जयमधेश – समर्पणवादी सोच में विलीन : रणधीर चौधरी
मधेशवादी दल भी छोटा मधेश में ही अपना राजनीतिक भविष्य बनाने में तल्लीन दिख रहे हैं
अधिकार की लड़ाई देखने में भले ही लग रहा हो कि समाप्त हो चुका है पर शहादत बेकार गई हो ऐसा उदाहरण देनिया मे शायद ही देखने को मिला हो ।
हिमालिनी, अंक फेब्रुअरी 2019 |दशक पहले जय मधेश का नारा गुंजायमान हुवा करता था । नेपाल का भौगोलिक हिसाब से हिमाल, पहाड और तराई नामाकरण कर खण्डखण्ड मे चर्चा हुवा करता था । परंतु मधेश शब्द को यथोचित स्थान भी नही मिल पाया था । मधेश शब्द के भीतर छूपी थी पहचान, किसी खास समुदाय की । वैसी समुदाय जिसकी जनसंख्या लगभग ३६ प्रतिशत है । नेपाली राज्य के किसी भी मिसिनरी में जनसंख्या के अनुपात में अपनी उपस्थिति दर्ज न करवा पाने के कारण यह समुदाय अपने आप को वंचित महसूस करता आया है । बिसं २०१० में कांग्रेस से अलग हो कर तराई कांग्रेस की स्थापना कर मधेशियों की पहचान को केन्द्र मे रख वेदानन्द झा ने अपनी राजनीतिक यात्रा को आगे बढाया । परंतु राज्यसत्ता से वगावत करने की हिम्मत लम्बे समय तक नही टिका पाए और महज राजदूत पद के लिए सत्ता के आगे अपना सारा मिशन को अनाथ छोड़ दिया । और देखते देखते उनकी यह समर्पणवादी सोच एक ‘प्रवृत्ति’ के रूप में तबदील होती चली गयी । उस प्रवृत्ति का असर अभी के मधेशवादी राजनीति में अपना असर दिखा रहा है । पिछले मधेश आन्दोलन पश्चात अनेकों बेदानन्द ने जन्म ले लिया है ।
बिसं २०४७ साल में गजेन्द्र नारायण सिंह ने नेपाल सदभावना पार्टी करने के बाद मधेश हित के लिए कहे जाने वाली मधेश आन्दोलन ने नेपाली राज्यसत्ता को एक जोरदार धक्का देने में कोई भी कसर बाकी नही रखा ।
उसके बाद बिसं २०६२÷०६३ का मधेश आन्दोलन माघ ५ गते सिरहा के लहान में रमेश महतो की गोली से मौत हो गई । उस हत्या के बाद माघ ५ को याद करके मधेशवादी दलो ने बलिदान दिवस मनाना शुरु किया ।
बार–बार मधेश आन्दोलन हुवा । मधेश आन्दोलन की प्रमुख माँग थी संघीयता ऐसी संघीयता जो आम मधेशी को यह महसूस कर सके कि अब तो आया ‘अपना शासन अपना प्रशासन’ समावेशी समानुपातिक की व्यवस्था के माध्यम से राज्य के हरेक निकाय मे सीमांतकृत वर्गों का अस्तित्व । पहला मधेश आन्दोलन के दौरान तत्कालीन आन्दोलनकारी समूह ने समग्र मधेश एक प्रदेश का मांग उठाया गया था । जो की थारुहट जिलों में स्वीकार नही किया गया । इस के पीछे तत्कालीन कांग्रेस और एमाले का पाखण्डपन तो था ही । परंतु वह मांग पूर्ण वैज्ञानिक नही थी । फिर समग्र मधेश दो प्रदेश की मांग व्यवहारिक होती दिख रही थी । परंतु वर्तमान अवस्था मे मधेश खण्डित हो चुका है, अवैज्ञानिक राज्यपुर्नसंरचना के कारण । अस्तित्व में जिस मधेश की तस्वीर लोगों की सामने दिखायी जा रही है प्रदेश नं २ के तौर पर वह छोटा मधेश है । और मधेशवादी दल भी छोटा मधेश में ही अपना राजनीतिक भविष्य बनाने में तल्लीन दिख रहे हैं ।
