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हिमालिनी, अंक सितम्बर 2018 । पृष्ठभूमि
सबसे पहले समझ लें कि कूटनीति जिसे हम अंग्रेजी भाषा में ‘डिप्लोमेसी’ कहते हैं, इसका मतलब क्या है, और इस शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई है । अठारहवीं शताब्दी में खासकर युरोप में जब विभिन्न राष्ट्रों का उदय होने लगा और उस राष्ट्रीय सीमाओं के पार के अन्य राष्ट्रों से



Shymanand Suman
श्यामानन्द सुमन

औपचारिक सम्बन्ध हुआ, तो उसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के आधार पर कूटनीति का विकास हुआ । तभी उस सम्बन्ध को और मजबूत और मित्रवत रखने के लिए कुछ कायदे कानून की आवश्यकता महसूस हुई । इस तरह आपसी व्यवहार कहें, प्रोटोकल कहें, को अंजाम देने के प्रोसेस को कुटनीति या डिप्लोमेसी कहा गया । फ्रान्सेसी भाषा में एक शब्द है– ‘डिप्लोमेटी’ । इसी शब्द के आधार पर अंग्रेजी भाषा में सबसे पहले एडमन वर्क ने १७९६ में ‘डिप्लोमेसी’ कहा । कोई कहते हैं, उसे ग्रिक भाषा के डिप्लोमा शब्द से लिया गया हो सकता है । यह शब्द ग्रिस में प्रायः शैक्षिक प्रमाणपत्र के रूप में आता था । पुराने रोमन लोग भी इस शब्द का उपयोग करते थे । पर ट्राभल डकुमेन्ट के रूप में । जिससे मेटल प्लेट पर स्टाम्प कर दिया जाता था । युरोप के एक देश के लोग दूसरे देशों में सरकारी काम के सिलसिले में काम करने जाते तो उन्हें ‘डिप्लोमेटिक कोर’ कहा जाने लगा । इस तरह देखा जाए तो डिप्लोमेसी या कुटनीति शब्द किसी देश के विदेश नीति और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध से ही जुड़ा हुआ है । वैसे देखा जाए तो विदेश नीति और डिप्लोमेसी पर्यायवाची शब्द नहीं है । फिर भी लोग इन दो शब्दों को इन्टरचेन्जवेली उपयोग करते हैं और चलनचल्ती में यही कन्सेप्ट चल रहा है ।
आर्थिक कूटनीति
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्त के बाद राजनतीतिक कूटनीति का स्थान आर्थिक कूटनीति ने ले लिया और आर्थिक कूटनीति के क्रियाकलाप काफी तेजी से बढ़ा । यह प्रयास अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के एक महत्वपूर्ण आयाम के तरह विश्व के नक्से पर उभरा । विश्वयुद्ध में ध्वस्त, युरोप के करीब करीब सभी देशों तथा जापान के आर्थिक, सामाजिक पुनरोत्थान के लिए आपसी हितों के आधार पर आर्थिक लेनदेन की मुहिम चली । अमेरिका, युरोप और एशिया के भी कई देशों के बीच बाईलेटेरल और मिल्टीलैटरल आर्थिक पैकेजों के जरिए यह प्रयास जारी रहा । फिर बीसवीं शदी के पाँचवी और छठवीं दशक तक संसार के बहुत सारे उपनिवेश स्वतन्त्र हुए और उनकी भी आर्थिक–सामाजिक विकास का सिलसिला चली । इसीलिए भी आर्थिक कूटनीति का महत्व और क्रियाकलाप बढ़ता ही गया । द्विपक्ष्ीाय सहयोग के साथ साथ बहुपक्षीय सहयोग के वास्ते ब्रेटन उड्स संस्थाएं, जैसे वल्र्ड बैंक, आईएनएफ, ए.डी.बी., गैट, डब्लु.टी.ओ. आदि अनेक संस्थाओं का विकास हुआ और अब ‘ग्लोबललाइजेशन’ और ‘ग्लोबल भिलेज’ के जमाने में कहें तो आर्थिक कूटनीति अन्तराष्ट्रीय सम्बन्धों के ‘फोरफ्रन्ट’ में आ गया है ।
नेपाल की आर्थिक कूटनीति
