । ९० प्रतिशत सुरंग और पुल बनाकर रेलमार्ग का निर्माण करना जोखिम भरा काम होगा । फिर भूस्खलन आदि के कारण रास्ता भी अवरुद्ध होते रहे हैं । सड़क मरम्मत मे महिनों लग सकते है । फिर इससे सिर्फ चीन को लाभ होगा । न हमारा उत्पादन चीनी बजार में बिकेगा ना हीं हमारे लोग वहाँ जाएंगे । सिर्फ चीन की बिस्तारवादी एवं महत्वाकांक्षी परियोजना मे सहयोगी होकर हम अपने देश को लाभ नही दिला सकते ।
विश्वबैंक तथा आइएमएफ का निवेश ग्लोबल टेण्डर के आधार पर होता है । उसमे आर्थिक अनुशासन का पालन किया जाता हैं । इस तरह कें निवेश निर्धारित पैसा में कमी भी होने की सम्भावना रहती हैं अर्थात टेण्डर का रकम कम भी होता है । उन दातृ संस्थाओं के निवेश में कोई रणनीतिक स्वार्थ नही होता है । कर्ज वापसी का रेट क्या होगा ? देश कर्ज लौटा सकता है या नहीं अगर लौटा सकता है तो यकीन करने का आधार क्या है ? आदि बिन्दुओं पर पहले ही विचार किया गया होता हैं । अर्थात निवेश मे आर्थिक अनुशासन पर खास ध्यान दिया जाता हैं । परन्तु चीन के साथ ऐसा नही है । चीनी निवेश तो बिना टेण्डर आता है जिससे पैसा भी अधिक रहता है और ब्याज दर भी अधिक रहता है । अधिक निवेश के तहत पैसा लाभदायक नतीजा नही दे सकता है क्योकि चीनी निवेश मे होने वाले खर्च की प्रक्रिया मे नेपाल का तो कोई हाथ हीं नही होगा ? फिर नेपाल के हित अनुकूल काम कैसे हो सकता है ?
हमारे देश में किसी भी परियोजना में निवेश होने पर उसका प्रतिफल १० साल बाद ही आएगा । वक्त अधिक लगने पर प्रतिफल देने या नही देने की सम्भावना भी बढती चली जाती है । लेकिन हमे तो ब्याज देना ही पड़ेगा, लागत बढेÞगा वह अलग से फिर नेपाल मे तो चीनी निवेश की कतिपय ऐसी परियोजनाएँ हैं, जो टेण्डर कें लागत अनुसार और वक्त पर कभी पूरी हुई ही नहीं है । चीनी निवेश की परियोजना वक्त पर पूरी नही होने पर भी हमें कर्ज और ब्याज चुक्ता करना हीं होगा । इसके लिए तो विश्वबैंक या आइएमएफ के पास जाना होगा । चीन कें अनुदान सें अगर रेलमार्ग का निर्माण होता हैं तों उसे स्वीकार किया जाए । सस्ते ब्याजदर में और कर्ज चुकाने कीं तिथि लम्बी हो तों कर्ज लिया जाए अन्यथा बीआरआई कें कर्ज जाल से बचा जाए ।