लेखन कोई कार्य नहीं तपस्या हैं : वेद कुमार शर्मा
हिमालिनी अंक अगस्त , अगस्त 2019 |भारतवर्ष में बहुचर्चित पुस्तक ‘जिÞन्दगी जश्न है’ के लेखक वेद कुमार शर्मा से हमारे दिल्ली भारत के ब्यूरो प्रमुख एस.एस.डोगरा से लम्बी वार्ता हुई । प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश ः
० एक व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में किस–किस का क्या–क्या योगदान होता है ?
– मेरा मानना है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी अब तक बीती जिÞन्दगी का आइना होता है जिसमें उसके पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा और शिक्षा–संस्थान, उसने आजतक जो कुछ पढ़ा–लिखा, उसके व्यवसाय और सामाजिक–आर्थिक परिवेश की स्पष्ट झलक होती है ।
० लेखन में रुझान कब और कैसे विकसित हुआ ?
– साहित्य (रूसी)का विद्यार्थी होने के नाते साहित्य में रुचि होना स्वाभाविक था, जिसके चलते मैंने रूसी के अलावा भारतीय–हिंदी, उर्दू, पंजाबी, कन्नड़, बंगला आदि)और विदेशी साहित्य का जमकर अध्ययन किया । सेना भवन की नौकरी के दौरान वहाँ के माहौल पर पहली कहानी ‘बाबूजी से बाऊ’ तक लिखी । वहीं रहते कई और कहानियां और धारावाहिक (‘नन्हे दिन’) लिखे ।
० आपने कहानियां, उपन्यास एवं टीवी धारावाहिक लिखे । आपको विभिन्न विधाओं में लेखन कभी चुनौतीपूर्ण लगा ?
– जी नहीं, कभी नहीं । किसी भी विधा में लेखन अन्ततः साहित्य–लेखन ही है । धारावाहिक लिखते हुए आप हर दृश्य को पर्दे पर विजुअलाइज करते हुए विजÞुअल्स और संवाद लिखते हैं । कहानी और उपन्यास में भी उनके पात्र और परिवेश आपकी आँखों के सामने होते हैं । कोई भी लेखन अन्ततः कथ्य, कल्पनाशीलता और साहित्यिकता का सही मिश्रण ही है ।
० आपने सीखने के लिए रुसी भाषा को ही क्यों चुना ? कोई खास वजह ?
– जी नहीं, कोई खास वजह नहीं थी । जेएनयू में दाखिला तो तीन भाषाओं में हुआ था । पिताजी के एक दोस्त के कहने पर रूसी में दाखिला लिया ।
० १३ वर्ष नौ सेना में बतौर अनुवाद अधिकारी रहने का आपकी लेखन÷साहित्यिक यात्रा को कितना लाभ मिला ?
सरकारी मुलाजिÞमों की जिÞंदगी– जिसके बारे में, उस जÞमाने में पढ़ा, बदीउजÞ्जÞमा का उपन्यास ‘एक चूहे की मौत’ मुझे बहुत पसंद आया था), को नजÞदीक से जानने का मौकÞा मिला । शुरू की कहानियां भी सब सरकारी मुलाजिÞमों की जिÞंदगी पर आधारित रहीं । लेखन की शुरुआत भी, जैसा कि मैंने कहा, वहीं से हुई ।
० जे ।एन.यू. तथा दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च पढाई करने के कुछ यादगार अथवा प्रेरक प्रसंग साझा करिए ?
– ज्यादा साझा करने में तो बहुत वक्त लगेगा लेकिन संक्षेप में यह कि, उस जÞमाने का जेएनयू बुद्धिजीवियों का जेएनयू था । आपकी पृष्ठभूमि क्या है या आप किस भाषा में बात करते हैं या आप क्या पहनते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं था । आपने कितना पढ़ा लिखा है, आपके ज्ञान का महत्व था । छोटी जगहों से आए विद्यार्थी भी हीनभावना से मुक्त रहते थे । साहित्य, दर्शन, अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध, राजनीति और समान्य ज्ञान हर विद्यार्थी से अपेक्षित था ।
० कहानियों, नाटकों, महान रुसी लेखकों के साहित्य को रुसी भाषा से हिंदी में अनुवाद करने पर मिली ख्याति के अलावा क्या रूस की किसी साहित्यिक संस्था अथवा सरकार ने आपको कोई सम्मान अथवा पुरस्कार प्रदान किया ?
– जी, हाँ । नब्बे के दशक में, अखिल–सोवियत संघ लेखक संघ की ओर से मुझे, रूसी–सोवियत साहित्य को भारत में लोकप्रिय बनाने के लिए स्क्रॉल ऑफ हॉनर प्रदान किया गया था । मेरी पहली अनुवाद पुस्तक ‘वगानोव की व्यथा और अन्य कहानियां’ (मूल लेखक वसीली शुकशीन) का विमोचन मशहूर सोवियत कवि रसूल नबmशबतयख और चबशजमभकखभलकपथ के करकमलों द्वारा हुआ था ।
० लेखन कार्य में कामयाबी के लिए आपके परिवार, मित्रों, रिश्तेदारों, शुभचिंतकों की क्या भूमिका रही ?