नेपाल की परराष्ट्र नीति मुख्यतः तीन आधारों पर कार्यान्वयन होती है । सबसे पहले ‘ प्रोटेक्टिभ’ नीति के अन्तरर्गत सेक्युरेटी की बातें आती है । जिसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्र की सम्प्रभुता, भौगोलिक अखण्डता और राष्ट्रीय स्वतन्त्रता को बचाना होता है । दूसरा आधार प्रिन्सीपुल बेस्ड है, जिसमें संयुक्त राष्ट्रसंघ और अन्तर्राष्ट्रीय, क्षेत्रीय तथा द्विपक्षीय सम्झौता, समझदारी का प्रतिपालन करना होता है । तीसरा आधार ‘ प्रमोशनल’ नीति आता है, जिसमें दूसरे देशों के और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ सहकार्य के जरिए आर्थिक क्रियाकलाप का सम्बन्ध होता है । इसी तीसरे आधार या आयाम को हम आर्थिक कूटनीति कहते हैं । अगर समझा जाए तो इन तीनों के अलावा एक और भी ‘आस्पेक्ट’ देखा जा सकता है, जो परराष्ट्र नीति में औपचारिक रूप से नहीं आता है । पर वह अपना काम शान्ति के साथ करता है । यह पिपुल टू पिपुल लेभल पर होता है और कभी कभी सरकार द्वारा और खासकर पड़ोसी देशों में ज्यादा एक्टिभ रहता है । इससे हम थिंकटैंक, ट्रैक–टू, ट्रैक–थ्री आदि नाम से सम्बोधित करते हैं । वेसे यहां मेरा मकसद परराष्ट्र नीति का उपरोक्त तीसरा आधार यानी आर्थिक कूटनीति पर चर्चा करना है । इस नीति के जरिए दूसरे देशों के साथ आर्थिक क्रियाकलाप को सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर बढ़ावा देना होता है । अगर सच में देखा जाए तो शीत युद्ध की समाप्ति के बाद सभी राष्ट्रों की राजनीतिक कूटनीति में काफी परिवर्तन आई है, जो अब आर्थिक कूटनीति के रूप में तबदिल हो गया है ।
परम्परागत रूप से देखा जाए तो आर्थिक कूटनीति, परराष्ट्र मन्त्रालय और उसके विदेश स्थित नियोगों द्वारा संचालित होता आया है । पर अब विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह एक मल्टिडिसिप्लिनरी क्रियाकलाप के रूप में उभर कर आया है । आर्थिक कूटनीति को अञ्जाम देने के लिए परराष्ट्र मन्त्रालय और नियोग ही नहीं, बल्कि अन्य विभिन्न मन्त्रालयों का सहयोग, समन्वय की आवश्यकता होती है, इसके साथ साथ अन्य स्टेकहोल्डर्स जैसे, गैरसरकारी संस्थाएं, विजनेश कम्युनिटी, ट्रेडर्स, उद्योगपति, सामाजिक–सांस्कृतिक संस्थाएं, एनआरएन आदि भी समानान्तर रुप से महत्व रखते हंै ।
अन्य विकासशील देशों के जैसे नेपाल की आर्थिक कूटनीति भी चार मुख्य स्तम्भ पर ही टिकी हुई है । यह हैं– १. वैदेशिक व्यापार, २. वैदेशिक लगानी, ३. पर्यटन और ४. वैदेशिक रोजगारी । अब इन चारों का नेपाल में कार्यान्वयन कैसे होता है, इन पर संक्षेप में ही सही, यहां वर्णन करते हैं ।
१. वैदेशिक व्यापार
नेपाल का वर्तमान वैदेशिक व्यापार घाटा ८ बिलियन डॉलर और निर्यात–आयात का रेसियो १ः१३ तक पहुँच जाने का तथ्यांक पत्र–पत्रिका द्वारा ज्ञात होता है । अगर यह सच है तो राष्ट्र के लिए एवं बहुत ही विषम परिस्थिति ही नहीं, बल्कि इसे बहुत ही घातक आर्थिक अवस्था माना जा सकता है । इस तरह तो ‘समृद्ध नेपाल, सुखी नेपाली’ का सपना तो सपना ही रह जाएगा । एक तो दुनिया के स्केल पर नेपाल की अर्थ व्यवस्था ०.०२ प्रतिशत अर्थात् अत्यन्त छोटा इकोनोमीवाला देश और जनसंख्या वृद्धि दर १.