पिछले समय में सम्पन्न हुए चुनाव में मधेशवादी दल फँसे हुए हैं । संघीय समाजवादी फोरम नेपाल ने वैसे संविधान पुनर्लेखन का मुद्दा जोड़तोड़ से उठाकर चुनाव में सहभागिता जना कर राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल से पहले ही अपने आपको वेदानन्द प्रवृत्ति के चादर तले ढंक लिया । राजपा ने पश्चिम में हुए स्थानीय निकाय के चुनाव में भाग नही लिया और फिर प्रदेश नंबर २ में होनेवाली स्थानीय चुनाव में भाग ले कर मधेशवादी राजनीति के कद्दावर हृदेश त्रिपाठी जैसे नेता को पार्टी छोड़ने पर विवश कर के अपनी वेदानन्द प्रवृत्ति का मन्चन किया था ।
यही कारण है कि वर्तमान अवस्था में पश्चिम मधेश में मधेशवाद कमजोर पड़ रहा है । इसी वजह से आज के दिन में पश्चिम मधेश मे मधेशवादी दलों की उपस्थिति न्यून है । सत्य यह है कि राज्यसत्ता के साथ जारी अधिकार की लड़ाई में आम मधेशी ने अपनी सारी उर्जा सड़क पर ला कर रख दिया था । पिछला मधेश आन्दोलन तो और महीनों तक जारी रहा । परंतु मधेशवादी दलों के रणनीतिक चूक (स्ट्राटिजिक फ्ल्ट) के कारण संबिधान संसोधन नही हो पाया ।
मधेशवाद के बारे में वकालत करने वाले राजनीतिक दल इतर के मधेशी
जो अपने आपको मधेशी मधेशवादी विद्वान की पगड़ी पहनने मे खूब गर्व महसूस करते थे वे सब भी ‘वेदानन्द प्रवृत्ति’ के शिकार बन गए । युँ कहे तो जानबूझ कर सत्ता और राजनीतिक दल के भट्ठी में अपने आपको झोक दिए । स्वतन्त्र रह कर अधिकार की लड़ाइ लड़ने की आवश्यकता को अनाथ छोड़ देना ही अपना धर्म समझ बैठा । मधेश आन्दोलन में हुए शहीदों का नाम जप कर पाप मोचन करने में आजकल व्यस्त रहते हैं ।
पाए अर्थहीन संघीयता के माध्यम से अन्तहीन विकास के पीछे दौड़ते नजर आते हैं आज मधेशवादी कहलाने वाले दल के नेता एवं उन के पिछलग्गु नागरिक समाज । अधिकार के लिए संघीय सरकार से दिनरात गिड़गिड़ाने में समय व्यतीत कर रहे हैं । क्या ऐसी ही संघीयता के लिए रमेश महतो जैसों ने अपनी जान न्योछावर की थी ? मधेशवादी दलों को चुनाव जीतने से पहले आम मधेशियाें को शहादत देना ही होगा ? वैसे तो अभी बाजारीकरण का युग है । परंतु सिद्धान्त का बाजारीकरण नही करना चाहिए । वैसा सिद्धान्त जिसके लागु किए जाने पर अधिकार की लम्बी लड़ाई को छोटी अवधि में फतह किया जा सकता हो ।
संबिधान का दरवाजा माने जाने वाली प्रस्तावना (प्रिएम्बल) में संघीयता की जननी मानेजाने वाली मधेश आन्दोलन शब्द लिखवाने में असफल हुए नेताआें से संबिधान संसोधन की परिकल्पना करना कदापि उचित नही । आन्दोलन में हुई घटनाओं की छानबीन करके सरकार को सौंपी गई लाल आयोग का प्रतिवेदन सार्वजनिक होना भी सम्भव नही है । सत्ता में लिप्त मधेशवादी मधेश में किस चरण तक विकास करती है यह दखने लायक होगा । शहीदों का सपना सड़क बनबाना था या अधिकार सम्पन्न होना इसका हिसाब आने बाली अगली पीढ़ी करेगी ।
समग्र मे कहा जाय तो अभी के नेतृत्व से मधेश बिद्रोह के मांग का सम्बोधन सम्भव नही है । अंगुली पर गिनेजाने वाली मधेशी नागरिक समाज के अगुवा कहलाने बाले अधिकतम लोग वेदानन्द प्रवृत्ति के शिकार हो चुके हैं । अभी की आवश्यकता है की मधेश आन्दोलन और मुद्दा के महत्व को समझने बाला हरेक मधेशी और थारु युवाओं को एक जुट होना चाहिए ।
अधिकार की लड़ाई देखने में भले ही लग रहा हो कि समाप्त हो चुका है पर शहादत बेकार गई हो ऐसा उदाहरण देनिया मे शायद ही देखने को मिला हो । पूरब से पश्चिम तक के मधेशी एवं थरुहट की भावनाओ । को जीवन्त रखना होगा । जय मधेश