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नेपाल के पर्यटकीय और धार्मिक महत्व के स्थल : प्रकाशप्रसाद उपाध्याय

हिमालिनी, अंक अप्रील 2019 | कभी–कभी जब विदेश के मेरे मित्र फोन पर पूछा करते हैं कि यार तुम्हारे देश की यात्रा के लिए कौन सा समय सबसे उत्तम होता है, तब मैं कुछ देर के लिए निरुत्तर हो उठता हूँ, क्योंकि यहाँ का हर मौसम और प्राकृतिक सुंदरता सदैव पर्यटनानुकूल होते हैं । फिर भी उनकी जिज्ञासा को मिटाते हुए कहता हूँ– ‘जब दिल करे आ जाओ यार । तुम्हें निराशा हाथ नही लगेगी । हाँ, बासंती छटा का आनंद उठाना हो तो मार्च–अप्रिल में आ जाओ । होली और बासंती छटा से रंगमय वातावरण का लुत्फ उठा सकते हो, प्रकृति की मादकता का आनंद पा सकते हो ।’

वसंत ऋतु ऋतुराज के रूप में जाना जाता है । वातावरण में कोपलों, पल्लवों और पेड़–पौधों की मंजरियों से निसृत सुवास, भँवरों के गुँजन और कोयलों की सुमधुर तान एवं शीतल सुवासित वयार पर्यटकों के मनों को मोहने से जहाँ चूकते नहीं, वहीं पर्वतों के स्वच्छ और सूर्य की किरणों से आलोकित हिमशिखरें पर्यटकों के मन को रोमांचित करते रहते हैं । नेपाल की इस प्राकृतिक सुंदरता और इसके हरे–भरे रूप–रंग की महिमा गान करते हुए नेपाल के महाकवि लक्ष्मी प्रसाद देवकोटा लिखते हैं–

‘हरियो वनमा न बैंस हुँदा ।
नव पल्लवका अधराऽसबले । ।
मदमत्त छ कोकिल काल बुझी ।

बनबीच बसन्त र स्वर्ग बुझी ।’ अर्थात हरे–भरे जंगल जब नये–नये पल्लवों से ढक जाते हैं तब प्रकृति में नव यौवन का संचार होता है, कोयल भी मदमस्त हो उठता है और वातावरण में मिठास घुलने लग जाती है । इस समय ऐसा लगता है मानों पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया हो । धरा बसंती छटा में रंगकर स्वयं भी बसंती हो गयी है ।’ घूमने के लिए प्राकृतिक परिवेश और वातावरण के अतिरिक्त नेपाल में कई चीजें और स्थल हैं जो विभिन्न विचारधाराओं के पर्यटकों की चाह और अभिलाषा को पूरा करते हैं ।

देवभूमि के रूप में प्रसिद्ध नेपाल जहाँ भगवान पशुपतिनाथ का ज्योतिर्लिंग हिंदूओं की धार्मिक और आध्यात्मिक भावों को संतुष्टि प्रदान करता है, वहीं स्वयंभुनाथ, बौद्धनाथ और लुम्बिनी स्थित मायादेवी का मंदिर बौद्ध धर्मावलंबियों को आत्मिक सुख प्रदान करते हैं । महाभारत और रामायणकालीन घटनाओं से संबंधित क्षेत्र यहाँ गौरवपूर्ण धार्मिक स्थल के रूप में महिमामय है । अतः पर्यटकीय दृष्टि से यह एक दर्शनीय भूमि है । पश्चिम नेपाल में अवस्थित नवलपरासी जिले में महर्षि वाल्मिकी का आश्रम, जहाँ भगवान श्रीराम द्वारा निर्वासित किये जाने पर देवी सीता ने शरण ली थी और अपने दो पुत्रों लव और कुश को जन्म दिया था, रामायणकालीन घटना की याद दिलाता है । पश्चिम की ओर तनहुँ जिले में कृष्ण द्वैपायन व्यास का आश्रम है, जहाँ महर्षि व्यास ने कई वेदों और पुराणों की रचना की । हिमालय की कंदराएँ तो तपोभूमि के रूप में प्रसिद्ध हैं और ये ऋषि–मुनियों की तपस्या के लिए जानी जाती हैं । हिंदू पौराणिक ग्रंथों में उल्लिखित चार मुक्तिक्षेत्रों में वाराहक्षेत्र और मुक्तिनाथ भी नेपाल में ही विद्यमान हैं । भगवान बुद्ध का जन्मस्थल, भागवत् पुराण में उल्लिखित गजेन्द्रमोक्ष की घटना नेपाल की भूमि मे होना इस देश के महत्व को दर्शाता है । इस प्रकार नेपाल की भूमि पर्यटन के लिए मात्र नही धार्मिक आस्था को बल और प्रामाणिकता देने के लिए भी एक उपयुक्त स्थल है ।