५ प्रतिशत से ज्यादा है तो देश गरीब का गरीब ही रह जाएगा । नेपाल को १० वर्ष में सिंगापुर और स्वीटजरलैन्ड बनानेवाले राजनीतिज्ञों का भाषण तो अब तक सिर्फ रेटोरीक बनके रह गया है । अगर देश को समृद्ध बनाना है तो प्रथमतः इकोनोमिक स्टे«न्थ को बढावा देनेवाला सरकारी पॉलिसी चाहिए, जो वैदेशिक व्यापार को बढ़ावा दे । अब का फर्मुला तो ‘एड नहीं ट्रेड’ वाला होना चाहिए । इस संबंध में कई हाइलेभल टॉक्सफोसं और विशेषज्ञों का सुझाव आ चुका है, जिसका मतलव है कि सरकारी नीतियों को ज्यादा क्रियटिभ, कार्यान्वयन मैत्री और रिजल्ट ओरियन्टेट होना पड़ेगा । इसके लिए परराष्ट्र मन्त्रालय, विदेश स्थित नियोगों के क्रियाकलाप में सुधार की आवश्यकता है । साथ ही इन्टरमिनिस्ट्रिरियल कोअर्डिनेशन मेकानिज्म को भी प्रभावकारी बनाना होगा । और प्राइभेट सेक्टर को भी अधिकतम प्रयास के लिए तैयार करना होगा । वैसे नेपाल १५–२० देशों के साथ द्विपक्षीय वाणिज्य सम्झौता कर चुका है, पर निर्यात करनेवाले बस्तुओं की कमी के कारण हर देश के साथ घाटे का सौदा हो रहा है । जब कि डब्लु.टी.ओ. और आर.टी.ओ के अन्तरगत वाणिज्य के लिए नेपाल को काफी सहुलियत मिल सकता है । मुख्य समस्या तो निर्यात के लिए नेपाल के पास निर्यातमुखी बस्तुओं की कमी का होना ही है । विश्व बाजार में प्रतिप्रस्पर्धात्मक क्षमता का होना और वस्तुओं का गुणस्तर का भी उच्चस्तर होना जरुरी होता है । आयातित कच्चा पदार्थ पर बस्तुओं का बनना, प्रवद्र्धनात्मक कार्यों की कमी, यातायात और अन्य कनेक्टिभीटी की दिक्कते, स्टेकहोल्डरों के बीच समन्वय की कमी आदि कई कारण है, जिसके चलते नेपाल का वैदेशिक व्यापार घाटे में चल रहा है ।
२. वैदेशिक निवेश
नेपाल दुनियां के सम्मुख करीब सात दशकों से खुला होने के बावजूद अभी तक एक गरीब देश बना हुआ है । इसका एक मुख्य कारण राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर से आर्थिक लगानी की कमी को लिया जा सकता है । मतलव आर्थिक क्रियाकलापों के लिए जितने लगानी की आवश्यकता है, उतना राष्ट्रीय बचत और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग से पूरा नहीं हो पाता है । इसके कई कारण है, जैसे अभी तक देश में सन् १९५० से ही राजनीतिक अस्थिरता रही है । साथ ही लगानी की सुरक्षा का सवाल, ट्रेड युनियन का बोलवाला, सिन्डिकेटों का संचालन, इन्फास्ट्रक्चर की कमी और स्तर निम्न होना, ऊर्जा शक्ति का अनियमित आपुर्ति, कानुनी शासन का अभाव, सरकारी नीतियों की कमीकमजोरी, बन्द हडताल, चक्काजाम, सूचना–प्रविधि की अपर्याप्तता, कर्मचारीतन्त्र में ‘रेडटेपिजम’ आदि विभिन्न कारण है । वैसे अभी का माहौल कुछ सुधरता दिखता है । खासकर नये संविधान के कार्यान्वयन के बाद वातावरण कुछ सुधरा हुआ है, फिर भी वैदेशिक लगानी के लिए जिस तेजी से माहौल होना चाहिए, वह दिखता नहीं है ।
देश के अर्थ व्यवस्था को रिजनेबुल लेभल पर ले जाने के लिए अरबो–खरबों रकम की आवश्यकता है पर जूट नहीं पाता । आखिर निवे षकर्ता तो अपने निवेश की सुरक्षा और अधिकतम मुनाफा भी चाहते हैं । ऐसे निवेशमुखी वातावरण की कमी अभी भी दिखती है । पता नहीं, उपरोक्त सारी बातों में कभी सुधार होगा और विकास की गाड़ी कब पटरी पर तेजी से दौड़ेगी ! यह राजनीतिक व्यक्तियों के भाषण और उखान–टुक्का (मुहावरों) से सुधरनेवाला नहीं है । यह तो सरकारी नीति नियमों और उसके अक्षरसः पालन करने से ही सम्भव है । सरकार ने कुछ साल पहले ही प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में एक निवेश बोर्ड की स्थापना की थी । पर वह ‘टूथलेस टाइगर’ (पेपरी टाइगर) साबित हुआ । अब हम आशा कर सकते हैं कि आगामी दिनों में सरकारी, गैर सरकारी और प्राइभेट निकायों के सक्रियता बढेगी और देश में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय लगानी मे. इजाफा होगा । खासकर अन्तर्राष्ट्रीय निवेशकर्ताओं के लिए निवेशमैत्री वातावरण होगा और निवेश का स्तर बढेगा ।
