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नाकाबंदी खुलाने के लिए मारवाड़ी समाज की उकुस-मुकुस। ये ब्यापारिक घाटा का रोना रो रहे है। इन्हें शायद याद नहीं, मधेश आंदोलन से पहले पहाड़ी इन्हें “माडे-माडे” कहकर जबरदस्ती चंदा लेते थे। ०६३ साल के आंदोलन का सबसे ज्यादा लाभ इन्हें ही मिला। आंदोलन सफल से ही इनकी भी प्रतिष्ठा रहे ये समझ कर इन्हें सहयोग करना चाहिए।


मुरलीमनोहर तिवारी (सिपु), वीरगंज,३०,जनवरी |

मधेश आंदोलन  के क्रम में हाल में ही बिरगंज में चार घटनाएं हुई, जिनको मीडिया में ज्यादा महत्व तो नहीं मिला, पर सूक्ष्म विश्लेषण करने पर, ये घटनाएं मधेश आंदोलन को आइना दिखाने, और कमजोर कड़ी की नब्ज़ जांचने जैसा है।

पहली घटना है, कावरियों द्वारा धरना देकर सुख्खा बंदरगाह बंद कराया गया। आंदोलन में सुख्खा बंदरगाह, किसी दल द्वारा बंद नहीं हो पाया था। हलाकि पुलिस द्वारा जबरन शक्ति प्रयोग करके कल्ह साम को  कावरियों को वहाँ से हटा दिया गया है | जहाँ कई दल और मोर्चा आंदोलन का नेतृत्व करने का दावा करते है, वही बिरगंज में कुछ सप्ताह पहले कुछ युवाओ ने (जिनमे ज्यादातर किसी दल से सीधे सबंधित नहीं है) आंदोलनकारी समिति बनाया। समिति बन्ने के बाद से ये युवा आंदोलन में मजबूती देने का विभिन्न प्रयाश करते दिखे। इनकी बढ़ती लोकप्रियता से अन्य दल के नेता ख़फा होकर धमकी तक दिए।

आंदोलन में और मजबूती कैसे हो, इस प्रकार की बेचैनी इनमे दिखती थी। ये लोग गांव- गांव जाकर कावरियों से सहयोग माँगा। बंदरगाह पर बैठने के लिए टेन्ट, शामियाना, माइक, जनरेटर, भोजन का खर्च खुद ही मिलाया। कावरियों के साथ लोगो को भी बुलाया। प्रशासन की पांच गाड़ियां पुलिस और दो दमकल की गाड़ी भी पहुच गई, जो रात्रि में बल प्रयोग का स्पस्ट संकेत दे रही थी। इन्हें कई जगह से लगातार धमकी मिल रही थी। कई जगह से मानव अधिकारकर्मी द्वारा ही धमकी आई।

इन्हें लगा अभी भी तैयारी मुकम्मल नहीं है। इन्होंने युक्ति लगाकर गांव के उख ट्रैक्टरो से एक रात का सहयोग माँगा। नतीजतन प्रशासन के कुछ समझने से पहले सैंकड़ो ट्रेक्टर बंदरगाह के सड़क को ठप्प कर चूका था। रास्ता खुलाना प्रशासन के लिए असंभव हो चूका था। सुबह अखबार, रेडियो, फेसबुक में लगभग सभी पार्टी के नेता का फ़ोटो और इसका श्रेय खुद लेने के दावे से भरा था। इन युवाओ का जिक्र कही नहीं था।

दूसरी घटना है, मितेरी पुल की जहां सुबह-सुबह कुछ तस्कर नाका पर पिटाई करके दिन- दहाड़े तस्करी करा लेते है। चार से लेकर आठ पार्टिया आंदोलन करने का दावा करती है, पर नाका पर उपस्थिति दस भी नहीं होती है। अगर सप्ताह में एक पार्टी के जिम्मे एक दिन भी दिया जाए और निष्ठा से काम किया जाए तो एक-एक पार्टी हजार लोगो को ला सकती है। लेकिन ये हो तो नहीं रहा है।

तीसरी घटना है, कुछ स्वतंत्र पत्रकार, शिक्षक, वकील, बुद्धिजीवी गांव-गांव में सभा करके ये माहौल बना रहे है की आगामी बीस गते तक सभी मधेशी दल एक साथ आए। तेईस गते को बिरगंज घंटे घर पर सभी नेता आए, जो नेता ना आए उनका ही विरोध किया जाए। उनका पुतला दहन किया जाए। इस कार्य को अंजाम देने के लिए हरेक पार्टी के कार्यकर्त्ता से शपथ खिलाई जा रही है की उनकी निष्ठा पार्टी के प्रति है, या मधेश के प्रति।

चौथी घटना है नाकाबंदी खुलाने के लिए मारवाड़ी समाज की उकुस-मुकुस। ये ब्यापारिक घाटा का रोना रो रहे है। इन्हें शायद याद नहीं, मधेश आंदोलन से पहले पहाड़ी इन्हें “माडे-माडे” कहकर जबरदस्ती चंदा लेते थे। ०६३ साल के आंदोलन का सबसे ज्यादा लाभ इन्हें ही मिला। आंदोलन सफल से ही इनकी भी प्रतिष्ठा रहे ये समझ कर इन्हें सहयोग करना चाहिए।

इन चारो घटना में देखा जाए तो दीखता है की कुछ युवा चाहे तो क्या कुछ नहीं हो सकता। जो काम आठ लड़के कर सकते है, वह काम आठ पार्टिया क्यों नहीं कर सकती। मानते है की बंदरगाह एक दिन के लिए ही बंद हो दूसरे दिन ये कमजोर पड़ सकते है। अगर सब लगे तो कितनी शक्ति आएगी। सिर्फ सच्चे मन से लगने की जरुरत है।

आंदोलन का सबसे कमजोर पक्ष रहा एकता का आभाव। तमरा अभियान के संयोजक जेपी गुप्ता के पहल पर महागठबंधन का प्रयाश शुरू हुआ है। जिस दिन ये प्रयाश शुरू हुआ मीडिया और सोशल मीडिया शुभकामना संदेशो से भरा हुआ था। हम अकेले होते है तो दिन-दहाड़े तस्कर, चोर, उच्चके हमें पिट जाते है। इतने लंबे आंदोलन से कुछ भी हासिल नहीं हुआ, दुनिया की नजर में हम हँसी के पात्र बने है। हम खुद को बुजदिल और कायर सिद्ध कर रहे है। अगर एक हो जाए तो सरकार के तख़्त- ताज उखाड़ फेकने की हैसियत रखते है।
जय मधेश।।



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