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वाराहक्षेत्र नेपाल के पूर्वांचल, प्रदेश नम्बर १ के सुनसरी जिले में अवस्थित भगवान विष्णु को समर्पित है । यह पवित्र धार्मिक स्थल सप्तकोशी नदी के तट पर अवस्थित है । इस क्षेत्र के आसपास बने वाराहक्षेत्र मंदिर, शिव मंदिर, हुनमान मंदिर, विश्वकर्मा मंदिर, दुर्गा मंदिर, गौरीशंकर मंदिर आदि धर्मावलंबियों को आत्मिक सुख प्रदान करते है । दर्शनीय मंदिरों में बराह मंदिर, सूर्य बराह, पान्त भगवान, इन्द्र बराह, गुरु बराह और कोका बराह प्रमुख हैं । काठमांडू से १०–१२घंटे की सडक यात्रा और काठमांडू से ३५ मिनट की हवाई यात्रा के बाद विराटनगर विमानस्थल पर उतरने के पश्चात पुनः सड़क मार्ग से यात्रा करते हुए चत्रा होते हुए इस स्थल पर पहुँचा जा सकता है । इस क्षेत्र की पर्यटकीय नगरी धरान से यह स्थल लगभग २०कि.मी । की दूरी पर अवस्थित है । अतः वाराहक्षेत्र की यात्रा करने वाले कई पर्यटक धरान, धनकुटा और इलाम जैसे निकटवर्ती स्थलों की भी यात्रा कर प्राकृतिक और हिमश्रृंखलाओं की सुंदरता का आनंद उठाते हैं ।
पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार भगवान विष्णु ने एक श्वेत वाराह का रूप धारण करते हुए इस क्षेत्र की यात्रा की और हिरण्यकश्यप नामक दैत्य को मारकर इस क्षेत्र में शांति की स्थापना की । इस प्रकार इस क्षेत्र का नाम वाराहक्षेत्र पड़ा । इस स्थल पर सप्तकोशी और कोका नदी का संगम होने के कारण मकर संक्रांति के अवसर पर यहाँ धर्मावलंबियों की अपार भीड़ लगती है । प्रायः नदियाँ उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर बहती हैं पर कोका नदी दक्षिण की ओर से बहती हुई आती है और कोशी इसका संगम स्थल बनती है । इस स्थल के महत्वपूर्ण होने का एक कारण यह भी है । बराह क्षेत्र से लगभग ३ कि.मी । की दूरी पर एक टीले में सूर्यकुण्ड है, जहाँ बाला चतुर्दशी के अवसर पर मेला का आयोजन होता है ।