३. पर्यटन
सरकारी टूरिजम भिजन २०२० का लक्ष्य विदेशी टूरिस्टो की संख्या को बढ़ाकर २०२० तक वार्षिक २० लाख पहुँचाना है । पर लगता नहीं है कि लक्ष्य का आधा भी प्राप्त हो सकेगा । अभी तक तो टूरिस्टो की संख्या ७–८ लाख को भी पार नहीं कर सका है और जीडिपी में इस सेक्टर का कन्ट्रिव्युसन ३ प्रतिशत से भी कम रहा है ।
विदेशी टूरिस्टों के लिए नेपाल अपना द्वार १९५० के बाद ही माउन्टेन ट्रेकिङ और क्लाइमिङ के लिए खोल दिया था । १९५६ में टूरिजम बोर्ड, १९५९ में सरकारी डिपार्टमेन्ट और १९६६ में एक मन्त्रालय के रूप में संस्थागत विकास किया गया था । फिर भी इस सेक्टर का विकास आशा के हिसाब से नहीं हो सका । इसका मुख्य कारण टूरिस्ट प्रोडक्ट की कमी, भौतिक पूर्वाधार और संचार की कमी, अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार–प्रसार की स्तरीयता और व्यापकता नहीं होना, लोकल हस्पीटालिटी स्तरीय और विश्वसनीय नहीं होना और अन्ततः सरकारी नीति–नियम और प्राइभेट सेक्टर में व्यवसायिकता की कमी होने को लिया जा सकता है । वैसे नेपाल के जैसी प्राकृतिक सम्पदा दुनियां में बिरले ही मिल सकती है, नेपाल के पास तो प्रचूर सम्भावनाएं मौजूद है पर उन सभी का विकास अभी तक नहीं हो पाया है । टूरिजम भी एक अन्तरसंबंधित उद्योग है । इससे तो कूटनीतिक प्रयास के प्राथमिकता के रूप में होना चाहिए । भीषा रिजाइम, पर्यटन संबंधी सामग्री का प्रचार–प्रसार, विभिन्न जगहों में पर्यटन संबंधी प्रदर्शनी तथा अपने टुरिजम प्रोडक्ट के विशेषताओं का वर्णन, एयरपोर्ट सुविधा, टुरिस्टों के लिए प्याकेज टूर की व्यवस्था और सुविधा सम्पन्न व्यवस्थाओं का होना आवश्यक है ।
४. वैदेशिक रोजगारी
वैसे वैदेशिक रोजगार में नेपाल का इतिहास काफी पुराना है । पर वह बहुत ही लिमिटेड स्तर पर था । जैसे भारत के तत्कालीन पंजाव के राजा रणजीत सिंह के सेना में नेपालियों को कुछ स्थान दिया गया था । फिर ब्रिटिश इण्डिया में सुगौली सन्धि के बाद ब्रिटिश आर्मी में नेपालियों का भर्ती होना, जो अभी तक निरन्तर हो रहा है । नेपाल में तो ‘लाहुर जाने’ उखान तो अभी तक बरकरार है, जो ब्रिटिश आर्मी से लेकर अभी तक इण्डियन आर्मी में भरती होने जाते हैं, उसे ‘लाहुर जाने’ कहते हैं । वैसे पुराने समय से ही अन्य आम नेपाली रोजगार के लिए भारत जाते रहे हैं । भारत के अलावे अन्य देशों में जो वैदेशिक रोजगार का सिलसिला शुरु हुआ, वह एक बहुत ही हाल की बात है ।
वैदेशिक रोजगार के लिए ‘पुस एण्ड पुल’ फ्याक्टर तो लागू होता ही है । नेपाल से हाल के वर्षों में नेपालियों का वैदेशिक रोजगार में जाने का कोई च्वाइस की बात नहीं होकर एक बाध्यतात्मक स्थिति है । देश में गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, राष्ट्र विकास की धीमी गति और दो वक्त खाने की समस्या चरम पर होने के कारण ही लोग विदेश की विषम् परिस्थितियों में काम कर आर्थिक उपलब्धि हासिल करने जाते हैं ।