– जेएनयू के मेरे शिक्षकों ने खासतौर पर मेरी मदद और हौसला अफजाही की ।उनमें से आदरणीय प्रोफेसर वरयाम सिंह जी और प्रोफेसर हेमचन्द्र पांडे जी का नाम खासतौर से लेना चाहूँगा । प्रिय मित्र सुनील भनोट जिन्होंने न सिपÞर्m पीछे पड़कर ‘जिÞन्दगी जश्न है’ मुझसे लिखवाई बल्कि उसका प्रकाशन भी किया, को मैं कैसे भूल सकता हूँ । दोस्त और रिश्तेदार जो मेरे कहने पर पुस्तक–लोकार्पण में आए ।
० अपनी पुस्तक ‘जिन्दगी जश्न है’ (डिप्रेशन से बचें मस्त रहें) पर थोड़ा प्रकाश डालें इसे लिखने का विचार कैसे आया और इसे लिखने के लिए किसने प्रेरित किया.
– देखिए, पुस्तक का विषय तो मेरे जÞहन में बहुत सालों से था लेकिन उसको कागÞजÞ पर उतारने के लिए प्रेरित मुझे सुनील भनोट ने ही किया था । नब्बे के दशक में एक कहानी ‘हँसना कोई हँसी खेल नहीं’लिखी थी । तबसे हँसी को लेकर मैं कापÞmी सजग रहा हूँ । भारत और दुनिया में तेजÞी से महामारी का रूप लेते डिप्रेशन का मुकÞाबला करने के लिए मनुष्य के पास हँसना–हँसाना तथा खुश और मस्त रहना एकमात्र हथियार है । कम होती हँसी और बढ़ते डिप्रेशन के इस वातावरण में हँसी और ह्यूमर के प्रति लोगों को न सिपÞर्m जागरुक करना बल्कि स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए इसके महत्व एवं जÞरूरत पर जÞोर देना पुस्तक का उद्देश्य है ।
० बतौर लेखक एवं अनुवादक आपने साहित्य में अपना योगदान दिया है । आज आप अपनी इस साहित्यिक यात्रा को कैसे परिभाषित करेंगें ?
– बतौर लेखक और अनुवादक साहित्य में योगदान की मेरी यात्रा नब्बे के दशक में शुरू हुई जो आज तक जारी है । सोवियत साहित्य में एक बड़ा नाम वसीली शुकशीन का है जिन्होंने ग्रामीण पात्रों की शहर से टकराव के बारे में बोलचाल की भाषा में कहानियां लिखीं और कुछ फिल्मों की पटकथा लिखने के अलावा निर्देशन भी किया । इस महान कहानीकार की कहानियों का सीधे रूसी से हिंदी में अनुवाद कर हिंदी पाठकों से परिचय का श्रेय इसी नाचीजÞ को जाता है । हिन्दी से इन कहानियों के अनुवाद दूसरी भारतीय भाषाओं में भी हुए । प्रसिद्ध समकालीन सोवियत नाटककार अलेक्सान्दर गलिन और अलेक्सान्दर गिलमन का हिन्दी रंगमंच से परिचय का श्रेय भी वेद कुमार शर्मा को जाता है । इनके मेरे द्वारा अनुदित नाटकों के बहुत सारे मंचन दिल्ली और दूसरे शहरों में हुए ।
० जो युवक लेखन कार्य की शुरुआत करना चाहते हैं उनके लिए आप कुछ टिप्स बताएँ ताकि वो आपके लम्बे अनुभव से सीखकर साहित्य में योगदान दे सकें ?
– मित्रो, लेखन कोई कार्य नहीं तपस्या हैं । जो करना चाहें वे इस क्षेत्र में आएं । लेखन के लिए सबसे जÞरूरी है पढ़ना । अच्छा पाठक ही लेखक हो सकता । जितना ज्यादा पढ़ेंगे उतनी अच्छी आपकी अभिव्यक्ति होगी । लेखन के लिए आपकी ऑब्जरवेशन अच्छी होनी चाहिए । जो चीजÞ एक बार देख लें उसका नक्शा आपके जÞहन पर पÞmोटो की तरह अंकित हो जाना चाहिए । इसके अलावा, निरंतर अभ्यास आवश्यक है ।
० किताब लिखने के बाद का आपका अनुभव कैसा रहा ?
– एक दिलचस्प और सुखद अनुभव यह रहा कि मुझे लगने लगा कि अब मैं एक समय में कई जगह मौजूद हो सकता हूँ, एक जगह व्यक्ति के रूप में बहुत सारी दूसरी जगहों पर किताब के रूप में, अपने विचारों के रूप में । अपने प्रति मेरा अपना सम्मान बढ़ा और खुद को अधिक गम्भीरता से लेने लगा । किताब लिखने की प्रक्रिया एक तरह खुद को जानने की प्रक्रिया भी सिद्ध हुई ।