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पूर्वांचल का ही दूसरा दर्शनीय, महाभारतकाल से सम्बद्ध और पौराणिक महत्व का स्थल है–विराटपोखर । काकड़भिटा रोड, झापा में अवस्थित अनारमनि गा.वि.स. , वार्ड नं । ७ के इस स्थल का संबंध महाभारतकाल से है । इस संबंध में शिव सेना नेपाल के प्रमुख अरुण सुवेदी बताते हैं कि जब पाण्डव अपने गुप्तवास के दिनों में वेश बदलकर राजा विराट के महल में निवास कर रहे थे तब राजा विराट के गाय–बैलों को पानी पिलाने के लिए अतिरिक्त पोखर खुुदवाने की आवश्यकता महसूस हुई । अतः इस कार्य के लिए महाबली भीम और अर्जुन आगे बढ़े । इस कार्य में अन्य भाईयों की भी सहभागिता हुई, जिसके फलस्वरूप ५ बिघा जमीन के क्षेत्र में पाँच बड़े–बड़े पोखर बनकर तैयार हुए । तालाब की विशालता को देखते हुए यह विराटपोखरी के नाम से जाना जाने लगा । आज भी ये पोखर विद्यमान हैं और विराटपोखर के नाम से प्रसिद्ध हैं । इनकी विशालता आज भी कायम हैं । आज के दिनों में इसके आसपास मानव बस्ती बसी हुई है । इस स्थल के पौराणिक महत्व को ध्यान में रखते हुए और आसपास के क्षेत्र में इस स्थल को पर्यटकीय दृष्टि से प्रकाश में लाने और स्थानीय लोगों को भगवान पशुपतिनाथ का दर्शन सुलभ कराने की नियत से बस्ती के बगल में शिवसेना नेपाल ने महाकाली से मेची तक की अपनी ज्योतिर्लिंग यात्रा काल में ज्योतिर्लिंग स्थापित करने का काम संपन्न किया । आज के दिनों में भगवान पशुपतिनाथ का यह मंदिर इस स्थल को पावनता प्रदान करती है और स्थानीय लोगों को नित्यपूजा करने और पर्यटकों को भगवान पशुपतिनाथ का दर्शन कर पुण्य प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है ।

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नेपाल के महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में दूसरा प्रसिद्ध और पवित्र धाम है–देवघाट । काठमांडू से पश्चिम दिशा की ओर तराई क्षेत्र के चितवन, नवलपरासी और तनहुँ जिले की सीमा में अवस्थित यह धाम त्रिशूली और कालीगंडकी नदियों का संगमस्थल है, जो प्राचीन काल में देवाटवी के नाम से जाना जाता था । नेपाल के महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल और हरिहर क्षेत्र के नाम से भी प्रसिद्ध यह स्थल स्वर्णभद्रा, पूर्णभद्रा और नारायणी नदी का संगम स्थल है । फलतः यह त्रिवेणीधाम के नाम से भी सुविदित है । पौराणिक गाथा के अनुसार, यहाँ की जल राशि में हुई गज और ग्राह के युद्ध में ग्राह द्वारा गज को अपने जबड़े में जकड़ लिए जाने पर जब गज पीड़ा से चिँघाड़ने लगा तब उस स्थल पर विचरण कर रहे भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह पर प्रहार करते हुए गज का उद्धार किया था । इसीसे यह स्थल गजेन्द्रमोक्ष धाम के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ । गजेन्द्रमोक्ष की महिमा का बखान करते हुए पं । महेश चन्द्र शर्मा कहते हैं–ैं– ‘इस स्थल पर हुए गज और ग्राह के युद्ध में भगवान विष्णु का अवतरण होकर गज को बचाना जहाँ अपने भक्त के प्रति भगवान की कृपा का द्योतक है, वहीं यह मानव जाति को इस बात की ओर भी संकेत करता है कि इस संसाररूपी समुद्र में जब आदमी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में संकट मे पड़ता है तब उसे भगवान की ही याद आती है, जो उसे संकट से उबारते हैं और मुक्ति प्रदान करते हैं ।’
त्रिकुट पर्वत के मध्य भाग में अवस्थित इस पावन स्थल पर कई मन्दिर और आश्रम हैं । भारतीय सीमा के निकट होने के कारण यहाँ दोनों ओर से वर्ष भर ही पर्यटकों का आना–जाना लगा रहता है…… (क्रमशः)
संदर्भ सामग्रीः–
वृहत् नेपाली शब्दकोश
हिमालिनी (दिसंबर २०१८ अंक)
मेचीदेखि महाकाली

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