नेपाल सरकार ने वि.सं. २०४२ और बाद में २०६४ में वैदेशिक रोजगार संबंधी ऐन (संशोधन सहित) बनाया, जिसमें काफी कुछ कमियां पाई जाती है । वैसे नेपाल के अर्थ व्यवस्था में वैदेशिक रोजगारी से आए रेमिट्यान्स का भाग करीब–करीब ३० प्रतिशत के लगभग है । पर इसका व्यवस्था इसके महत्व के हिसाब से अभी तक नहीं दिया जा रहा है । अतः इस सेक्टर में भी अनेकानेक समस्याएं विद्यमान है । सबसे पहले तो नेपाल से वैदेशिक रोजगारी में जानेवाले करीब–करीब ९० प्रतिशत अदक्ष्य कामदार जाते हैं । जो अपने में ही एक समस्या हैं । इसके अलवा, खासकर गल्फ के देशों, मलेसिया या अन्य कई देशों में काम करने गए नेपालियों को कई किसिम की समस्याओं से जुझना पड़ता है । उन देशों के नियम–कानून की जानकारी न होना, सम्झौता के अनुसार काम न मिलना, समय पर वेतन न मिलना, मौसमी हालत प्रतिकूल रहना, भीषा के लिए और एजेन्टों के लिए अधिक रकम देना आदि अनेक समस्याएं हैं ।
वैसे वैदेशिक रोजगारी से मिले रेमिट्यान्स नेपाल के अर्थ व्यवस्था को चलाने के लिए बहुत ही उपलब्धिमूलक सेक्टर रहा है । गरीबी उन्मुलन, लोगों की रहन–सहन के स्तर में वृद्धि, नयां सीप और ज्ञान की अभिवृद्धि, हेल्थ केयर और शिक्षा की समस्या का समाधान, खानेपीने का स्तर में वृद्धि, कुछ रकम का बचत होना, आदि को सकारात्मक रूप से लिया जाता है । इस रोजगारी के कुछ नकरात्मक प्रभाव भी है । जैसे पारिवारिक विचलन के कारण पारिवारिक–सामाजिक समस्या, आमदनी का अधिक भाग कन्जुर गुड्स में खर्च होना, अनावश्यक और अनउत्पादक क्षेत्र में निवेश आदि को लिया जा सकता है । सरकार को चाहिए कि कामदारों को दक्ष बनाकर भेजने में म्यानपावर एजेंट्स को मदद करें, कामदारों का रेमिट्यान्स का सदुपयोग और राष्ट्रीय निवेश में कैसे उपयोग में लाए, इसको नीति नियम द्वारा नियमन करें ।
अन्त में
किसी भी देश का राजनीतिक वेट उस देश के आर्थिक स्ट्रेन्थ पर निर्भर करता है । नेपाल को भी दूसरे की एड के बदले ट्रेड को प्रोत्सहन दें । जैसा उपरोक्त पन्नों में उल्लेख किया गया है आर्थिक कूटनीति मुख्य चार स्तम्भों अर्थात वैदेशिक व्यापार, वैदेशिक निवेश, पर्यटन और वैदेशिक रोजगार इन सब का प्रवद्र्धन और नियमन उचित ढंग से करें । परराष्ट्र मन्त्रालय और उसके नियोगों सहित अन्य सम्बन्धित मन्त्रालय, एजेन्सी और प्राइभेट सेक्टर (पीपीपी) सभी स्टेक होल्डरों के साथ सहयोग, समन्वय और कार्यक्रमों का ज्वाइन्ट एफोर्ट होना चाहिए । नेपाल का आर्थिक क्रियाकलाप कई कारणों से पीछे पड़ा हुआ है । विकास की धीमी गति, पुँजी का अभाव, निम्न सामाजिक सूचकांक, निम्न प्राविधिक और सृजनात्मक स्थिति, आधारभूत भौतिक पूर्वाधार की कमी, मानव संशाधन की संख्यात्मक और स्तरीय स्थिति ठीक नहीं होना, भौगोलिक क्षेत्र की कठिनता, सरकारी नियम–कानुन का कमजोर होना और राजनीतिज्ञों की नीयत को गिना जा सकता है । आर्थिक कूटनीति देश की सम्पूर्ण व्यवस्था का समुचित प्रबन्धन, परिमार्जन और विदेशों में अपना घनीभूत अन्तर सम्वाद द्वारा ही दीर्घकालीन रूप से सफल हो सकता है । आशा करें, अभी का पञ्चवर्षीय स्थायी सरकार इन सभी बातों पर गौर करेगी और सच–मुच नेपाल को सिंगापुर और स्वीटजरलैण्ड बनाने की सोच को साकार रूप देने का प्रयास करेगी ।



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